प्रवचनसारः गाथा - 80 - मोह क्षय पर विचार
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -80 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -86 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपजयत्तेहिं /
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं // 80 //


आगे मुझसे मोहकी सेना कैसे जीती जावे, ऐसे उपायका विचार करते हैं--[यः] जो पुरुष [ द्रव्यत्वगुणत्वपर्ययत्वैः] द्रव्य गुण पर्यायोंसे [अर्हन्तं] पूज्य वीतरागदेवको [जानाति ] जानता है, [सः] वह पुरुष [आत्मानं] अपने स्वरूपको [जानाति ] जानता है / और [ खलु ] निश्चयकर [तस्य ] उसीका [ मोहः ] मोहकर्म [ लयं] नाशको [याति] प्राप्त होता है। भावार्थ-जैसे पिछली आँचका पकाया हुआ सोना निर्मल होता है, उसी प्रकार अरहंतका स्वरूप है, और निश्चयकर जैसा अरहंतका स्वरूप है, वैसा ही आत्माका शुद्ध स्वरूप है / इसलिये अहंतके जाननेसे आत्मा जाना जाता है / गुणपर्यायोंके आधारको द्रव्य कहते हैं, तथा द्रव्यके ज्ञानादिक विशेषणोंको गुण कहते हैं, और एक समय मात्र कालके प्रमाणसे चैतन्यादिके परिणति भेदोंको पर्याय कहते हैं / प्रथम ही अरहंतके द्रव्य, गुण, पर्याय अपने मनमें अवधारण करे, पीछे आपको इन गुणपर्यायोंसे जाने, और उसके बाद निज स्वरूपको अभेदरूप अनुभवे / इस आत्माके त्रिकाल संबंधी पर्याय एक कालमें अनुभवन करे / जैसे हारमें मोती पोये जाते हैं, वहाँ भेद नहीं करते हैं, तैसे ही आत्मामें चित्पर्यायका अभेद करे, जैसे हारमें उज्ज्वल गुणका भेद नहीं करते हैं, तैसे ही आत्मामें चेतना गुणको गोपन करे, जैसे पहिरनेवाला पुरुष अभेदरूप हारकी शोभाके सुखको वेदता है, वैसे ही केवलज्ञानसे अभेदरूप आत्मीक-सुखको वेदे / ऐसी अवस्थाके होनेपर अगले अगले समयोंमें  कर्ता, कर्म, क्रियाका भेद क्षीण होता है, तभी क्रिया रहित चैतन्य स्वभावको प्राप्त होता है / जैसे चोखे (खरे) रत्नका अकंप निर्मल प्रकाश है, तैसे ही चैतन्य-प्रकाश जब निर्मल निश्चल होता है, तब आश्रयके विना मोहरूपी अंधकारका अवश्य ही नाश होता है / आचार्य महाराज कहते हैं, जो इस भांति स्वरूपकी प्राप्ति होती है, तो मैंने मोहकी सेनाके जीतनेका उपाय पाया 

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी  प्रवचनसार गाथा - 80

अन्वयार्थ - (जो) जो (अरहंतं) अरहंत को (दव्वत्त-गुणत्त-पज्जयत्तेहिं) द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने से (जाणदि) जानता है, (सो) वह (अप्पाणं) अपने आत्मा को (जाणदि) जानता है, और (तस्स मोहो) उसका मोह (खलु) अवश्य (लयं जादि) लय को प्राप्त होता है।


Manish Jain Luhadia 
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प्रवचनसारः गाथा - 80 - मोह क्षय पर विचार - by Manish Jain - 09-22-2022, 03:56 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा - 80 - मोह क्षय पर विचार - by sumit patni - 09-22-2022, 03:59 PM
RE: प्रवचनसारः गाथा - 80 - मोह क्षय पर विचार - by sandeep jain - 09-22-2022, 04:01 PM

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