प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 15 नामकर्म जीव के स्वभाव का पराभव
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आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -15,16


है पद है गुण है पर्वय भी किन्तु न पद ही सत्ता है
और न गुण हो या पर्यय हो यही विचार महत्ता है
जो गुण है वह नहीं द्रव्य है द्रव्य नहीं गुण अहो कहा ।
जीवाभाव अजोवकी तरह किन्तु नहीं है भिन्न यहाँ ॥ ८ ॥


सारांशः–ऊपर सत्ताको द्रव्यका गुण बताया है सो वह गुण होकर भी गुणरूप ही हो ऐसी बात नहीं है किन्तु वह द्रव्य गुण और पर्याय इन तीनों रूपोंमें रहता हुआ पाया जाता है। जैसे मोतियोंकी मालाकी श्वेतता, हार, सूत और मोती इन तीनोंमें दिखती है। हार भी श्वेत, उसके मोती भी श्वेत और उसमें होनेवाला सूत भी श्वेत है। ऐसी ही वस्तुमें रहनेवाली सत्ताकी दशा है। स्वयं द्रव्य भी सतुस्वरूप, उसका हरएक गुण भी सत्स्वरूप और उनमें होनेवाली प्रत्येक पर्याय भी सत्स्वरूप होती है जिससे हमको द्रव्य है, गुण है और पर्याय है, इसप्रकार का अनुभव होता रहता है। यह तो तद्भाव हुआ।

जो द्रव्य है वही गुण नहीं एवं जो गुण है वही द्रव्य नहीं क्योंकि जो द्रव्य ही गुण हो तो फिर संसारी जीव गुणवान् बननेका प्रयत्न क्यों करे और अगर गुणको ही द्रव्य मान लिया जावे तो फिर हमको अपनी आँखोंसे आमके पीले रूपका ज्ञान होता है, उसी समय उसके चखने आदिका विचार भी निवृत्त होजाना चाहिये, ऐसा होता नहीं है। अतः द्रव्य और गुणमें भी भेद है। यह अतद्भाव कहलाता है क्योंकि जिसप्रकार जीवद्रव्यमें अजीव द्रव्यका तथा अजीव द्रव्यमें जीवद्रव्यका अभाव होता है, इस प्रकारका प्रदेशात्मक अभाव आपसमें गुणगुणीमें नहीं होता है अर्थात् परस्पर द्रव्य और गुणकी सत्ता एक रहती है।
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