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जिन सहस्त्रनाम अर्थसहित द्वितीय अध्याय भाग १ - Printable Version

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जिन सहस्त्रनाम अर्थसहित द्वितीय अध्याय भाग १ - FDArchitects - 06-04-2018

जिन सहस्त्रनाम अर्थसहित [b]द्वितीय अध्याय भाग १[/b]
[b]दिव्यभाषापतिर्दिव्य: पूतवाक्पूतशासन:। पूतात्मा परमज्योतिर्धर्माध्यक्षो दमीश्वर॥१॥
१०१. आपके लिए देव भाषा का अतिशय है, इस वजह से आप"दिव्यभाषापति" कहलाते है।
१०२. मनोहारि तथा स्वयंप्रकाशित होनेसे "दिव्य" कहे जाते है।
१०३. आपके वाणी मे कोई भि दोष नही है, इससे आप"पूतवाक्" हो।
१०४. आपका शासन निर्दोष है, इससे "पूतशासन" भि कहे जाते है।
१०५. आपका आत्मा पवित्र होनेसे तथा आप भव्यजीवोंके आत्मा के पवित्र करनेवाले रहनेसे "पूतात्मा" है।
१०६. आपका केवलज्ञानरूपी तेज सर्वोत्कृष्ट होनेसे आप" परमज्योति" कहे जाते है।
१०७. धर्म के अधिकारी होनेसे "धर्माधक्ष्य" कहे जाते है।
१०८. इन्द्रियोंके निग्रह करने के कारण अथवा इंद्रियोंके दमन करने से आप"दमीश्वर" है।।


[/b]

श्रीपति र्भगवान अर्हन्नरजा विरजा: शुचि:। तीर्थकृत् केवलीशान: पूजार्ह स्नातकोऽ मल:॥२
१०९. मोक्षादि लक्ष्मीके स्वामी होनेसे " श्रीपति " हो।
११०. महाज्ञानी होने से "भगवान्" है।
१११. सबके आराध्य होनेसे "अर्हन्" है।
११२. कर्मरुपी कलुषरहित होनेसे "अरजा" है।
११३. आप जीवोंका कर्ममल रज दूर करनेवालेसे "विरजा" कहे जाते है।
११४. आप बाह्यंतर ब्रह्म पालन करनेसे तथा बाह्य मलमूत्र, मोहरहित होनेसे "शुचि" है।
११५. आप धर्मतीर्थ के प्रवर्तक रहनेसे "तीर्थकृत्" कहलाते है।
११६. आप केवलज्ञानीहोनेसे "केवली" है।
११७. सबके ईश्वर होनेसे "इशान" हो ।
११८. आठ प्रकारकि पूजा अर्थात अर्घ्य के योग्य होनेसे "पूजार्ह" हो।
११९. सम्पूर्ण ज्ञान के धारक होने "स्नातक" हो ।
१२०. धातू उपधातू के रहीत होने से आप"अमलकहे जाते है।


अनंतदिप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयंबुध्द: प्रजापति:। मुक्त: शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वर:॥३॥
१२१. आपके शरीर तथा ज्ञान दोनो कि दिप्ती अनंत है, इसलिए आप"अनंतदिप्ति" कहे जाते है।
१२२. आप शुध्द ज्ञानस्वरुप आत्मा के धारि है, इसलिये आपको "ज्ञानात्मा" कहा जाता है।
१२३. आपके मोक्षमार्ग मे स्वयं हि प्रेरित् हुए है, अर्थात आपने गुरु के बगैर हि ज्ञान कि प्राप्ति स्वयं चिंतन से कि है, इसलिये आप"स्वयंबुध्द" है।
१२४. आप तीन लोकोके जीवोको उपदेश देते है, तथा तीन लोक के स्वामी है, इसलिये आप"प्रजापति" है।
१२५. आपने घातिया कर्मोसे अर्थात पुन्: संसार भ्रमण से मुक्ति पायी है, इस कारण से आप"मुक्त" है।
१२६. अनंतवीर्य के धारी होने से "शक्त" है।
१२७. दु:ख अथवा कर्म बाधासे रहित होनेसे "निराबाध" हो।
१२८. शरीर तो आपका अब मात्र नाम के लिये, अर्थात कोई भि शरीर के वजहसे होनेवाला परिषह आपका नही होने से "निष्कल" के नामसे अर्थात जिनका पार्थिव नही होता ऐसेभि जाने जाते है।
१२९. त्रिलोकिनाथ होने से "भुवनेश्वरकहे जाते है।


निरंञ्जनो जगज्ज्योति र्निरुक्तोक्ति र्निरामय:। अचल स्थिति रक्षोभ्य: कूटस्थ स्थाणु रक्षय:॥४
१३०. कर्मरूपी कलुष अर्थात अञ्जन के रहित होनेसे "निरञ्जन" हो।
१३१. जग के लिये आप ज्ञान कि ज्योति है, जो समस्त जीवोंके लिये मार्गप्रकाशक है, इसलिये "ज अगज्ज्योति" हो।
१३२. आपके वचनोके विरुध्द कोई प्रमाण नहि, कोई उक्ति आपके वचन को परास्त नही करती, इसलिये "निरुक्तोक्ति" हो।
१३३. रोग व घर्म ना होने से "निरामय" हो।
१३४. आप अनंत काल बीतने पर भि कायम, अचल रहते है, आप कालातित है इसलिये " अचलास्थिती" है।
१३५. आप क्षोभरहित है, अर्थात आपकि शांति अभंग है, आप अनाकुल है इसलिए आपको "अक्षोभ्य" कहा जाता है।
१३६. सदा नित्य रहनेसे, लोकाग्रमे विराजमान रहनेसे आपको "कूटस्थ" कहा जाता है।
१३७. आपके गमनागमन का कोई हेतु नही, कारण नही, आप सदैव स्थिर है, इसलिये "स्थाणु" है।
१३८. क्षयरहित होनेसे, या हीनाधिक ना होनेसे आप"अक्षय" है।


अग्रणी ग्रामणी र्नेता प्रणेता न्याय शास्त्रकृत्। शास्ता धर्मपति र्धर्म्यो धर्मात्मा धर्म तीर्थकृत्॥५
१३९. आपसे हि तीर्थ शुरु होता है, अर्थात आप तिनो लोकोंमें मुख्य होनेसे "अग्रणी" हो।
१४०. गणधरोंके के मुख्य होनेसे "ग्रामणी" हो।
१४१. अग्र मे रहकर प्रजा को धर्म मार्ग पर चलानेसे "नेता" हो।
१४२. धर्मशास्त्र को प्रथम उद्घाटित करनेसे "प्रणेता" कहे जाते है।
१४३. आप नय तथा प्रमाण से द्रष्टा शास्त्रोके वक्ता है, इसलिए" न्यायशास्त्रकृत" है।
१४४. सबको धर्म का शासनसे चलने का उपदेश देनेवाले "शास्ता" हो।
१४५. दशविध धर्म के स्वामि तथा व्याख्याता होनेसे "धर्मपति" हो।
१४६. स्वयं हि धर्म का साक्षात् स्वरूप होनेसे " धर्म्य" हो।
१४७. आपके आत्मा का स्वरूपहि धर्मस्वरुप रहनेसे "धर्मात्मा" है ।
१४८. धर्म के तिर्थ के प्रवर्तक होनेसे "धर्मतीर्थकृत" कहलाते है।


वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतु र्वृषायुध:। वृषो वृषपति र्भर्ता वृषभांको वृषोद्भव:॥६॥
१४९. आपके ध्वजपर वृषभ का चिन्ह होनेसे अथवा आप स्वयं धर्म कि ध्वजा के रुप मे आकाश मे फहरानेसे "वृषध्वज" हो।
१५०. धर्म के स्वामी होनेसे "वृषाधीश" हो।