प्रवचनसार: ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा -1 उत्पादादिका क्षणभेद हटाकर द्रव्यत्व का द्योतन
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आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

२ - ज्ञेयाधिकार

जो वस्तु ज्ञानका विषय हो उसे ज्ञेय कहते हैं। वह वस्तु गुण और पर्यायात्मक होती है, ऐसा न मानकर जो पर्याय मात्रको मानता हो वह पर समय होता है, ऐसा यहाँ बताते हैं


गाथा -1,2
बोधका विषय वस्तु गुणी गुणपर्यय वाला होता है ।
जो केवल पर्याय बुद्धि परसमय वही सुख खोता है ॥
नरपर्ययादिमय हो अपने को माने परसमय वहीं ।
रागरोषसे हीन हुआ आत्मस्वभाव निजसमय सही ॥ १ ॥

सारांश:- ज्ञानके द्वारा जानने योग्य वस्तु गुण पर्यायात्मक होती है। यह अपने आपमें सदाके लिए अनेक गुणोंको लिये हुए उनका अखण्ड पिण्ड स्वरूप होती है। प्रत्येक गुण भी अपने आपमें निरन्तर एकके बाद एकरूपसे उत्पन्न होनेवाली पर्यायोंमें किसी न किसी एक पर्यायकी अवस्थाको लिये हुए हर समय बना रहता है। ऐसा पहिले बता चुके हैं। इसका यह अर्थ होता है कि हरएक ही वस्तु तात्कालिक होकर भी शाश्वत है। उस वस्तु के भूत और भविष्यत्को बिलकुल भी याद न रखकर केवल वर्तमान अवस्था मात्रको ही स्वीकार करनेवाला मोही (भूल करनेवाला अज्ञानी) जीव होता है।
वह मूढ अपनी मूढताके कारण जिस समय जैसी अवस्था धारण करता है उस समय अपने आपको वैसा ही मान बैठता है। मनुष्य शरीर धारण करने पर अपने आपको मनुष्य तथा पशु शरीर धारण करने पर अपने आपको पशु ही समझा करता है। मनुष्यता और पशुता न तो केवल जीवकी ही अवस्था है और न केवल अजीव कहलानेवाले पुद्गल द्रव्यकी ही अवस्था है। यह तो जीव और पुद्गल इन दोनों की संयोगी अवस्था होती है।

जो जीव अपनेको मनुष्य या पशु मानता है वह पर (पुद्गल) को आप और आप (जीव) को पर (पुद्गल) माननेवाला होनेसे परसमय होता है। किन्तु इसके विपरीत अपने शरीर तथा शरीरसे संबंधित अन्य पदार्थोंके प्रति रहनेवाले अहंकार ममकार भावसे सर्वथा रहित होकर अपने आपको शुद्ध बुद्ध सच्चिदानन्दरूप अनुभव करनेवाला जीव स्वसमय होता है। स्वसमय तथा परसमय ये दोनों ही तादृश विश्वास एवं तदनुरूप चेष्टासे घटित होते हैं।

घोर मिथ्यात्वके वशमें रहनेसे जो आत्मा की शुद्धताको किसी भी तरह स्वीकार ही न करता हो, कोई भी आत्मा स्त्री पुत्र धन धान्यादि बाह्य निमित्तोंके कारण प्रस्फुटित होनेवाले मोह रागद्वेषादि विकारी भावोंको बिलकुल भी न होने देकर केवल ज्ञानघन एवं शरीर रहित होगया हो या हो सकता हो, इस बातको माननेके लिए भी तैयार न हो किन्तु श्वासादियुक्त जो यह चलता फिरता शरीर है इसीका नाम आत्मा या जीव है और जबतक यह है तबतक अपनी आवश्यकताओंको प्रयत्नपूर्वक यथासाध्य पूरी करना ही इसका एक कार्य है। ऐसी धारणा रखने वाला जीव परसमय कहा जाता है।

जो अपनी आत्माको जड शरीरसे भिन्न, नित्य, ज्ञानमय तथा शरीरको उसका निवासस्थान समझ चुका हो और शरीरके साथ ममत्व होनेके कारण उत्पन्न होनेवाली अनेक प्रकार की आवश्यकताओंको निस्सार जानकर उन पर भी पूर्ण विजय पा चुका हो, यथार्थ वीतराग दशा पर पहुंच गया हो वह हम लोगोंसे पूज्य स्वसमय होता है।

शेष चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती सराग सम्यग्दृष्टि व्यक्ति विश्वासमें तो स्वसमय बन चुका है परन्तु व्यवहारमें परसमय को छोड़कर स्वसमय बन चुका हो, ऐसी बात नहीं है। व्यवहारमें यथासंभव अपने पिताको पिता, माताको माता और भाईको भाई आदि मानता है। द्रव्यलिंगी मुनिकी दशा इससे विपरीत होती है। यह अपने व्यवहारमें तो किसीको भी नहीं अपनाता हैं परन्तु श्रद्धानमें उसका लगाव संसारकी बातोंके प्रति बना ही रहता है। इसप्रकार स्वसमय तथा परसमयको बताकर आगे द्रव्यका लक्षण कहते हैं
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