अरिहंत का स्वरूप
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अरिहंत का स्वरूप 

जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं, जिनमें ४६ गुण हैं और १८ दोष नहीं हैं, उन्हें अरिहंत परमेष्ठी कहते हैं।
- ३४ अतिशय ± ८ प्रातिहार्य और ± ४ अनंतचतुष्टय ये अरिहंत के ४६ मूलगुण हैं। 
उत्तरगुण अनन्त हैं। 
सर्व साधारण प्राणियों में नहीं पायी जाने वाली अद्भुत या अनोखी बात को अतिशय कहते हैं।

जन्म के १० अतिशय-
अतिशय सुन्दर शरीर, 
अत्यन्त सुगंधित शरीर, 
पसीना रहित शरीर, 
मल-मूत्र रहित शरीर, 
हित-मित-प्रिय वचन, 
अतुल-बल, 
सफेद खून, 
शरीर में १००८ लक्षण, 
समचतुरस्र संस्थान और 

वज्रवृषभनाराच संहनन ये १० अतिशय अरिहंत भगवान के जन्म से ही होते हैं।
केवलज्ञान के १० अतिशय-
भगवान के चारों ओर सौ-सौ योजन१ तक सुभिक्षता, 
आकाश में गमन, 
एक मुख होकर भी चार मुख दिखना, 
हिंसा न होना, 
उपसर्ग नहीं होना, 
ग्रास वाला आहार नहीं लेना, 

समस्त विद्याओं का स्वामीपना,
 नख केश नहीं बढ़ना, 
नेत्रों की पलवें नहीं लगना और

 शरीर की परछाई नहीं पड़ना। केवलज्ञान होने पर ये दश अतिशय होते हैं।
देवकृत १४ अतिशय
भगवान की अर्ध-मागधी भाषा, 
जीवों में परस्पर मित्रता, 
दिशाओं की निर्मलता, 
आकाश की निर्मलता, 
छहों ऋतुओं के फल-फूलों का एक ही समय में फलना-फूलना, 
एक योजन तक पृथ्वी का दर्पण की तरह निर्मल होना, 
चलते समय भगवान् के चरणों के नीचे सुवर्ण कमल की रचना, 
आकाश में जय-जय शब्द, 
मंद सुगंधित पवन, 
सुगंधमय जल की वर्षा, 
पवन कुमार देवों द्वारा भूमि की निष्कंटकता, 
समस्त प्राणियों को आनन्द, 
भगवान् के आगे धर्मचक्र का चलना और 
आठ मंगल द्रव्यों का साथ रहना ये १४ अतिशय देवों द्वारा किये जाने से देवकृत कहलाते हैं और केवलज्ञान होने पर होते हैं।
आठ प्रातिहार्य-
भगवान के पास अशोक वृक्ष, 
रत्नमय सिंहासन, 
भगवान के सिर पर तीन छत्र, 
पीठ पीछे भामंडल, 
दिव्यध्वनि, 
देवों द्वारा पुष्प वर्षा, 
यक्षदेवों द्वारा चौंसठ चंवर ढोरे जाना 
और 
दुंदुभि बाजे बजना ये आठ प्रातिहार्य हैं। 
विशेष शोभा की चीजों को प्रातिहार्य कहते हैं। 
अनन्त चतुष्टय
अनंत दर्शन, 
अनंत ज्ञान, 
अनंत सुख और 
अनंत वीर्य ये चार अनंत चतुष्टय हैं अर्थात् भगवान के ये दर्शन-ज्ञानादि अन्त रहित होते हैं।
अठारह दोषों के नाम-
जन्म, बुढ़ापा, प्यास, भूख, 
आश्चर्य, पीड़ा, दु:ख, रोग, 
शोक, गर्व, मोह, भय, निद्रा, 
चिन्ता, पसीना, राग, द्वेष 
और मरण ये अठारह दोष नहीं  होते हैं।
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