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जिन सहस्रनाम_ अर्थसहित प्रथम अध्याय भाग २ - Printable Version

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जिन सहस्रनाम_ अर्थसहित प्रथम अध्याय भाग २ - FDArchitects - 06-04-2018

जिन सहस्रनाम_ अर्थसहित प्रथम अध्याय भाग २

५१. आप जीवोंको संसार के पार मोक्षतक पहुंचाते है, इसलिए" पर " हो।
५२. किसी भि धर्मोपदेशकसे श्रेष्ठ होनेसे"परतर" कहे जाते है।
५३. आप प्रथम चारों ज्ञानोंसेभि नहि जाने जा सकते है और मात्र केवलज्ञान हि आपके यथार्थ स्वरुप का ज्ञान दे सकता है, इस वजह से "सूक्ष्म" कहलाते है।
५४. आप परम स्थान मोक्षमे स्थित है, इसलिए"परमेष्ठी " भि कहे जाते है।
५५. आप चिरंतन नित्य सत्यस्वरुप है, इसलिये "सनातन" भि कहे जाते है।


स्वयं ज्योति रजोऽ जन्मा ब्रह्म योनिरऽ योनिज। मोहारि विजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वज:॥८
५६. आपको देखनेकेलिये प्रकाश कि जरुरत नहि है, क्योंकि आप स्वयं हि प्रकाशरूप है, इसलिए"स्वयंज्योति" कहे जाते है।
५७. आप फिरसे उत्पन्न नहि होगे, इसलिए"अजकहे जाते है।
५८. आप अभि फिर शरीर धारण नही करेंगे, इसलिए"अजन्म" कहलाते है।
५९. ब्रह्म अर्थात सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र्य आपसे उत्पन्न होता है, इसलिए"ब्रह्मयोनि" कहे जाते है।
६०.

८४
लाख योनियोंसे रहित होके आप मोक्षालय मे उत्पन्न होते है,
, इसलिये " अयोनिज " अथवा जब आप सिध्दशीला पर उत्पन्न होंगे, तो आपका जन्म योनिसे नही अपितु ८४ लाख योनिसे रहित होनेसे वहाँ हुआ है।
६१. सबसे बडा शत्रुकर्म मोह पर विजय पानेसे आप"मोहारिविजयी" कहे जाते है।
६२. आपने कर्मरिपुओंको परास्त कर विजय पायी है, इसलिये आप" जेता" कहलाते है।
६३. आप जहा जहा जाते है, विहार करते है, धर्मचक्र सदैव आपके सामने चलते रहता है, अर्थात आप धर्म के चक्र को सब जगह साथ लेकर चलते है इसलिएअ आप"धर्मचक्री" नामसे भि जाने जाते है।
६४. आपकि उत्तम धर्मध्वजा सब प्राणियोंपर दया करने का संदेश देती है, दया भावना सिखाती है, इसलिये आप"दयाध्वज" भि कहे जाते है।

प्रशान्तारि रनन्तात्मा योगी योगीश्वराऽ र्चित:। ब्रह्म विद् ब्रह्म तत्वज्ञो ब्रह्मोद्या विद्यतीश्वर: ॥९॥
६५. आपने कर्मरुपीशत्रुओंके शान्त किया है, अथवा आपके कर्मशत्रू शांत हुए है, इसलिये आप"प्रशान्तारि" कहलाते है।
६६. आपके आत्मा मे अनंत गुण है और आपके आत्मा का नाश कभी नही होगा, अथवा आपकि आत्मा अनंतकाल तक यथास्थित रहेगी इसलिये आप"अनन्तात्मा" कहे जाते है।
६७. योग कर्म के आस्रव का कारण है, उस योगका हि आपने निरोध किया है, इसलिए आप" योगी" कहलाते है।
६८. गणधरादि योगीश्वर भि आप कि पूजा अर्चना करते है, इसलिये आप"योगीश्वराऽर्चित" भि कहे जाते है।
६९. आत्मा का यथार्थ स्वरूप जानते है, इसलिये "ब्रह्मवित्" है।
७०. ब्रह्म के उत्पत्ती कारण जानके कामदेव का नाश करने कि वजहसे आप" ब्रह्मतत्वज्ञ" है।
७१. आत्मा के समस्त तत्त्वोंको अर्थात आत्मविद्या जानने के कारण"ब्रह्मोविद्यावित्" है।
७२. रत्नत्रय को सिध्द करने वाले यतियोंमेभि आप श्रेष्ठ रहनेसे "यतीश्वरभि कहलाते है।

शुध्दो बुध्द: प्रबुध्दात्मा सिध्दार्थ: सिध्द शासन:। सिध्द: सिध्दान्त विद्ध्येय: सिध्द साध्यो जगध्दित: ॥१०॥
७३. जब कषाय खत्म हो जाते है, तब शुध्दावस्था प्राप्त होती है, इस वजहसे आप"शुध्द" कहे जाते है।
७४. सब जानने से आप"बुध्द" हो।
७५. आत्मा का स्वरुप जानने से "प्रबुध्दात्मा" हो।
७६. चारो पुरुषार्थ ( धर्म अर्थ काम मोक्ष) को सिध्द करनेसे अथवा सिध्दत्व (मोक्ष) हि एकमात्र उद्देश होनेसे, अथवा सात तत्व तथा नौ पदार्थोंकि सिध्दता करनेसे तथा रत्नत्रय् सिध्द करने के कारण से आप"सिध्दार्थ" कहलाते है।
७७. आपका शासन हि एक मात्र एकमेव है यह सिध्द होनेसे आप" सिध्दशासन" कहलाते है।
७८. आपने कर्मोंका नाश करके "सिध्द" कहलाते है।
७९. द्वादशांगसिध्दांतोंमे पारंगत होने से आप" सिध्दांतविद्" है।
८०. योगी लोगोंके ध्यान का विषय होनेसे आप"ध्येय" कहे जाते है।
८१. आप सिध्द जाति के देवोंद्वारा पुजे जाने से" सिध्यसाध्य" कहे जाते है।
८२. आप समस्त जगत के हितैषी है, उपकारक है इसलिये आप"जगध्दित्" कहलाते है।

सहिष्णु रच्युतोऽ नन्त: प्रभ विष्णु र्भवोद्भव:। प्रभूष्णु रजरोऽ जर्यो भ्राजिष्णुर्धी श्वरोऽ व्यय: ॥११॥
८३. आपने परिषह समभावसे सहन किये है, इसलिये "सहिष्णु" कहलाते है।
८४. आप आत्मस्वरुपसे अथवा स्वयंलीन रहनेसे कभि च्युत् नही होते इसलिये "अच्युत" कहलाते गये है।
८५. आपके गुण गिने नही जाते, अर्थात आपके गुणोका अंत नही इसलिए"अनंत" कहे गये है।
८६. आप प्रभावी है, शक्तिशाली है इसलिए"प्रभविष्णु" के नामसे जाने जाते है।
८७. इस जन्म मे आप मोक्ष प्राप्त करेंगे अर्थात आपके सर्व भवोंमे यह भव उत्कृष्ट है, इसलिए आपको "भवोद्भव" कहा जाता है।
८८. शतेंद्र के प्रभु होने का आपका स्वभाव है, इसलिए आप"प्रभूष्णु" है।
८९. आप अनंतवीर्य है, इसलिये आप वृध्द नही होंगे, इसलिये आपको" अजर" कहा गया है।
९०. आपकि मृत्यु अथवा अंत नही होगा इसलिये "अजर्य" हो।
९१. आप करोडो सूर्योंके एकत्रित आभा से अधिक कांतिमान है, इसलिये "भ्राजिष्णु" हो।
९२. पुर्ण ज्ञान के अधिपति होनेसे "धीश्वर" हो।
९३. आप कभी समाप्त नही होते, अर्थात कम अधिक भि नही होंगे अर्थात आप का व्यय नही होगा इस कारण से आप"अव्यय" भि कहे जाते है।

विभाव सुर सम्भूष्णु: स्वयं भूष्णु: पुरातन:। परमात्मा परंज्योति स्त्रि जगत्परमेश्वर: ॥१२॥
९४. आप कर्म को जलाने वाले तेजसे अथवा मोहांधकार को नष्ट करनेवाले सूर्यसे अथवा धर्मामृत वर्षा करनेवाले चंद्र से अथवा रागद्वेषरूपी विभाव परिणाम नाश करनेसे अर्थात अनेक कारणोंसे"विभावसु" कहे जाते है।
९५. आपके स्वभावमे अब संसारमे उत्पन्न होना नहि है, इसलिये "असंभूष्णु" कहलाते है।
९६. आप अपने आप हि प्रकाशीत हुए है, अर्थात प्रकट हुए है, इसलिये आप"स्वयंभूष्णु" कहे जाते है।
९७. अनदि सिध्द होनेसे "पुरातन" हो।
९८. आत्मा के परमोत्कृष्ट होने से "परमात्मा" हो।
९९. मोक्षमार्ग को प्रकाशित करनेवाले होनेसे "परमज्योती" हो।
१००. तीनो लोक के स्वामी होनेसे आप"त्रिजगत्परमेश्वर" भि कहे जाते है।