तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग ४
#1

साता वेदनीय(सुख देने वाले) कर्मो के आस्रव के कारण-

भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगक्षांतिःशौचमितिसद्वेद्यस्य-१२
संधि विच्छेद -भूत+अनुकम्पा+व्रत्य+दान+सरागसंयम+आदि+योगः+क्षांतिः+शौचम्+इति+सद्वेद्यस्य
शब्दार्थ-भूत-(जीवमात्र) पर,अनुकम्पा-दया करना,व्रत्यदान-व्रतियो को दान देना,सरागसंयमादि-सराग संयम,-संयमासंयम,आदि(अकामनिर्जरा और बालतप) का भली प्रकार पालन करना,योगः-मन,वचन,काय की वृत्ति को त्यागना,क्षांतिः-कषायो की मंदता रखना,शौचम्-लोभ वृत्ति को त्यागना,इति-तथा अन्य शुभ कार्य,सद्वेद्यस्य-सातावेदनीय के आस्रव है।
भावार्थ-भूत अनुकम्पा-जीव मात्र पर दया करते हुए उनके दुःखो को दूर करने के परिणाम होना, तथा उनके निवारण हेतु प्रयासरत रहना,व्रत्यदान-व्रतियो को दान देना,कोई व्रती नगर मे आये तो स्वयं के लिए शुद्ध आहार बनाकर,पहले उन्हे शुद्ध आहारदान कर,स्वयं ग्रहण करना!भाव होना चाहिए कि मैंने यह आहार अपने लिए बनाया है,मेरे पुण्योदय से महाराज के स्वयं पधारने पर उन्हें आहार दूंगा!
मुनि महाराज के निमित्त का आहार कभी नही बनाया जाता है अन्यथा आहार सदोष होता है! उनके ठहरने के लिए स्थान,स्वाध्याय के लिए शास्त्रजी,पिच्छि-कमंडल की व्यवस्था करना।
दान-अपना द्रव्य दान मे,अपने व पर के कल्याण के लिए दिया जाता है।
नोट कुछ टीकाकारों ने,इस सूत्र के व्याख्या करते हुए कहा है भूत-प्राणी मात्र व्रती-'व्रतियों पर अनुकम्पा- दया और दान करना अर्थात उनके आहारादी,वैय्यावृत्ति की व्यवस्था आदि करना'-आचार्य श्री विद्या सागर जी एवं पंडित रतनलाल बैनाडा जी के अनुसार उचित नहीं प्रतीत होता क्योकि क्या हम व्रतीयों  पर दया कर उनके लिए आहार बनायेगे या वैयावृत्ति करेंगे?इस अपेक्षा से इसकी व्याख्या,"प्राणी मात्र पर अनुकम्पा -दया और व्रतियों को दान देना",होनी चाहिए.जो की ठीक प्रतीत होती है,!सरागसंयम-मुनि अवस्था धारण करना,संयमासंयम-व्रती,पहली प्रतिमा धारी से ११वी प्रतिमाधारी तक क्षुल्लक,ऐल्लक,आर्यिका बनना,अकाम निर्जरा-अचानक कष्ट आने से उसे शांत परिणामों के साथ सहना।जैसे खड़े-खड़े यात्रा करने पर कष्ट को सहजता से सहना। महिलाओं को अकाम निर्जर के प्रसंग बहुत आते है जैसे; परिवार के सभी सदस्यों को अपने से पहले भोजन कराने के बाद, अंत में, अपनी मन पसंद की वस्तु समाप्त हो गयी तो, यह उन्हें सहना पड़ता है,यदि वे इसे सहजता से,शांत परिणाम के साथ सहेगी तो अकाम निर्जर होगी!सत्याग्रह आदि के आन्दोलन में मान लीजिये कारागार जाना पड़े तो,कारावास सहजता से सहना,अकाम निर्जर है! बालतप-अन्य मति द्वारा अज्ञानता पूर्वक (जैन मत की अपेक्षा) किया गया तप,बालतप कहलाता है।वह भी कषायो की मंदता के कारण सातावेदनीय कर्म के आस्रव का कारण है।क्षांतिः-क्रोध,मान,माया,लोभ से दूर रहना। कषायो की मंदता रखना।क्रोध आदि के प्रसंगों में भी क्रोध नहीं करना, बहुत धन,संपत्ति,वैभव की प्राप्ति पर घमंड नहीं करना, कैसा ही प्रसंग आ जाये स्पष्ट बोलना,मायाचारी नहीं करना!शौचम्-अपनी आमदनी का आगमानुसार,निश्चित भाग बिना मांगे दान मे देना,लोभ वृत्ति को त्यागना,इति-तथा अन्य शुभ कार्य,जैसे जिनेन्द्र भगवान की पूजा,भक्ति,स्तवन,आरती करना,स्वयं स्वाध्याय करना, अन्यों को कराना,तपश्चरण,एकासन उपवास करना,किसी रस का त्याग कर भोजन लेना,गरीबो पर दया करना,उन मे कम्बलादि का वितरण करना,उनकी पढ़ाई के लिए छात्रवृति देना,उनकी बिमारी के लिये औषधि,औषधालय,डाक्टर आदि का प्रबंध करने से भी सातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।
दर्शन मोहनीय (संसार भ्रमण मे प्रबलत्तम) कर्मो के आस्रव के कारण-
केवलीश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य १३
संधि-विच्छेद-केवली+श्रुत+संघ+धर्म+देव+अवर्णवादो+दर्शनमोहस्य 
शब्दार्थ -केवलीअवर्णवादो -केवली भगवान् मे अविद्यमान दोषारोपण करना।जैसे केवली वस्त्र धारण करते है या वे कवलाहार लेते है।ऐसा कहना केवली अवर्णवाद है।ऐसा कहने वालो के महान दर्शनमोह नीय कर्मो का आस्रव होगा,श्रुत अवर्णवादो-भगवान द्वारा दिया गया उपदेश के अनुसार रचे गये शास्त्र और उनकी परम्परा से लिखी गई वर्तमान जिनवाणी मे दोषारोपण करना,जैसे कहना कि आलू मॆ सूक्ष्म जीव पाये जाते है अतः उसके सेवन मे दोष नही है,मांस सेवन मे दोष नही है ऐसा जिन वाणी मे लिखा है आदि कहना श्रुत अवर्णवाद है।श्रुत मे तो त्रस/स्थावर जीवो की हिंसा का पूर्णतया निषेध है।संघअवर्णवादो-चार प्रकार का ऋषि,यति,मुनि,अंगार या मुनि,आर्यिका श्रावक,श्राविका आदि मे गल्त दोष लगाना।मुनियो पर दोष लगाना कि ये मलिन है,मंजन,स्नान नही करते,य़े निर्लज है,नग्न रहते है।नग्नता उनकी काम वासना पर तथा शीत और उष्णता की बाधा पर विजय का प्रमाण पत्र है,ये उनके ख्याति के प्रसंग है,किंतु उन पर इस प्रकार दोषारोपण करना संघावर्णवाद है;जो दर्शन मोहनीय के आस्रव का कारण है,धर्मावर्णवादो-भगवान् द्वारा प्रणीत जिनधर्म मे गल्त दोष लगाना, जैसे कहना जिनधर्म हमे अहिंसावादि होने के कारण कायर बनाते है चिंटी को न मारो। ये धर्मावर्णवाद है;दर्शनमोहनीय के आस्रव का कारण है।ऐसे निन्दा करने वाले जीव अधोगति पाते है। देवअवर्णवादो-जो दोष देवो मे नही है वह उनमे गल्त दोष लगा देना। जैसे कहना कि देव मांस भक्ष्ण,मदिरा सेवन,सारे निंदनीय कार्य भी करते है ऐसा कहना देवो का अवर्णवादो है।यह दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव का कारण है.अवर्णवादो-जो दोष उनमे नही है वह उनमे लगा देना। दर्शनमोहस्य -दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव के कारण है।
भावार्थ-दर्शन मोहनीय का अर्थ मिथ्यात्व है।केवली,श्रुत,संघ,धर्म और देवों मे जो दोष नही है उनका दोषारोपण करने से अन्नतकाल तक संसार मे भ्रमण कराने वाले घोर दर्शनमोहनीय का आस्रव होता है।अतः इनसे हमे बचना चाहिए।
शंका-यदि हम केवली,श्रुत,संघ,धर्म और देवों में दोष न लगाये,क्या तब दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होगा?
समाधान- उक्त  मुख्य कारण दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव के है, इनके अलावा अन्य बहुत से कारण भी है जैसे,1-जो रोज़ दर्शन करने मंदिर नही जाते,2-जो अन्य मतियो के देव-शास्त्र गुरू पर श्रद्धा रखते है,अपने पर नही रखते है,3-सप्त तत्वो के श्रद्धान मे दृढ़ता के अभाव मे, शिथिलता मे, सम्यक्तव के दोषो को न हटाने पर,६ अनायतनो मे लगे रहने से,८ मदो के सद्भाव मे,दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होता है,4-शास्त्रो के अर्थ का अनर्थ जान बूझकर,अपने मत की पुष्टि हेतु,शास्त्रो मे हेर फेर करने वालो के,दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होगा।5- सम्यक्त्व के विरोधी समस्त क्रियाओं से दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होता है!आदि भी दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव का कारण है !
चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव के कारण-
कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य १४
संधिविच्छेद-कषाय+उदयात्+तीव्र+परिणामः+चारित्रमोहस्य
शब्दार्थ--कषाय-कषाय,क्रोध,मान,माया,लोभ के,उदयात्-उदय से.तीव्र-तीव्र,परिणामः-परिणामो के होने से,चारित्रमोहस्य-चारित्रमेहनीय कर्म का आस्रव होता है
भावार्थ-तीव्र क्रोध,मान,माया,लोभ या तीव्र नो कषाय रूप परिणामो के होने से चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव होता है।जैसे बात-बात मे क्रोधित होना!धन,सम्पत्ति,ज्ञानादि अधिक होने पर घमण्डित होने से, मायाचारी से और निरंतर तीव्र लोभवश परिग्रहो के संघ्रह मे लगे रहने से, चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव होता है।
चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव के अन्य कारण-
१-अपने को श्रेष्ठ मानकर,जो अन्यों की मजाक बनाते है,खिल्ली उड़ाते है,उनके हास्य नोकषाय कर्म का उदय/आस्रव होता है,२-जो अपने मकान, आदि को अच्छा बनाने में लगे रहते है उनके रति नो कषाय कर्म का आस्रव होता है!३-जिन्हें अन्यों के गंदे मकान,गंदे वस्त्र आदि को देखकर अच्छा नहीं लगता,घृणा करते है,उनके अरति नोकषाय का आस्रव होता है!४-रोगी,कोडी,मुनि आदि को देखकर जो घृणा करते है उनके जुगुप्सा नोकषायकर्म का आस्रव होता है!५-जिन्हें अन्य को दु:खी करने में आनंद आता है उन्हें शोक नोकषाय का आस्रव होता है!६-जो स्वयं डरते है अथवा अन्यों को डराते है उन्हें भय नोकषायकर्म का आस्रव होता है!७-जो पुरुषों में वासना रूप परिणाम रखते है उनके स्त्री वेद नो कषाय कर्म का आस्रव होता है!८-जो स्त्री में वासना रूप परिणाम रखते है उनके पुरुषवेद नो कषाय कर्म का आस्रव होता है!९-जो स्त्री और पुरुषों दोनों में वासना रूप परिणाम रखते है उनके नपुंसक  नोकषायकर्म का आस्रव होता है!
ये समस्त कषाय और नो कषाय के आस्रव आत्मा को पतित करने वाले है,अत: हमें इनकी तीव्रता से बचना चाहिए जिससे चरित्र मोहनीय के आस्रव से हम बच सके!
क्या मंद कषाय होने से चारित्र मोहनीय का आस्रव नहीं होगा ?
यहाँ आस्रव के प्रमुख्य कारणों की चर्चा है, चारित्र मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट आस्रव कषायों के तीव्र उदय के कारण होता है!चारित्र मोहनीयकर्म का उत्कृष्ट आस्रव कषायों के तीव्र उदय के कारण होता है!आस्रव के अनेक कारण होते है!मंदकषाय के उदय में भी,४ थे से १०वे गुणस्थानों तक चारित्र मोहनीय कर्म का आस्रव/उदय तो होता ही है!किन्तु यहाँ तीव्र आस्रव की चर्चा करी है!
किस कर्म के उदय से स्त्री पर्याय मिलती है ?
1-जो दुसरे के दोषों को देखने में निरंतर लगे रहते है2-जो स्त्री पर्याय मिलने पर निरंतर श्रृंगार में लगी रहते है,अपनी स्त्री पर्याय में संतुष्ट रहती है,3-मायाचारी जिनमे विशेष रूप से पायी जाती है, उनके स्त्रीवेद का आस्रव होता है!
इससे बचने के लिए विचार करना चाहिए की स्त्री पर्याय बड़ी निंदनीय है क्योकि अनेकों अशुद्धि के प्रकरण स्त्री पर्याय में आते है,यह कितनी पराधीन पर्याय है,मैंने पूर्व जन्म में कैसे पाप कर्म किये होंगे जो मुझे स्त्री पर्याय प्राप्त हुई!इस प्रकार निरंतर स्त्री पर्याय की निंदा सहित उसमे प्रवृत रहना पुरुषवेद के आस्रव का कारण है!
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