जीवके धर्म तथा गुण
#3

५ सुख

तीसरा गुण हे सुख । सुख भो दो प्रकारका होता है- एक बाहरी तथा दूसरा भीतरी बाहरी सुख तो शरीर सम्बन्धी है और वह इन्द्रिय-भोगोको भोगने से उत्पन्न होता है, परन्तु भीतरी सुख शान्तिरूप है । सुखका विपक्षी दुःख है । वह भी दो प्रकारका है-वाहरी तथा भोतरी। बाहरी दुःख तो जरीरको पोड़ा आदि रूप है और भीतरी दुःख, चिन्ता व व्याकुलता रूप है। बाहरी सुख-दुख तो ज्ञानके द्वारा जाने जाते हैं, और भीतरी मुख-दृ.ख दर्शनके द्वारा देखे जाते हैं या महसूस किये जाते है ।

यद्यपि जीवमे सुख नामका गुण कहा गया है परन्तु इसका यह अर्थ नही कि जीवमे सुख ही नामका गुण हो दुख न हो, क्योकि ये दोनो ही प्रत्यक्ष देखनेमे आते हैं। फिर भी गुणका नाम सुख रखा गया है दुख नही, और न ही दुख नामका कोई पृथक् गुण बताया गया है। इसका कोई विशेष प्रयोजन है। वह यह कि दुख जीवको उसी समय तक रहता है जिस समय तक कि वह शरीर व अन्त करणके साथ बँघा रहता है। परन्तु उनके बँघन से छूटनेपर उसे सुख हो होता है, दु.ख नहीं। यहां क्योकि चेतन या जीवके गुण बताये जा रहे हैं इसलिए उन्ही गुणोका विचार करना युक्त है जो कि शरीर व अन्त करणसे पृथक् हो जानेपर जीवमे पाये जाते हैं। इसलिए जीवमें सुख नामका हो गुण है दुख नामका नही और वह सुख भी भोगो सम्बन्धी न समझकर शान्ति सम्बन्धी ही समझना ।

६. वीर्य

वीर्यका अर्थ शक्ति है। प्रत्येक पदार्थमे कोई न कोई शक्ति अवश्य होती है । शक्ति नाम भार सहन करने तथा टिकनेका है। कोई भी पदार्थ जितनी देर तक टिका रह सके, बिगड़े या गले नही, कमजोर नही हो, उतनी ही उसकी शक्ति है। जैसे कि स्तम्भकी शक्ति इतनी है कि इतनी भारी दीवारको अपने ऊपर धारण कर लेनेपर भी दवे नहीं, टूटे नही और सैकड़ो वर्षों तक क्षीण न हो। इसी प्रकार जीवकी भी कोई न कोई शक्ति है। ध्यान रहे कि यहाँ शरीरकी शक्तिको नही कहा जा रहा है बल्कि जीवकी शक्तिको कहा जा रहा है। शरीरकी शक्ति तो कोई बोझ उठाते समय तथा कुश्ती लडते समय देखी जाती है, परन्तु जीवकी शक्ति रोग, मरण, हानि आदि चिन्ताके कारण उपस्थित होनेपर देखी जाती है। ऐसे अनिष्ट सयोग हो जानेपर उन्हे कौन जीव कितना सहन कर सकता है, तथा कितनी देर तक सहन कर सकता है यही उसकी शक्ति है। चिन्ताके कारणोको सहन करनेका अर्थ है शान्तिमे स्थिति । जो जीव प्रतिकूलताओ मे जितना अधिक शान्त रह सकता है उतनी ही उसको शक्ति या बल है। इसका कारण भी यह है कि, जिस प्रकार स्तम्भका स्वभाव भार वहन करनेका है, उसी प्रकार जीवका स्वभाव शान्त रहनेका है । जिस प्रकार स्तम्भका अपने रूपमे टिके रहना उसकी शक्ति है, इसी प्रकार जीवका अपने स्वभाव मे टिके रहना उसकी शक्ति है और वही उसका वीर्य है। इस प्रकार परीक्षा करनेपर बडे बडे वलवान् पुरुष भी नपुसकवत् शक्तिहीन सिद्ध होते हैं, क्योकि तनिक-सी बात सुनकर या स्त्री आदिका रूप देखकर वे तुरन्त धैर्य खो बैठते हैं, क्रोध तथा कामके अधीन हो जाते है। वास्तविक वोर्य तो मुनिजनोमे हो है कि कैसे भी घोर सकट या परीक्षाके अवसर आनेपर अपनी साधनासे नही डिगते ।

Taken from  प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जिनेन्द्र वर्णी
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जीवके धर्म तथा गुण - by Manish Jain - 07-01-2022, 08:42 AM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - by sandeep jain - 07-02-2022, 03:16 PM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - by sumit patni - 07-02-2022, 03:19 PM

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