प्रवचनसारः गाथा - 39, 40 केवलज्ञान
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श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -39 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -40 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )

जदि पञ्चक्खमजायं पजायं पलइयं च णाणस्स /
ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परवेंति // 39 / /

अन्वयार्थ- (जदि वा) यदि (अजादं पज्जायं) अनुत्पन्न पर्याय (च) तथा (पलइदं) नष्ट पर्याय (णाणस्स) ज्ञान के (केवलज्ञान के) (पच्चक्खं ण हवदि) प्रत्यक्ष न हो तो (तं णाणं) उस ज्ञान को (दिव्यं त्ति हि) दिव्य इस प्रकार (के परूवेंति) कौन प्ररूपेगा?

आगे असद्भूतपर्यायें ज्ञानमें प्रत्यक्ष हैं, इसीको पुष्ट करते हैं-[यदि वा] और जो [ज्ञानस्य] केवलज्ञानके [अजातः पर्यायः] अनागत पर्याय [च] तथा [प्रलयितः] अतीत पर्याय [प्रत्यक्षः] अनुभवगोचर [न भवति] नहीं होते, [तदा] तो [तत् ज्ञानं] उस ज्ञानको [दिव्यं] सबसे उत्कृष्ट अर्थात् स्तुति करने योग्य [हि] निश्चय करके [के प्ररूपयन्ति] कौन कहता है? कोई भी नहीं / भावार्थ-जो ज्ञान भूत भविष्यत् पर्यायोंको नहीं जाने, तो फिर उस ज्ञानकी महिमा ही क्या रहे ? कुछ भी नहीं। ज्ञानकी प्रशंसा तो यही है, कि वह सबको प्रत्यक्ष जानता है / इसलिये भगवान्के दिव्यज्ञानमें तीनों कालकी समस्त द्रव्यपर्याय एक ही बार प्रत्यक्ष प्रतिभासित होती हैं, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है / अनंत महिमा सहित सर्वज्ञका ज्ञान ऐसा ही आश्चर्य करनेवाला है

गाथा -40
अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुब्वेहिं जे विजाणंति /
तेसिं परोक्खभूदं णादुमसकं ति पण्णत्तं // 40 //

अन्वयार्थ- (जे) जो (अक्खणिवडिदं) अक्षपतित अर्थात् इन्द्रियगोचर (अट्ठं) पदार्थ को (ईहापुव्वेहिं) ईहादिक द्वारा (विजाणंति) जानते हैं.(तेसिं) उनके लिये (परोक्खभूदं) परोक्षभूत पदार्थ को (णादुं) जानना (असक्कं) अशक्य है, (ति पण्णत्तं) ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है।

आगे इद्रियजनित ज्ञान अतीत अनागत पर्यायोंके जाननेमें असमर्थ है, ऐसा कहते हैं-[ये जो जीव [अक्षनिपतितं] इन्द्रिय गोचर हुए [अर्थ] घट पटादि पदार्थोको [ईहापूर्वैः] ईहा है पूर्वमें जिनके ऐसे ईहा, अवाय, धारणा इन मतिज्ञानोंसे [विजानन्ति] जानते हैं, [तेषां] उन जीवोंके [परोक्षभूतं] अतीत अनागतकाल संबंधी परोक्ष वस्तु [ज्ञातुम् ] जाननेको [अशक्यं] असमर्थपना है, [इति] इस प्रकार [प्रज्ञप्तं] सर्वज्ञदेवने कहा है / भावार्थ-जितने मतिज्ञानी जीव हैं, उन सबके पहले तो इंद्रिय और पदार्थका संबंध होता है, पीछे अवग्रह ईहादि भेदोंसे पदार्थका निश्चय होता है। इसलिये अतीत अनागतकाल संबंधी वस्तुएं उनके ज्ञानमें नहीं झलकतीं, क्योंकि उन वस्तुओंसे इंद्रियका संयोग नहीं होता / इनके सिवाय वर्तमानकाल संबंधी भी जो सूक्ष्म परमाणु आदि हैं, तथा स्वर्ग मेरु आदि दूरवर्ती और अनेक अमूर्तीक पदार्थ हैं, उनको इन्द्रिय संयोग न होनेके कारण मतिज्ञानी नहीं जान सकता / इन्द्रियज्ञानसे स्थूल घटपटादि पदार्थ जाने जाते हैं, इसलिये इन्द्रियज्ञान परोक्ष है-हीन है-हेय है / केवलज्ञानकी तरह सर्वप्रत्यक्ष नहीं है|



मुनि श्री प्रणम्य सागर जी प्रवचनसार गाथा - 39, 40

मुनि श्री इस गाथा संख्या 39 की वाचना से आप जानेंगे कि
* केवलज्ञान क्या है ?
* क्या कोई भी सामान्य पुरुष जिस में तर्क वितरक करने की शक्ती हो वह भगवान कहलाया जा सकता है ? आज के बड़े बड़े दार्शनिक अपने आपको भगवान समझते हैं ।
* ऐसा व्यक्ति जिसके ज्ञान में जो पर्याय असद्भूत हैं (present में नहि है) और जो पर्याय सद्भूत हैं ( present में है) सब एक साथ, सभी द्रव्यों की दिखती हैं, ऐसे व्यक्ति को ही भगवान कहा जाता है।
* इस केवल ज्ञान को हम अपने अनुमान ज्ञान से समझ सकते हैं । जब साधारण ज्योतिषी भी भविष्य देख लेते हैं तो कोई दिव्य ज्ञानी भी तो आगे के १० भव देख सकते होंगे ?
* आज का व्यक्ति केवल mind को मानता है। अगर brain से ही सब कुछ हो सकता है तो एक जैसे syrup, books, coaching से सबका ज्ञान एक  जैसा काम क्यूँ नहि करता ?

पूज्य श्री गाथा 40 के माध्यम से मती ज्ञान एवं श्रुत ज्ञान को समझा रहे हैं। मती ज्ञान से हम इंद्रियों और मन द्वारा प्रत्यक्ष को ही जानते हैं । श्रुत ज्ञान शास्त्र ज्ञान के द्वारा होता है जो हमारा मन पकड़ता है । इसलिए केवलज्ञान ही ऐसा ज्ञान है जो प्रत्यक्ष एवं परोक्ष का भान कर्ता है ।


Manish Jain Luhadia 
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प्रवचनसारः गाथा - 39, 40 केवलज्ञान - by Manish Jain - 08-06-2022, 12:27 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा - 40 - by sandeep jain - 08-06-2022, 12:31 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा - 39, 40 केवलज्ञान - by sumit patni - 08-15-2022, 08:42 AM

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