03-16-2016, 11:32 AM
अध्याय ५ (अजीव तत्व )
रूपिण:पुद्गला: !!५!!
संधि विच्छेद -रूपिण:+पुद्गला:
शब्दार्थ -रूपिण:-रूपी है,पुद्गला:-पुद्गल द्रव्य
अर्थ-पुद्गल द्रव्य रूपी है अर्थात मूर्तिक है !
विशेषार्थ-
१-इस सूत्र से यह भी स्पष्ट हो गया कि पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पाँचों द्रव्य अरूपी अर्थात अमूर्तिक है!पुद्गल भी नित्य अवस्थित द्रव्य है अत:इनकी मात्र भी हीनाधिक नही होती है !
२-पुद्गला: बहु वचन में है जो सूचित करता है की पुद्गल द्रव्य भी है !
३-पुद्गल में रस,गंध,वर्ण (रूप),और स्पर्श चारों गुण,अभिनावी है,चारों एक साथ रहते है किन्तु दिखने में सिर्फ रूप ही आता है ,शेष गुण दीखते नहीं इसलिए पुद्गल को रुपी कहा है!जिस प्रकार जीव का दर्शन और ज्ञान गुण है किन्तु जब जीव की चर्चा करी जाती है तब ज्ञान गुण की ही चर्चा करी जाती है क्योकि दर्शन समझ नहीं आता, ज्ञान समझ में आ जाता है !
४-पुद्गल के परमाणु और स्कंध रूप अनेक भेद है !पुद्गल परमाणु से जुड़कर बड़े स्कंध भी बनाते है और उनमे से परमाणु टूटकर छोटे स्कंध भी बनते है!यह गुण अन्य द्रव्यों में विध्यमान नहीं है!जैसे दो जीवों जुड़ते नहीं, आकाश ,धर्म और अधर्म द्रव्य बड़े है किन्तु छोटों में खंडित नहीं होते!काल द्रव्य के अणु भी परस्पर जुड़ कर स्कंध नहीं बनाते !
धर्म अधर्म आकाश द्रव्यों की संख्या -
आ आकाशादेकद्रव्याणि !!६!!
संधि-विच्छेद -आ+आकाशात+एक+द्रव्याणि
शब्दार्थ-आ-पर्यन्त,आकाशात-आकाश तक ,एक-एक,द्रव्याणि -द्रव्य है !
अर्थ-सूत्र १ में आकाश तक एक -एक द्रव्य है !
भावार्थ-धर्म,अधर्म और आकाश एक एक द्रव्य है!
विशेष -
१-आकाश द्रव्य एक ही है!उसके लोकाकाश और अलोककाश दो भेद है!आकाश में जहाँ ,तक पांच द्रव्य पाये जाते है वह लोकाकाश है और शेष अलोकाकाश है!अर्थात आकाश द्रव्य एक ही है !
२-इस सूत्र में धर्म अधर्म और आकाश द्रव्य को एक एक बताने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अन्य द्रव्य अनेक है!जैन दर्शन के अनुसार जीव द्रव्य अनंत है,पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त और काल द्रव्य(अणु रूप) असंख्यात है ,क्योकि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों पर एक एक कालणु स्थित रहता है !
धर्मादिक द्रव्यों की निष्क्रियता -
निष्क्रियाणि च !!७!!
संधि-विच्छेद-निष्क्रिय+आणि+ च
शब्दार्थ-निष्क्रिय-क्रिया रहित/गमन नही करते ,आणि-है, च-और
अर्थ-धर्म,अधर्म और आकाश तीनो द्रव्य क्रिया रहित है!अर्थात वे एक स्थान से दुसरे स्थान को गमन नहीं करते है !
विशेष -
१- क्रिया-एक स्थान से दूसरा स्थान प्राप्त करने को क्रिया कहते है !
२- धर्म और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त है;आकाश द्रव्य समस्त लोक और अलोक में व्याप्त है, अत: अन्य क्षेत्र का अभाव होने के कारण इनमे हलन चलन रूप क्रिया नहीं होती है !
-शंका-जैनसिद्धांत के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय उत्पाद और व्यय होता है किन्तु धर्मादि द्रव्यों को निष्क्रिय कहा है तो उनमे उत्पाद कैसे सम्भव है क्योकि कुम्हार मिटटी को चाक पर रखकर जब घुमाता है तभी घड़े की उत्पत्ति होती है अत:बिना क्रिया के उत्पाद असम्भव है और उत्पाद नहीं होगा तो व्यय भी नहीं होगा ?
समाधान-धर्मादिक द्रव्यों में क्रियापूर्वक उत्पाद नहीं होता!उत्पाद स्वनिमित्तिक और परनिमित्तिक दो प्रकार का होता है!जैनागम के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघु नामक अनंतगुण विध्यमान है !उन गुणों में षटगुण हानि-वृद्धि सैदव होती रहती है जिसके निमित्त से द्रव्यों में स्वभावत: उत्पाद,व्यय होता है!यह स्व नैमित्तिक उत्पाद व्यय है!धर्मादि द्रव्य प्रति समय अश्व आदि अनेक जीवों और अन्य पुद्गल के गमन में , स्थिति में और अवकाश दान में निमित्त होते है,प्रति समय गति,स्थिति आदि में परिवर्तन होता है जिसके निमित्त से धर्मादि द्रव्यों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है यह पर नैमित्तिक उत्पाद व्यय है !
शंका -धर्मादि द्रव्य स्वयं तो चलते नहीं फिर अन्य जीवों और पुद्गलों को चलने में कैसे सहायक हो सकते है !क्योकि जल गतिमान होता है तभी मछली के गमन में सहायक होता है ?
समाधान-जैसे चक्षु ,रूप देखने में, केवल जब हम देखना चाहते है तभी दिखाते है,किसी अन्य दिशा में हमारा उपयोग हो तब चक्षु, रूप को देखने लिए आग्रह नहीं करते !इसी प्रकार धर्म और अधर्म द्रव्य क्रमश: गमन और स्थिरता में उदासीन निमित्त है
इस अध्याय में आचार्यश्री ने १-१६ सूत्रों में लोक में विध्यमान ६ ही (हीनाअधिक नही ) द्रव्यों और उन के विभिन्न गुणों,१७-२२ तक उनके उपकारों और २३-४२ में पुद्गल द्रव्य के लक्षणादि का निरूपण किया है!आइये इन ४२ सूत्रों के द्वारा मुख्यत: अजीव द्रव्य को समझने का प्रयास करते है!प्रथम सूत्र में आचार्य बहु प्रदेशी (कायवान) अजीव द्रव्य के भेदो का निरूपण करते है-
इस अध्याय में हम लगभग २६०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित रसायन विज्ञान के रहस्यों को सूत्र २३-४२ तक समझ सकेंगे जिनको अनुसंधान द्वारा आधुनिक वैज्ञानिको ने हमारे समक्ष भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग २५०० वर्ष बाद १८वॆ-१९वी सदी में अनुसंधान द्वारा खोज कर रखा है!
इस अध्याय में हम लगभग २६०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित रसायन विज्ञान के रहस्यों को सूत्र २३-४२ तक समझ सकेंगे जिनको अनुसंधान द्वारा आधुनिक वैज्ञानिको ने हमारे समक्ष भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग २५०० वर्ष बाद १८वॆ-१९वी सदी में अनुसंधान द्वारा खोज कर रखा है!
अजीवकायाधर्माधर्माकाशपुद्गला: !!१!!
संधि विच्छेद -अजीव+काया+धर्म+अधर्म+आकाश+पुद्गला:
शब्दार्थ-अजीव-चेतन रहित,काया-, कायवान(बहुप्रदेशी),धर्म,अधर्म,आकाश,पुद्गला:
अर्थ-धर्म,अधर्म,आकाश और पुद्गल चार द्रव्य;अजीव(चेतनरहित) और शरीर की भांति कायवान अर्थात बहु प्रदेशी है !
भावार्थ-
धर्म द्रव्य-जो गतिशील जीव और पुद्गलों के गमन में निष्क्रिय उत्प्रेरक की भांति सहायक/निमित्त होता है,रुके हुए पुद्गल और जीवों को गमन के लिए बाध्य नहीं करता,धर्म द्रव्य है !
धर्म द्रव्य-जो गतिशील जीव और पुद्गलों के गमन में निष्क्रिय उत्प्रेरक की भांति सहायक/निमित्त होता है,रुके हुए पुद्गल और जीवों को गमन के लिए बाध्य नहीं करता,धर्म द्रव्य है !
अधर्म द्रव्य-जो द्रव्य स्थिर जीव और पुद्गलों के स्थिर रहने में निष्क्रिय उत्प्रेरक की भांति सहायक/निमित्त होता है,गतिशील पुद्गल और जीवों को स्थिर होने के लिए बाध्य नहीं करता,अधर्म द्रव्य है!
आकाश द्रव्य-समस्त द्रव्यों को अवकाश देने वाले द्रव्य को आकाश द्रव्य कहते है!इसके लोकाकाश-त्रिलोक मे जितने आकाश में धर्म/अधर्म द्रव्य है वह लोकाकाश कहलाता है और अलोकाकाश;-लोकाकाश से बाहर का अनन्त आकाश अलोकाकाश है ,दो भेद है !
पुद्गल द्रव्य -स्पर्श,रस,गंध और रूप (वर्ण) गुणों सहित द्रव्य को पुद्गल कहते है !
विशेष-
१-छ:द्रव्यों में से दो द्रव्यों;जीव और काल को इस सूत्र में सम्मिलित नहीं लिया क्योकि जीव द्रव्य चेतन गुण युक्त है और काल द्रव्य यद्यपि अजीव है,किन्तु एक प्रदेशी है,बहु प्रदेशी नहीं है अर्थात कायवान नहीं हैं!इस सूत्र में केवल कायवान अजीव द्रव्यों को ग्रहण किया है !
२-एक से अधिक प्रदेशी को कायवान कहते है!यद्यपि पुद्गल परमाणु एक प्रदेशी है,किन्तु वह अन्य पुद्गल परमाणु से संघात (मिल) कर स्कंध निर्मित करता है इस अपेक्षा से वह बहुप्रदेशी कहा जाता है जबकि कालाणु भी एक प्रदेशी है किन्तु वह अन्य कालाणुओं से संघात कर स्कंध नहीं बना सकता इसलिए उसे एक प्रदेशी कहा है और वह कायवान नहीं है !
३- उक्त सूत्र में इन चारों को द्रव्य नही खा है किन्तु अगले सूत्र में आचार्य स्पष्ट करते है की ये चारो द्रव्य है
३- उक्त सूत्र में इन चारों को द्रव्य नही खा है किन्तु अगले सूत्र में आचार्य स्पष्ट करते है की ये चारो द्रव्य है
द्रव्यों की गणना -
द्रव्याणि -!!२!!
संधि-विच्छेद-द्रव्य+आणि
शब्दार्थ-द्रव्य-द्रव्य ,आणि -है
संधि-विच्छेद-द्रव्य+आणि
शब्दार्थ-द्रव्य-द्रव्य ,आणि -है
अर्थ- ये चार पदार्थ धर्म,अधर्म,आकाश और पुद्गल(उक्त सूत्र से ग्रहण किये गए है)- द्रव्य है !
विशेष -
१-द्रव्य-द्रव्य का लक्षण सत (अस्तित्व) है!जो अपनी त्रिकालवर्ती पर्यायों को प्राप्त करता है या उनसे प्राप्त होता है वह द्रव्य है!जिस मे गुण पर्याय होते है वह द्रव्य है अथवा उत्पाद-ध्रौव्य व्यय युक्त पदार्थ द्रव्य है!
किसी द्रव्य में सदैव(प्रत्येक पर्याय में) विध्यमान रहने वाले धर्म को गुण कहते है!गुण द्रव्य की समस्त पर्यायों में व्याप्त रहता है!जगत में पदार्थ परिणमनशील होते हुए भी ध्रुव है इसलिए उसे द्रव्य कहते है,वह अपने पर्याय और गुण का उल्लघन कभी नहीं करता !
किसी द्रव्य में सदैव(प्रत्येक पर्याय में) विध्यमान रहने वाले धर्म को गुण कहते है!गुण द्रव्य की समस्त पर्यायों में व्याप्त रहता है!जगत में पदार्थ परिणमनशील होते हुए भी ध्रुव है इसलिए उसे द्रव्य कहते है,वह अपने पर्याय और गुण का उल्लघन कभी नहीं करता !
जीव में द्रव्यत्व -
जीवश्च !!३!!
संधि-विच्छेद -जीवा:+च
शब्दार्थ-जीवा: -जीवों के अनेक भेद ( जीवा,च- भी(द्रव्य है )
अर्थ-जीव (अनेक भेदों सहित )भी द्रव्य है !
संधि-विच्छेद -जीवा:+च
शब्दार्थ-जीवा: -जीवों के अनेक भेद ( जीवा,च- भी(द्रव्य है )
अर्थ-जीव (अनेक भेदों सहित )भी द्रव्य है !
विशेष-
१-सूत्र में जीव द्रव्य के साथ बहुवचन लगाने का कारण है की इसके अनेक भेद है जैसे मुक्त-संसारी,स्थावर-त्रस, एकेन्द्रिय,पंचेन्द्रिय,संज्ञी-असंज्ञी,जीव आदि!१४ मार्गणा से भी जीव द्रव्य के अनेक भेद है !
२-सूत्र १ से ३ तक पांच द्रव्यों तथा सूत्र ३९ में काल द्रव्य सहित कुल छ द्रव्य की संख्या निश्चित करके अन्यवादियों द्वारा माने गए पृथिवी,जल,अग्नि,वायु,मन का अंतर्भाव पुद्गल द्रव्यों में ही हो जाता है क्योकि ये स्पर्श,रस ,गंध,वर्ण युक्त है !
शंका-मन वायु में रुपादिक नहीं होते,ये पुद्गल कैसे है ?
समाधान-वायु में स्पर्श होता है,जिसे हमसभी अनुभव कर सकते है!इस प्रकार वायु में रूपादि प्रमाणित हुआ !उक्त चार पुद्गल के गुणों में से कोई भी एक अनुभव करने से उस मे बाकी गुण भी अवश्य ही होते है ,हमारी इन्द्रिय उन्हें अनुभव करने में असक्षम होती है!जैसे परमाणु को हमारी चक्षु इन्द्रिय देखने में सामर्थ्यवान नहीं है किन्तु उसका अस्तित्व,उससे निर्मित उसके बड़े स्कंध को देखकर प्रमाणित हो जाता है! जल भी इसी प्रकार गंध वाला है किन्तु हमारी नासिका (घ्राणेंद्रिय)उसकी गंध को सूंघने में सक्षम नहीं है,किन्तु एक स्पर्श होने के कारण पृथ्वी के सामान है!अग्नि भी रस गंध युक्त है !
मन;भाव मन और द्रव्य मन दो प्रकार का है!उन में,भाव मन ज्ञान रूप है और ज्ञान जीवो का गुण है ,इसलिए भाव मन का अंतर्भाव जीव में हो जाता है !द्रव्य मन में रूपदिक पाये जाते है इसलिए वह पुद्गल द्रव्य की पर्याय हुई!जैसे मन रूपादिक सहित है,ज्ञानोपयोग का कारण होने से चक्षु इन्द्रिय के समान है!शब्द पौद्गलिक है, उसमे ज्ञानोपयोग कारणता है !
शंका -परमाणु के समान मन और वायु में रूपादि गुण नहीं दीखते -
समाधान-वायु और मन भी रूपादि गुण युक्त सिद्ध होते है क्योकि सब परमाणुओं में,सब रूपादि गुणवाले कार्य होने की क्षमता मानी गई है!दिशा का भी अंतर्भाव आकाश में हो जाता है क्योकि सूर्य के उदय की अपेक्षा, आकाश प्रदेश पंक्तियाँ में,यहाँ अमुक दिशा है,इस प्रकार व्यवहार की उत्पत्ति होती है !
इस प्रकार जैन दर्शनानुसार बताये गए द्रव्य छ: ही है ,हीनाधिक नहीं !
द्रव्यों की विशेषता -
नित्यावस्थितान्यरूपाणि !!४!!
संधि विच्छेद-नित्य+अवस्थिताणि+अन्यरूपाणि
शब्दार्थ-नित्य-अविनाशीहै,अवस्थिताणि-अवस्थित है;अर्थात उनकी संख्या छः ही है ,हीनाधिक नहीं, अन्यरूपाणि-अरूपी अर्थात स्पर्श,रस,गंध और रूप रहित है,अमूर्तिक है
अर्थ-सभी द्रव्य नित्य है;क्योकि अविनाशी है,अवस्थित है क्योकि इनकी संख्या छःही है हीनाधिक नहीं!समस्त जीवात्माओं की निश्चित संख्या है कभी भी हीनाधिक नहीं होती!द्रव्य अरूपी,अमूर्तिक है क्योकि इनमे रस गंध ,रूप और स्पर्श गुण नहीं है !
विशेष -
१-इस सूत्र में सामान्य से ५ द्रव्यों को अरूपी कहा है,अगले छठे सूत्र में पुद्गलद्रव्य को रुपी बताया है ,यदि यह सूत्र नही लिखते तो पुद्गल द्रव्य के भी अरूपी की अवधारणा होती !
२-प्रत्येक द्रव्य के सामान्य और विशेष दो गुण होते है!जैसे धर्म द्रव्य का विशेष गुण गतिशील पुद्गल और जीव द्रव्यों की गति में उत्प्रेरक की भांति सहायता देना है और अस्तित्व उसका सामान्य गुण है !किसी भी द्रव्य के गुण का विनाश कभी नहीं होता,उसका स्वभाव सदा ,प्रत्येक पर्याय में उसके साथ रहता है अत:सभी द्रव्य नित्य है !
पुद्गल द्रव्य रूपी है -नित्यावस्थितान्यरूपाणि !!४!!
संधि विच्छेद-नित्य+अवस्थिताणि+अन्यरूपाणि
शब्दार्थ-नित्य-अविनाशीहै,अवस्थिताणि-अवस्थित है;अर्थात उनकी संख्या छः ही है ,हीनाधिक नहीं, अन्यरूपाणि-अरूपी अर्थात स्पर्श,रस,गंध और रूप रहित है,अमूर्तिक है
अर्थ-सभी द्रव्य नित्य है;क्योकि अविनाशी है,अवस्थित है क्योकि इनकी संख्या छःही है हीनाधिक नहीं!समस्त जीवात्माओं की निश्चित संख्या है कभी भी हीनाधिक नहीं होती!द्रव्य अरूपी,अमूर्तिक है क्योकि इनमे रस गंध ,रूप और स्पर्श गुण नहीं है !
विशेष -
१-इस सूत्र में सामान्य से ५ द्रव्यों को अरूपी कहा है,अगले छठे सूत्र में पुद्गलद्रव्य को रुपी बताया है ,यदि यह सूत्र नही लिखते तो पुद्गल द्रव्य के भी अरूपी की अवधारणा होती !
२-प्रत्येक द्रव्य के सामान्य और विशेष दो गुण होते है!जैसे धर्म द्रव्य का विशेष गुण गतिशील पुद्गल और जीव द्रव्यों की गति में उत्प्रेरक की भांति सहायता देना है और अस्तित्व उसका सामान्य गुण है !किसी भी द्रव्य के गुण का विनाश कभी नहीं होता,उसका स्वभाव सदा ,प्रत्येक पर्याय में उसके साथ रहता है अत:सभी द्रव्य नित्य है !
रूपिण:पुद्गला: !!५!!
संधि विच्छेद -रूपिण:+पुद्गला:
शब्दार्थ -रूपिण:-रूपी है,पुद्गला:-पुद्गल द्रव्य
अर्थ-पुद्गल द्रव्य रूपी है अर्थात मूर्तिक है !
विशेषार्थ-
१-इस सूत्र से यह भी स्पष्ट हो गया कि पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पाँचों द्रव्य अरूपी अर्थात अमूर्तिक है!पुद्गल भी नित्य अवस्थित द्रव्य है अत:इनकी मात्र भी हीनाधिक नही होती है !
२-पुद्गला: बहु वचन में है जो सूचित करता है की पुद्गल द्रव्य भी है !
३-पुद्गल में रस,गंध,वर्ण (रूप),और स्पर्श चारों गुण,अभिनावी है,चारों एक साथ रहते है किन्तु दिखने में सिर्फ रूप ही आता है ,शेष गुण दीखते नहीं इसलिए पुद्गल को रुपी कहा है!जिस प्रकार जीव का दर्शन और ज्ञान गुण है किन्तु जब जीव की चर्चा करी जाती है तब ज्ञान गुण की ही चर्चा करी जाती है क्योकि दर्शन समझ नहीं आता, ज्ञान समझ में आ जाता है !
४-पुद्गल के परमाणु और स्कंध रूप अनेक भेद है !पुद्गल परमाणु से जुड़कर बड़े स्कंध भी बनाते है और उनमे से परमाणु टूटकर छोटे स्कंध भी बनते है!यह गुण अन्य द्रव्यों में विध्यमान नहीं है!जैसे दो जीवों जुड़ते नहीं, आकाश ,धर्म और अधर्म द्रव्य बड़े है किन्तु छोटों में खंडित नहीं होते!काल द्रव्य के अणु भी परस्पर जुड़ कर स्कंध नहीं बनाते !
धर्म अधर्म आकाश द्रव्यों की संख्या -
आ आकाशादेकद्रव्याणि !!६!!
संधि-विच्छेद -आ+आकाशात+एक+द्रव्याणि
शब्दार्थ-आ-पर्यन्त,आकाशात-आकाश तक ,एक-एक,द्रव्याणि -द्रव्य है !
अर्थ-सूत्र १ में आकाश तक एक -एक द्रव्य है !
भावार्थ-धर्म,अधर्म और आकाश एक एक द्रव्य है!
विशेष -
१-आकाश द्रव्य एक ही है!उसके लोकाकाश और अलोककाश दो भेद है!आकाश में जहाँ ,तक पांच द्रव्य पाये जाते है वह लोकाकाश है और शेष अलोकाकाश है!अर्थात आकाश द्रव्य एक ही है !
२-इस सूत्र में धर्म अधर्म और आकाश द्रव्य को एक एक बताने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि अन्य द्रव्य अनेक है!जैन दर्शन के अनुसार जीव द्रव्य अनंत है,पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त और काल द्रव्य(अणु रूप) असंख्यात है ,क्योकि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों पर एक एक कालणु स्थित रहता है !
धर्मादिक द्रव्यों की निष्क्रियता -
निष्क्रियाणि च !!७!!
संधि-विच्छेद-निष्क्रिय+आणि+ च
शब्दार्थ-निष्क्रिय-क्रिया रहित/गमन नही करते ,आणि-है, च-और
अर्थ-धर्म,अधर्म और आकाश तीनो द्रव्य क्रिया रहित है!अर्थात वे एक स्थान से दुसरे स्थान को गमन नहीं करते है !
विशेष -
१- क्रिया-एक स्थान से दूसरा स्थान प्राप्त करने को क्रिया कहते है !
२- धर्म और अधर्म द्रव्य समस्त लोकाकाश में व्याप्त है;आकाश द्रव्य समस्त लोक और अलोक में व्याप्त है, अत: अन्य क्षेत्र का अभाव होने के कारण इनमे हलन चलन रूप क्रिया नहीं होती है !
-शंका-जैनसिद्धांत के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय उत्पाद और व्यय होता है किन्तु धर्मादि द्रव्यों को निष्क्रिय कहा है तो उनमे उत्पाद कैसे सम्भव है क्योकि कुम्हार मिटटी को चाक पर रखकर जब घुमाता है तभी घड़े की उत्पत्ति होती है अत:बिना क्रिया के उत्पाद असम्भव है और उत्पाद नहीं होगा तो व्यय भी नहीं होगा ?
समाधान-धर्मादिक द्रव्यों में क्रियापूर्वक उत्पाद नहीं होता!उत्पाद स्वनिमित्तिक और परनिमित्तिक दो प्रकार का होता है!जैनागम के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में अगुरुलघु नामक अनंतगुण विध्यमान है !उन गुणों में षटगुण हानि-वृद्धि सैदव होती रहती है जिसके निमित्त से द्रव्यों में स्वभावत: उत्पाद,व्यय होता है!यह स्व नैमित्तिक उत्पाद व्यय है!धर्मादि द्रव्य प्रति समय अश्व आदि अनेक जीवों और अन्य पुद्गल के गमन में , स्थिति में और अवकाश दान में निमित्त होते है,प्रति समय गति,स्थिति आदि में परिवर्तन होता है जिसके निमित्त से धर्मादि द्रव्यों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है यह पर नैमित्तिक उत्पाद व्यय है !
शंका -धर्मादि द्रव्य स्वयं तो चलते नहीं फिर अन्य जीवों और पुद्गलों को चलने में कैसे सहायक हो सकते है !क्योकि जल गतिमान होता है तभी मछली के गमन में सहायक होता है ?
समाधान-जैसे चक्षु ,रूप देखने में, केवल जब हम देखना चाहते है तभी दिखाते है,किसी अन्य दिशा में हमारा उपयोग हो तब चक्षु, रूप को देखने लिए आग्रह नहीं करते !इसी प्रकार धर्म और अधर्म द्रव्य क्रमश: गमन और स्थिरता में उदासीन निमित्त है
धर्म ,अधर्म और एक जीव द्रव्य के प्रदेश -
असंख्येया:प्रदेशाधर्माधर्मैकजीवानाम् !!८!!
संधि-विच्छेद-असंख्येया:+प्रदेशा+ धर्म+अधर्म ,एक+जीवानाम्
शब्दार्थ -असंख्येया:-असंख्यात,प्रदेशा-प्रदेश , धर्म-धर्म, अधर्म -अधर्म ,एक जीवा+नाम् -द्रव्य के है
अर्थ- धर्म,अधर्म और 'एक जीव' द्रव्य के असंख्यात प्रदेश होते है !
विशेष-
१-प्रदेश-अविभागी पुद्गल के सूक्ष्मत अंश;एक परमाणु,द्वारा घेरे गए आकाश के क्षेत्र को प्रदेश कहते है !स्थान (unit of space) की इकाई प्रदेश है !
२- सब जीवों के अनन्तान्त प्रदेश होते है इसलिए सूत्र में 'एक जीव' ग्रहण किया गया है !
३- प्रत्येक जीवात्मा असंख्यात प्रदेशी होती है अर्थात प्रत्येक जीव आत्मा लोकप्रमाण विशाल होती है!जीवात्मा के प्रदेश असंख्यात ही होते है किन्तु उनमे संकुचित/विस्तारित होने की शक्ति होती है!इसीलिए केवली भगवान के आत्म प्रदेश समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोकप्रमाण प्रदेशों में फ़ैल जाते है!
समुद्घात के समय केवली जीव के मध्य के आठ प्रदेश मेरु के नीचे चित्रा पृथ्वी के वज्रमय पटल के मध्य में स्थित हो जाते है और शेष समस्त प्रदेश ऊपर,नीचे,तिर्यक,समस्त लोक में व्याप्त हो जाते है!इसी संकोच विस्तार गुण के कारण एक जीव(अशुद्धावस्था में)को,नाम कर्म केअनुसार,जैसा छोटा बड़ा शरीर मिलता है उसके अनुसार प्रदेश फ़ैल जाते है!जैसे निगोदिया/चींटी आदि जैसे सूक्ष्म शरीर को और स्वयंभूरमण समुद्र में उत्पन्न होने वाले,मत्स्य(मगर) जैसे विशाल शरीर धारण कर पाती है !
४- एक धर्म और एक अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश के प्रदेशों में व्याप्त है इसलिए दोनों असंख्यात प्रदेशी है !
आकाश के प्रदेश -
आकाशस्यान्नता: !!९!!
संधिविच्छेद -आकाशस्य+अन्नता:
शब्दार्थ- आकाशस्य-आकाश द्रव्य के,अ न्नता:-अनन्त प्रदेश है !
अर्थ-आकाश द्रव्य के अनन्त प्रदेश है !
विशेष-लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश है !