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Bhaktambar stotra 7 to 12 with meaning and riddhi mantra - Printable Version

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Bhaktambar stotra 7 to 12 with meaning and riddhi mantra - Nidhi Ajmera - 06-17-2021

त्वत्संस्तवेन भव- सन्तति- सन्निबद्धं, पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् । 
आक्रान्त लोक-मलि -नील-मशेष- माशु, सूर्यांशु भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम् ॥

प्रभु संस्तवन की महिमा का जो अनुभव करते हैं। 
अनेक भव से संचित अध भी पल में हरते हैं ।। 
ज्यों रात्रि का अलि सम काला घना तमस भी हो। 
किन्तु सूर्य की किरण मात्र से छिन्न-भिन्न ही हो । 
मोह अँधेरा शाश्वत लय हो यही भाव स्वामी । 
चेतन में हो नित्य सवेरा है अन्तर्यामी । 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है। (7)

ॐ ह्रीं अर्हम् संभिन्न संश्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धये संभिन्न संश्रोतृत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (7)

मत्त्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद, तनु धियापि तव प्रभावात् । 
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु, मुक्ता-फल-द्युति-मुपैति ननूद-बिन्दुः ॥

बिन बुद्धि से स्वल्प बुद्धि को मैंने प्राप्त किया। 
तव प्रभाव से सज्जन मनहर स्तव प्रारम्भ किया। 
कमलिनी के पत्तों पर जब जल की बूँद पड़े। 
मोती सम आभा के जैसी अद्भुत चमक दिखे ।। नीर बूँद सम मेरी भक्ति प्रभु कमलिनी पात। अनन्त गुण मुक्ता पाने को चरण नवाऊँ माथ ।। मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (8)

ॐ ह्रीं अर्हम् दूरास्वादित्व बुद्धि ऋद्धये दूरास्वादित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (8)

आस्तां तव स्तवन- मस्त- समस्त दोष, त्वत्सङ्कथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति । 
दूरे सहस्रकिरण: कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ॥

नाथ आपके संस्तवन की बात रहे अति दूर । 
नाम मात्र में पाप नाश की शक्ति है भरपूर ।। 
अठशत योजन दूर धरा से सूरज रहता है। 
केवल रवि किरणों को छूकर सु- मनस खिलता है। 
सिद्धालय में बसे प्रभु का नाम मात्र ध्याऊँ । 
स्वात्म सरोवर में रत्नत्रय कमल खिले पाऊँ । 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (9)

ॐ ह्रीं अर्हम् दूरस्पर्शित्व बुद्धि ऋद्धये दूरस्पर्शित्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (9)

नात्यद्-भुतं भुवन-भूषण ! भूत-नाथ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त- मभिष्टुवन्तः । 
भवन्ति भवतो तेन किं वा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥

हे त्रिभुवन के भूषण ! स्वामी सब जीवों के नाथ। 
तव सद्गुण का कीर्तन कर जो चरण नमावे माथा 
प्रभु समान पद वह पा लेता इसमें क्या आश्चर्य।
 जैसे निज आश्रय सेवक को निज सम करता आर्य।। 
भक्त आपसे गुण सम्पद पा स्वयं नाथ बनता। 
ऐसे वीतराग जिनवर को श्रद्धा से नमता।। 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (10)

ॐ ह्रीं अर्हम् दूरघ्राणत्व बुद्धि ऋद्धये दूरघ्राणत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (10)

दृष्ट्वा भवन्त मनिमेष- विलोकनीयं, नान्यत्र-तोष- मुपयाति जनस्य चक्षुः । 
पीत्वा पय: शशिकर-द्युति- दुग्ध-सिन्धो , क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥

अपलक दर्शन योग्य आपका वीतराग है रूप । 
एक बार तुमको लखता वह कहीं न हो सन्तुष्ट। 
क्षीर सिन्धु के मीठे जल को जो पी ले इक बार । 
क्या वह फिर पीना चाहेगा लवणोदधि जल क्षार ? 
क्षीर समन्दर के समान प्रभु दर्शन जो पाए । 
रागी लवण सिन्धु सम उनकी शरण कौन जाए ? 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (11)

ॐ ह्रीं अर्हम् दूर श्रवणत्व बुद्धि ऋद्धये दूर श्रवणत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । ( 11 )

यै: शान्त-राग-रुचिभि: परमाणुभिस्-त्वं, निर्मापितस्- त्रि-भुवनैक-ललाम-भूतः ! 
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां, यत्ते समान- मपरं न हि रूप-मस्ति ॥

तीन भुवन के अलंकार हे आदिनाथ भगवन् ! 
परम शान्त सुन्दर अणुओं से रचित आपका तन। 
वे परमाणु इस धरती पर बस उतने ही थे। 
क्योंकि आपसे तन के धारी और न कोई थे।। 
ज्ञान शरीरी होने को जिनवर को ही ध्याऊँ। 
तन कारा के बंधन से हे नाथ मुक्ति पाऊँ ।। 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (12)

ॐ ह्रीं अर्हम् दूर दर्शनत्व बुद्धि ऋद्धये दूर दर्शनत्व बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि । (12)

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Bhaktambar stotra with meaning and riddhi mantra


RE: Bhaktambar stotra 7 to 12 with meaning and riddhi mantra - Nidhi Ajmera - 06-09-2023

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