प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 17,18 जीवके अनवस्थितपन
#7

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -17,18


अस्तिरूप परिणाम वस्तुका सत्ता सिद्ध कहाता है।
स्वयं वस्तु के साथ सत्वका यों गुण गुणिपन आता है ॥
द्रव्य बिना गुण नहीं और पर्याय नहीं कोई होती ।।
द्रव्यपणा परिणाम तथा यों द्रव्यसत्वको समझौती ॥ ९ ॥

सारांश: - द्रव्यों में सदा ही रहनेवाले स्वभावका नाम गुण है। जिसके द्वारा होनेवाला द्रव्य स्वयं विद्वानोंके विचारमें आया करता है। अर्थात् गुण आधेय हैं और द्रव्य उनका आधार है। आधारके बिना आधेय कहाँ रह सकता है, यह बात तो सरलतासे मानली जाती है परन्तु आधेयके बिना आधार भी कैसे हो सकता है, कभी नहीं होसकता है, यह बात भी मानने ही योग्य है। जैसे पत्नी पतिका आधार लेकर बनती है ऐसे ही पत्नीके बिना पति भी पति संज्ञाको नहीं पासकता है। इनमें आधार आधेयका भेद भी इसलिए है कि एक पतिके अनेक पत्नियाँ हो सकती हैं ऐसे ही एक द्रव्यमें अनेक गुण होते हैं।

मतलब यह है कि परस्पर मिले हुए अनेक गुणोंका अखण्ड पिण्ड ही द्रव्य होता है। जैसे उष्णता, पाचकता और प्रकाशकतादिका समन्वय ही अग्नि होती है। इनमेंसे एक भी यदि न हो तो अग्नि भी न हो, इन सबके होने के लिए उस एकका होना भी अवश्यंभावी है। सत्वविशेषका नाम ही गुण है और उन सबके सत्व सामान्यका नाम द्रव्य है। इसे छोड़कर न तो कोई गुण ही होसकता है और न उसके परिणमनरूप पर्याय ही हो सकती है जैसे पीला तथा भारी भी सोना ही होता है और कड़े कुण्डलादिके रूपमें भी सोना हो ढलता है।

मतलब यह है कि एक ही चीज द्रव्य, गुण और पर्यायके रूपमें परिणत होती हुई प्रतीत होती है। इसप्रकारसे परिणमन करते हुए भी अपने स्वरूपको लिए हुए रहना यहाँ द्रव्यकी द्रव्यता है, इसीका दूसरा नाम सत्ता है। द्रव्यकी इस द्रव्यता अथवा सत्ताको उपयोगमें लानेके लिए हम जैसे लोगोंके पास अब दो प्रकारकी विचारधारा प्रस्तुत है। एक साधारण और दूसरी असाधारण ।
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