जीवके धर्म तथा गुण - 2
#3

१२ मतिज्ञान

पांचो इन्द्रियों से तथा मनसे जो कुछ भी प्रत्यक्ष या परोक्ष ज्ञान होता है वह सब मतिज्ञान कहलाता है । अत. जितनी इन्द्रियाँ हैं उतने ही प्रकारका यह ज्ञान होता है । जिस जीवके पास होन या अधिक जितनी इन्द्रियाँ होती है उसको उस-उस इन्द्रिय सम्बन्धी हो मतिज्ञान होता है, शेष इन्द्रियो सम्बन्धी नही होता, ऐसा समझना ।
पाँचो इन्द्रियाँ अपने-अपने निश्चित विषयको ही जानती है, जैसे कि आँख रूपको ही जान सकती है और जिह्वा स्वादको हो । एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रियके विषयको नही जान सकती । परन्तु मनका कोई निश्चित विषय नहीं है। वह प्रत्येक इन्द्रियके विषय सम्बन्धी विचारणा, तर्क तथा सकल्प विकल्प कर सकता है । अत मन सम्बन्धी मतिज्ञान अत्यन्त विस्तृत है, और वही प्रमुख है।
पहले किसी पदार्थको इन्द्रिय द्वारा जान लिया गया हो अथवा मन द्वारा विचारकर निर्णय कर लिया गया हो, तब वह स्मृतिका विषय बन जाया करता है। अर्थात् तत्पश्चात् पदार्थ न होने पर भी मन जब मी चाहे उस विषयका स्मरण कर सकता है। इसे स्मृतिज्ञान कहते हैं। यह भी मन सम्बन्धी मतिज्ञानका एक भेद है। किसी पदार्थको देखकर 'यह तो वही है जो पहले देखा था, या ‘यह तो वैसा ही है जैसा कि पहले देखा था' इस प्रकारका जो ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। यह भी मनो-मतिज्ञान का ही एक भेद है। इस प्रकार मतिज्ञानके बनेको भेद हैं, जो सर्व परिचित है। यह ज्ञान एकेन्द्रियसे सज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त सर्व हो छोटे-बड़े ससारी जीवोको अपनी-अपनी प्राप्त इन्द्रियोंके अनुसार होनाविक रूपमे यथायोग्य होता है। पशु-पक्षियो तथा मनुष्योको हो नही देव तथा नारकियोको भी होता है।

१३. श्रुतज्ञान
मतिज्ञानपूर्वक होनेवाला तत्पश्चादुवर्ती ज्ञान 'श्रुतज्ञान' कहलाता है। अर्थात् इन्द्रियो द्वारा किसी पदार्थ विषयको देखकर, सुनकर, या चखकर, या सूँघकर, छूकर, या विचार कर तत्सम्बन्धी किसी बातको जान श्रुतज्ञान प्रकारका होता है ज्ञान, अनुमान ज्ञान, श्रावण ज्ञान, कल्पना निमित्त इत्यादि। इनमे से हिताहित नामवाला प्रथम ज्ञान बडे-छोटे सभी प्राणियोको समान रूपसे है, शेष ज्ञान केवल समनस्क सज्ञी जीवोमे ही पाए जाते हैं।
किसी भी पदार्थको जान लेनेके पश्चात् यह भी साथ-साथ जाया करता भोजन को देखकर तो मेरा भदय होनेके कारण मेरे कामका है' अथवा घासको देखकर 'यह मेरे कामका है', ऐसा ज्ञान मनुष्यको होता है। गन्ध द्वारा अन्नको जानकर 'यह कामका और स्पां घनको जानकर 'यह कामका नही अथवा स्पर्श द्वारा अग्निको जानकर है, इससे बचना चाहिए' ऐसा चीटीको होता है। यही हिताहित सम्बन्धी श्रुतज्ञान ज्ञानके लिए मनकी कता बिना किसी शिक्षाके स्वय जाया करता है। मतिज्ञान द्वारा लेनेके पश्चात् ही यह होता है। द्वारा पदार्थको जानना मतिज्ञान है और पीछे उसमे हिताहितका भाव श्रुतज्ञान
किसी पदार्थको इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष करके अर्थात् देखकर, सुनकर, चखकर, सूंघकर या छूकर तत्सवन्धी किसी अप्रत्यक्ष पदार्थको जान लेना 'अनुमान' कहलाता है। जैसे कि दूरसे पर्वतमें किसी व्यक्तिका शब्द सुनकर यह पहचान  जाना की देवदत्त है, अथवा किसी कुटे या पिसे हुए चूर्णको चखकर यह जान जाना कि इसमे अमुक-अमुक मसाले पडे हैं । इन्द्रियज मतिज्ञान हो जानेके पश्चात् उत्पन्न होनेके कारण यह भी श्रुतज्ञानमे गर्मित है।

श्रावण श्रुतज्ञान शब्द सुनकर या पढकर होता है। किसी भी शब्दको पढकर या सुनकर उसके वाच्यार्थका ज्ञान हो जाता है, जैसे कि 'पुस्तक' ऐसा शब्द सुनकर या पढकर आप स्वय समझ जाते है कि बोलने या लिखनेवाला इस 'पुस्तक' पदार्थकी ओर संकेत कर रहा है। पुस्तक तो दूसरे कमरेमे रखी थी जिसे उस समय न आँाँखने देखा था और न कानने सुना था, फिर भी 'पुस्तक' शब्द द्वारा उसी पुस्तक पदार्थका ज्ञान हुआ । बस, यही धावण श्रुतज्ञान अर्थात् शब्दके द्वारा होनेवाला श्रुतज्ञान है। यह केवल मनवालोको ही होता है। यह भी मति-ज्ञानपूर्वक हो होता है, क्योकि शब्दको कान द्वारा सुनना मतिज्ञान है और तत्पश्चात् उस पदार्थको जान लेना श्रुतज्ञान है।

"तुम्हारी बात ठीक है, अथवा ठीक नही है, क्योकि यदि ऐसा मान लें तो यह बाधा लाती है, यह दोष आता है" इस प्रकारके युक्ति पूर्ण ज्ञानको तर्कज्ञान कहते हैं, जो केवल मन द्वारा ही होना सम्भव है। यह भी मति-ज्ञानपूर्वक हो होता है, क्योंकि कान द्वारा किसीका पक्ष सुनकर तत्पश्चात् उसपर युक्तियाँ लगाना श्रुतज्ञान है ।

किसी भी पदार्थको देख या सुनकर अथवा जानकर या स्वत स्मरण हो जानेपर तुरत ही प्रायः विकल्पकी धारा चल निकलती है जैसे– 'चीन' ऐसा शब्द सुनते ही, "अरे । बड़ा दुष्ट है तथा धोखेबाज है, चीनदेश । अब क्या होगा। युद्धमे यदि भारत हार गया तो गजब हो जायेगा । अरे । चीनी आकर हमारे घरोको लूटेंगे, स्त्रियोका शोल भग करेंगे। मे कैसे देखूगा, प्रभु मुझको उससे पहले ही संसारसे उठा ले" इत्यादि अनेक प्रकारकी कल्पनाओके जलमे उलझकर आप चिन्तित हो उठते है। इस प्रकारका कल्पना-ज्ञान भी श्रुतज्ञानका ही एक मेद है जो मन द्वारा होता है। यह भी मति-ज्ञानपूर्वक होता है, क्योंकि कल्पना प्रारम्भ होनेसे पहले किसी न किसी इन्द्रियसे पदार्थका ज्ञान अवश्य होता है, तब पीछेसे उस विषय सम्बन्धी कल्पना चला करती है।

सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदिकोपर-से हिसाब लगाकर भूत व भविष्यत्की कुछ बातोको जान लेना ज्योतिष ज्ञान कहलाता है। हस्त पादादिकी रेखाएँ देखकर भूत-भविष्यत् सम्बन्धी कुछ बातें जान लेना हस्तरेखा विज्ञान है। स्वप्नमे जो कुछ देखा उस परमे भूत-भविष्यत् की कुछ बातें जान लेना स्वप्न विज्ञान है। शरीरके अंगोपागोकी बनावट देखकर तथा उसके किन्ही प्रदेशोमे चक्रादिके चिह्न-विशेष देखकर उस व्यक्तिके भूत-भविष्यत् सम्बन्धी कुछ बातें जान लेना चिह्नज्ञान कहलाता है। श्वासके आने-जाने के क्रमको देखकर कुछ भूत-भविष्यत्की बातोको जान लेना स्वरज्ञान कन् लाता है। पशु-पक्षियोकी बोली सुनकर कुछ भूत-भविष्यत् सम्बन्धी बातें जान लेना भाषा-विज्ञान है । पृथिवीकी कठोरता या मृदुता आदि देखकर भूत-भविष्यत् सम्बन्धी बातें जान लेना भौम-ज्ञान कहलाता है। बाहरमे शुभ व अशुभ शकुन देखकर कुछ भूत-भविष्यत् सम्बन्धी बातें जान लेना शकुन-ज्ञान कहलाता है । इत्यादि प्रकार के सब ज्ञान निमित्त ज्ञान कहलाते है। यह भी श्रुतज्ञानका ही एक भेद है जो केवल मन द्वारा होता है तथा मतिपूर्वक होता है, क्योकि पहले इन्द्रियो द्वारा कुछ देख व सुनकर तत्सम्बन्धी विचारणा द्वारा पीछेसे भूत-भविष्यत्का पता चलता है ।

ये सव तथा अन्य भी मेद-प्रभेदोको धारण करनेवाला यह श्रुत ज्ञान अत्यन्त व्यापक है । वर्तमानका सर्व भौतिक विज्ञान यह श्रुत ज्ञान ही हैं। प्रत्यक्ष-परोक्ष, दृष्ट-अदृष्ट, सम्भव-असम्भव सभी बातो सम्बन्धी तर्कणाएँ तथा कल्पनाएँ करते रहना और उनमे से अनेको सारभूत बातें निकाल लेना, बड़े-बड़े सिद्धान्त वना देना यह सव श्रुतज्ञान है।

श्रुतज्ञानके ये सर्वं भेद यद्यपि मनुष्यमे ही सम्भव है परन्तु सर्व ही व्यक्तियोमे पाये जायें यह कोई आवश्यक नही, क्योकि प्रत्येक व्यक्तिका ज्ञान समान नही होता । सर्वत्र होनाधिकता देखी जाती है। संज्ञी अर्थात् मनवाले पशु-पक्षियोमे भी इनमेसे कुछ भेद पाये जाते हैं। स्थावर तथा विकलेन्द्रियोंमें उनकी इन्द्रियोंके योग्य मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका केवल पहला भेद ही पाया जाता है। देव तथा नारकियोमे दोनो ज्ञानोके यथायोग्य सर्वं भेद मनुष्योवत् होनाधिक रूपसे पाये जाते हैं।


Taken from  प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जीव के धर्म तथा गुण - जिनेन्द्र वर्णी
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जीवके धर्म तथा गुण - 2 - by Manish Jain - 07-02-2022, 03:27 PM
RE: जीव के धर्म तथा गुण - 2 - by sandeep jain - 07-02-2022, 03:55 PM
RE: जीवके धर्म तथा गुण - 2 - by sumit patni - 07-02-2022, 03:56 PM

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