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श्रुत पंचमी क्यों मनाते हैं - Printable Version

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श्रुत पंचमी क्यों मनाते हैं - scjain - 06-07-2019

ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को जैन समाज में, श्रुतपंचमी पर्व मनाया जाता है।
श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र के मुख से श्री इन्द्रभूति (गौतम) गणधर ने श्रुत को धारण किया। उनसे सुधर्माचार्य ने और उनसे जम्बू नामक अंतिम केवली ने ग्रहण किया। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद इनका काल ६२ वर्ष है।
पश्चात १०० वर्ष में 
विष्णु
नन्दिमित्र
अपराजित
गोवर्धन 
भद्रबाहु
ये पांच आर्चाय पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता श्रुतकेवली हुए।
तदनंतर ग्यारह अंग और दश पूर्वों के वेत्ता ये ग्यारह आचार्य हुए
विशाखाचार्य
प्रोष्ठिन
क्षत्रिय
जय
नाग
सिद्धार्थ
धृतिसेन
विजय
बुद्धिल 
१० गंगदेव
११ धर्म सेन
इनका काल १८३ वर्ष है।
तत्पश्चात 
नक्षत्र
जयपाल
पाण्डु
ध्रुवसेन
कंस
ये पांच आर्चाय ग्यारह अंगों के धारक है। इनका काल २२० वर्ष है।
तदनन्तर
सुभद्र
यशोभद्र
यशोबाहु
लोहार्य
ये चार आचार्य एकमात्र आचारंग के धारक हुए। इनका समय ११८ वर्ष है।
इसके पश्चात अंग और पूर्ववेत्तओं की परम्परा समाप्त हो गई और सभी अंगों और पूर्वों के एकदेश का ज्ञान आचार्य परम्परा से धरसेनाचार्य को प्राप्त हुए। ये दूसरे अग्रायणी पूर्व के अंतर्गत चैथे महाकर्म प्रकृति प्राभृत के विशिष्ट ज्ञाता थे। श्रुतावतार की यह परम्परा धवला टीका के रचयिता आचार्य वीरसेन स्वामी के अनुसार है। नन्दिसंघ की जो प्राकृत पट्टावली उपलब्ध है उसके अनुसार भी श्रुतावतार का यही क्रम है। केवल आचार्य के कुछ नामों में अंतर है, फिर भी मोटे तौर पर उपयुक्त कालगणना के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण से ६८३ वर्षों के व्यतीत होने पर आचार्य धरसेन हुए, ऐसा स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है। नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार धरसेनाचायार्य का काल वीर निर्वाण से ६१४ वर्ष पश्चात जान पड़ता है
षट्खण्डामग की रचना
आचार्य धरसेन अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता थे। जिस प्रकार दीपक से दीपक जलाने की परम्परा चालू रहती है उसी प्रकार आचार्य धरसेन तक भगवान महावीर की देशना आंशिक रूप में पूर्ववत धाराप्रवाह रूप में चली रही थी। आचार्य धरसेन काठियावाड में स्थित गिरिनगर ?गिरिनाम पर्वत? की चन्द्र गुफा में रहते थे। जब वे बहुत वृद्ध हो गए और अपना जीवन अत्यल्प अवशिष्ट देखा तब उन्हें यह चिंता हुई कि अवसर्पिणी काल के प्रभाव से श्रुतज्ञान का दिन प्रतिदिन ह्रास होता जाता है। इस समय मुझे जो कुछ श्रुतप्राप्त है, उतना भी आज किसी को नहीं है, यदि मैं अपना श्रुत दूसरे को नहीं दे सका तो यह भी मेरे ही साथ समाप्त हो जायेगा। उस समय देशेन्द्र नामक देश में वेणाकतटपुर में महामहिमा के अवसर पर विशाल मुनि समुदाय विराजमान था। श्री धरसेनाचार्य ने एक ब्रह्मचारी के हाथ वहां मुनियों के पास एक पत्र भेजा। उसमें लिखा था दो यतीश्वरों को मेरे पास भेजो

मुनि संघ ने आचार्य धरसेन के श्रुतरक्षा सम्बंधी अभिप्राय को जानकर दो मुनियों को गिरिनगर भेजा। वे मुनि विद्याग्रहण करने में तथा उसका स्मरण रखने में समर्थ थे, अत्यंत विनयी तथा शीलवान थे। उनके देश, कुल और जाति शुद्ध थे और वे समस्त कलाओं में पारंगत थे। जब वे दो मुनि गिरिनगर की ओर जा रहे थे तब यहाँ श्री धरसेनाचार्य ने ऐसा शुभ स्वप्न देखा कि दो श्वेत वृष आकर उन्हें विनयपूर्वक वंदना कर रहे हैं। उस स्पप्न से उन्होंने जान लिया कि आने वाले दोनों मुनि विनयवान, एवं धर्मधुरा को वहन करने में समर्थ हैं। दूसरे दिन दोनों मुनिवर पहुंचे अैर विनयपूर्वक उन्होंने आचार्य के चरणों में वंदना की। दो दिन पश्चात श्री धरसेनाचार्य ने उनकी परीक्षा की। एक को अधिक अक्षरों वाला और दूसरे को हीन अक्षरों वाला विद्यामंत्र देकर दो उपवास सहित उसे साधने को कहा। ये दोनों गुरू के द्वारा दी गई विद्या को लेकर और उनकी आज्ञा से भी नेमिनाथ तीर्थकर की सिद्धभूमि पर जाकर नियमपूर्वक अपनी अपनी विद्या की साधना करने लगे जब उनकी विद्या सिद्ध हो गई तब वहां पर उनके सामने दो देवियां आई। उनमें से एक देवी के एक ही आँख थी और दूसरी देवी के दाँत बड़े-बड़े थे।
मुनियों ने जब सामने देवियों को देखा तो जान लिया कि मंत्रों में कोई त्रुटि है, क्योंकि देव विकृतांग नहीं होते हैं। तब व्याकरण की दृष्टि से उन्होंने मंत्र पर विचार किया। जिसके सामने एक आँख वाली देवी आई थी उन्होंने अपने मंत्र में एक वर्ण कम पाया तथा जिसके सामने लम्बे दाँतों वाली देवी आई थी उन्होंने अपने मंत्र में एक वर्ण अधिक पाया। दोनों ने अपने-अपने मंत्रों को शुद्ध कर पुनः अनुष्ठान किया, जिसके फलस्वरूप देवियां अपने यथार्थ स्वरूप में प्रकट हुई तथा बोली कि हे नाथ! आज्ञा दीजिए! हम आपका क्या कार्य करें? दोनों मुनियों ने कहा- देवियों! हमारा कुछ भी कर्य नहीं है। हमने तेा केवल गुरूदेव की आज्ञा से ही विद्यामंत्र की आराधना की है। ये सुनकर वे देवियां अपने स्थान को चली गई।
मुनियों की इसी कुशलता से गुरू ने जान लिया कि सिद्धांत का अध्ययन करने के लिए वे योग्य पात्र है। आचार्य श्री ने उन्हें सिद्धांत का अध्ययन कराया। वह अध्ययन अषाढ शुक्ल एकादशी के दिन पूर्ण हुआ। इस दिन देवों ने दोनों मुनियों की पूजा की। एक मुनिराज के दांतों की विषमता दूर देवों ने उनके दांत कुंदपुष्प के समान सुंदर किया इसलिए आचार्यश्री ने उनकापुष्पदन्तयह नामांकरण किया तथा दूसरे मुनिराज की भी भूत जाति के देवों ने तूर्यनाद जयघोष, गंधमाला, धूप आदि से पूजा की इसलिए आचार्यश्री ने उन्हेंभूतबलिनाम से घोषित किया।
अनन्तर श्री धरसेनाचार्य ने विचार किया कि मेरी मृत्यु का समय निकट है। इन दोनों को संक्लेश हो, यह सोचकर वचनों द्वारा योग्य उपदेश देकर दूसरे ही दिन वहां से कुरीश्वर देश की ओर विहार करा दिया। यद्यपि वे दोनों ही साधु गुरू के चरण सान्निध्य में कुछ अधिक समय तक रहना चाहते थे तथापि ‘‘गुरू के वचन अनुल्लंघनीय हैं,’’ ऐसा विचार कर वे उसी दिन वहाँ से चल दिए और अकलेश्वर (गुजरात) में आकर उन्होंने वर्षाकाल बिताया। वर्षाकाल व्यतीत कर पुष्पदन्त आचार्य तो अपने भानजे जिनपालित के साथ वनवास देश को चले गए और भूतबलि भट्टारक द्रमिल देश को चले गए।
पुष्पदन्त मुनिराज अपने भानजे को दीक्षा देकर उन्हें पढाने के लिए महाकर्म प्रकृति प्रभृत का छह खण्डों में उपसंहार करना चाहते थे अतः उन्होंने बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के १७७ सूत्रों को बनाकर शिष्यों को पढाया और जिपालित को यह ग्रन्थ देकर भूतबलि जी के पास भेज दिया। इस रचना को और पुष्पदन्त मुनि के षटखण्डागम रचना के अभिप्राय को जानकर एवं पुष्पदंत जी की आयु भी अल्प है ऐसा जिनपालित से समझकर श्री भूतबलि आचार्य ने द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि करके आगे के ग्रन्थ की रचना की।
इस तरह पूर्व के सूत्रों सहित छह हजार श्लोक प्रमाण में इन्होंने पांच खण्ड बनाये। 
छह खण्डों के नाम हैं-
जीवस्थान
क्षुद्रक बंध
बंधस्वामित्व
वेदना खण्डा
५वर्गणा खण्ड 
महाबंध