प्रवचनसारः ज्ञेयतत्त्वाधिकार-गाथा - 21,22 ज्ञान,कर्म और कर्मफल का स्वरुप
#7

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -21,22


हाँ जब नर है सुरन यही तब यो अनन्यपना भी आया

जब वह नहीं कहो फिर कैसे जीव एक हो रह पाया
द्रव्यार्थिकसे वहीं द्रव्य पर्यायार्थिकसे नहीं वही
क्या विशेष तन्मयता रखता है वह उस काल नहीं  ११


सारांश:- जीवादि द्रव्योंमें जो उनकी पर्यायें होती हैं वे अपने हो समयमें होती हैं, अन्य समयमें उनका अभाव रहता है। जिस समय जो पर्याय होती है वह आममें होने वाली खट्टे मीठेपनकी तरह उससे अपृथक ही होती है। अतः कहना चाहिये कि द्रव्य ही नवीन नवीन होता है। जिस समय जो मनुष्य है उस समय उससे देवका काम नहीं लिया जा सकता है और देवसे मनुष्य या पशुका काम नहीं लिया जा सकता है। अतः अवस्था भेदसे जीव बिल्कुल भी नहीं बदलता है, ऐसी बात नहीं है किन्तु यह जीव मनुष्य है, यह जीव देव है और यह जीव सिद्ध है, इत्यादि रूपमें भिन्न भिन्न ही होता है।

बात यह है कि हमारी दो आँखोंमेंसे एक आँख दाहिनी तरफसे देखती है और दूसरी बाई तरफसे देखती है। इसीप्रकार द्रव्यार्थिक नय वस्तुके अनेक विशेषोंमें होकर रहनेवाले सामान्यधर्मको ग्रहण करता है अतः उसको दृष्टिमें वस्तु वहाँ है, ऐसा अनुभव होता है। पर्यायार्थिक नय वस्तुके सामान्य स्वरूपको न देखकर उसमें निरन्तर होनेवाले विशेषोंको ग्रहण करता है अतः उसकी दृष्टिमें वस्तु अब और है और है ऐसा नया नया अनुभव होता रहता है।

जब द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयोंसे एक साथ काम लिया जाता है तब वस्तु होकर भी और और अवस्थाको धारण करती हुई एक साथ दोनोंरूप प्रतीत होती है। इसको कहनेवाला कोई मुख्य एक शब्द न होनेसे इसे अवक्तव्य कहा जाता है। इसप्रकार वस्तु स्वरूप विवेचनके मूल तीन भंग प्रस्तुत होते हैं और फिर चार इनके संयोगी भंग बनकर अपुनरुक्त सप्तर्भगोके द्वारा वस्तुका व्याख्यान होता है।
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