प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 11, 12 द्रव्य का उत्पाद व व्यय क्या है?|
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आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश
गाथा -11,12

किसी चीजको एक अवस्था हटकर दूजी आती है ।
चीज वही रहती है ऐसी बात चित्तको भाती है ॥
भावान्तरका हो अभाव यह नाम भी हुआ करता है
वस्तु वहाँ वस्तुत्व वहीं यो गुणपर्यय धरता है ॥ ६ ॥

सारांश:- द्रव्य अपनी एक पर्यायका त्याग करता हुआ अन्य पर्यायको स्वीकार करता है परन्तु उसकी द्रव्यता हर हालतमें बनी रहती है। दो द्व्यणुक मिलकर चतुरणुक बनते हैं तब वहाँ द्व्यणुकपना हटकर चतुरणुकपना ही आता है किन्तु स्कंधपना या पुद्गलपना बना का बना ही रहता है। एक संसारी जीव मनुष्यसे देव बनता है तब औदारिक शरीर हटकर वैक्रियिक शरीर बन जाता है संसार अवस्था वैसीकी वैसी बनी रहती है।

किसी भी पच्यमान आममें हरापन मिटकर पीलापन आगया तथापि दृश्यतामें कोई अन्तर नहीं है। इसप्रकार अनेक उदाहरण दिये जासकते हैं। भिन्न भिन्न द्रव्योंके संयोग सापेक्ष जो पर्याय होती है वह द्रव्यपर्याय कहलाती है किन्तु एक ही द्रव्यमें जो पर्याय होती है वह गुणपर्यायके नामसे कही जाती है। किसी भी द्रव्य या गुणमें अवस्थान्तर होना ही उससे पूर्व की अवस्थाका नहीं होना है। जैसे सवस्त्रताका होना ही नग्नताका न होना है, सिद्ध दशाका होना ही संसारदशाका न होना है जो आधार (जीव) की सत्ताको लिये हुए होता है। अतः हर एक द्रव्य स्वयं सत्स्वरूप होता है, ऐसा आगे बताते हैं
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