आस्रव
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आस्रव


अर्जीव के परिणाम के कारण पुद्गल कार्मण वर्गणाए कर्म रूप परिणमन करती है !अर्थात आस्रव होता है !जब उन पुद्गल कर्मों का उदय आता है उनके निमित्त से जीव में परिणमन होता है !यह अनादि परम्परा है !
हम कर्म  बांधते  है और जब उनका उदय आता है उसी रूप परिणमन करते है,हमारे परिणाम वैसे होते है जिनसे नवीन कर्म बंधते है !
द्रव्यास्रव और भावास्रव का अंतर -भावास्रव/जीवास्रव  आत्मा के परिणाम है , जीव रूप है !द्रव्यास्रव पुद्गल वर्गणाओं का आना द्रव्यास्रव /अजीवास्रव है !पुद्गल के है !
द्रव्यास्रव और भावास्रव में कार्य कारणपना  है या नही -भावास्रव में -मिथ्यारत्व और कषाय   रूप परिणाम कारण है और उनके कारण द्रव्य कर्मों का आना कार्य है !कार्य कारण पना है !यदि  कारण नही हो तो आस्रव होने का ही नही !अत:जीवास्रव कारण है और अजीवास्रव कार्य है !
पूर्व बंधे  कर्मों उदय में आएंगे ,हम राग द्वेष करेंगे तो फिर यह आस्रव की परम्परा कैसे टूटेगी -
समाधान - पिछले भवों  में हमारे बंधे कर्म उदय में अवश्य आएंगे !अज्ञानी जीव उन कर्मों के उदय के अनुसार काम क्रोध आदि रूप परिणमन करेगा किन्तु ज्ञानी ,विवेकी जिसने आत्मा का परिचय प्राप्त कर लिया है वह कैसे ही कर्मों का उदय आये वह  तद्रूप परिणमन नही करता है!क्योकि तद्रूप परिणमन नही करता इसलिए नवीन कर्मों का बंध भी नही करता है !वह संवर के कार्यों में लगता है !इसलिए परम्परा से  बंधे कर्मों के उदय में यदि हम अपने स्वरुप का परिचय प्राप्त करके ,अपने स्वरुप की ओर दृष्टि रखे तब नवीन कर्मो के आस्रव का अवसर ही नही आएगा !सर्वप्रथम हमें समयदृष्टि बनना चाहिए दूसरा स्वाध्याय कर वास्तविकताओं से परिचित होना चाहिए ,परिचय प्राप्त कर अपनी जीवन चर्या,चिंतन  बदलनी चाहिए ! कर्मों के उदय में  आने से पूर्व उनके फल को  हम किसी भी  रूप में बदल सकते है !कर्म का फल ;द्रव्य ,क्षेत्र ,काल और भाव के अनुसार होता है !यदि  में रहना शुरू कर दे तो खराब कर्म भी अच्छे फल देने लगेंगे !इसलिए कर्मों के उदय में हम जागृत रहे ,तद्रूप परिणमन नही करे तो नवीन कर्म आस्रव रूप हमारे परिणाम नही बनेंगे !इस आस्रव से हम बच जाएंगे !ये ज्ञानी की दशा है
आत्मा!में आस्रव समय  कार्मणवर्गणाये कहा सेआती है??
सामन्यत मानना है कि जब जीव के मिथ्यात्व और कषाय रूप परिणाम होते है तब लोक की समस्त कार्मण वर्गणाये आकर्षित  होकर आती है किन्तु वास्तव में ये कार्मण वर्गणाये  आत्म प्रदेशों में पहिले  ही विध्यमान रहती है जीव के  कर्म आस्रव रूप  के परिणाम  की   प्रतीक्षा करती है!  सैद्धांतिक शब्द इसके लिए विस्रसोपचय  है !ऐसा विस्रसोपचय हमारे आपके         आत्मप्रदेशों  में पहिले से बैठा है !  विस्रसोपचय  ,जैसे हमारे परिणाम होते है तद्रूप परिणमन करके आत्मा के साथ बंध जाता है !
पुद्गल की कौन सी वर्गणा कर्म रूप परिणमन करती है ?
पुद्गल की  कार्मण वर्गणा ,कर्म रूप  परिणमन करती है !अन्य वर्गणाए कर्म रूप परिणमन नही करती !   
भावास्रव के भेद -
 मिथ्यात्व,विरति,प्रमाद,योग,क्रोधादि (कषाय ) पहिले अर्थात भावस्रव के क्रमश: ,,१५, और भेद है !
मिथ्यात्व- विपरीत अभिप्राय अथवा को मिथ्यात्व कहते है -सच्चे देव शास्त्र गुरु को नही पहिचानने ,सात तत्वों नव पदार्थों का आगमानुसार श्रद्धान नही करना,स्व-पर का भेद ज्ञान नही होना,मिथ्यात्व है !मिथ्यात्व के भेद है-
-एकांत मिथ्यात्व -वस्तु तत्व का कथन अनेकान्तमय है अर्थात वस्तु में अनेक धर्म पाये जाते है उनमे से किसी एक ही धर्म को स्वीकार करना एकांत मिथ्यात्व है !
-विपरीत मिथ्यात्व- वस्तु के वास्तविक स्वरुप को नही मानकर उससे विपरीत स्वरुप को मानना,विपरीत मिथ्यात्व है -
-विनय मिथ्यात्व -सच्चे देवशास्त्र गुरु का विवेक नही होने से अन्य धर्मों के गुरु ,शास्त्रो और देवों की एक समान विनय करना ,विनय मिथ्यात्व है !हमे पूजा नव देवताओं -पंच परमेष्ठी,जिनबिम्ब, जिनचैत्यालय, जिनधर्म, और जिनागम की ही करनी चाहिए किन्तु बहुत से लोग विवेक के अभाव में अन्य देवी देवताओं की पूजा में लगे रहते है !यह अनंत संसार का कारण ,विनय मिथ्यात्व है!इको त्याग कर हमें सच्चे देव शास्त्र गुरु के स्वूप को जानकर उनका ही दृढ श्रद्धानपूर्वक आश्रय लेना चाहिए
-संशय मिथ्यात्व- जिनेन्द्र देव द्वारा प्रणीत जैनागम के सच्चे शास्त्रो में जो लिखा है वह वैसा है या नही ,इस प्रकार जिनवाणी पर संशय करना संशय मिथ्यात्व है !जैसे नन्दीश्वर द्वीप,पंचमेरु है या नही ,स्वर्ग नरक है या नही ,इस प्रकार के मन में विचार आना ,संशय मिथ्यात्व है !
- ज्ञान मिथ्यात्व- धर्म को जानने की कोशिश ही नही करना !ऐसे विचार करना कि इसे जानने से क्या लाभ है अत: इसे क्यों जाने !हमारे को तो वही बात रुचिकर है जिनसे अर्थ की प्राप्ति होती है !धर्म को व्यर्थ समझना ,अज्ञान मिथ्यात्व है !
इन पांचो मिथ्यात्व को हमें तुरंत त्यागना चाहिए जिससे अपना आध्यात्मिक उत्थान हो सके!
अविरति और उसके भेद -
अविरति का अर्थ है पाप कार्यों में प्रवृत रहना अथवा उनको नही त्यागना !यहाँ आचार नेमीचंद जी ने अविरति के भेद कहे है किन्तु सामन्यत:१२ भेद होते है !
हिंसा ,झूठ ,चोरी ,कुशील और परिग्रह ,इन पांच पापों को नही त्यागना अविरति के भेद है !यदि इन पापों को हम नही त्यागेंगे तो हमारे पाप रूप परिणामों से कर्मों का आस्रव निरंतर होता रहेगा!
अविरति के १२ भेद है- पंच इन्द्रियों और मन को वश में नही रखना तथा षट काय जीवों की रक्षा नही करना !व्रतां में पांच इन्द्रिय और मन हमारे वश में नही रहता !हम आगम के अनुसार विचार किये बिना; जो अच्छा लगता है उसको स्पर्श करते है,खाते है,सूघते है ,देखते है,सुनते है ! बिलकुल नही विचार करते कि हमे किन को स्पर्श नही करना है ,किसका सेवन नही करना है ,किसको सूंघना नही है ,किसको देखना व् सुन्ना नही है !
दूसरा हमे कायों -पांच स्थावर ;पृथ्वीकायिक ,जलकायिक ,अग्निकायिक ,वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों तथा त्रस जीवों की रक्षा करनी चाहिए ,यदि नही करते तो यह १२ अविरति में प्रवृत रहते है ! जिससे इनकी हिंसा होकर अविरति होती है और पाप कर्मों का आस्रव होकर कर्म बंधते है !पांच पापों को नही त्यागना;पंच इन्द्रियों तथा मन को वष में नही करना,तथा कयोन के जीवों की रक्षा नही करना ,अविरति है जो की भावस्रव का कारण है !
प्रमाद और उसके भेद-
आचर्य पूजपाद स्वामी जी लिखते है ' कुशलेषु अनाद्रप प्रमाद:'अर्थात आत्म कल्याण के कार्यों में उत्साह नही होना प्रमाद है!वर्तमान में हम सभी में यह विध्यमान है!इसके कारण भावस्रव होता है -
प्रमाद के १५ भेद है-
- चार प्रकार की वि कथाये करना -स्त्री कथा,राज कथा ,चौर्य कथा ,भोजन कथा ,ये विकथाए है !- चार प्रकार की कषाये-क्रोध,मान,माए ,लोभ !-पांच इन्द्रियों के विषय में प्रवृत रहना !अर्थात इन्द्रियों पर नियंत्रण नही होना !- निंद्रा - स्नेह,इस प्रकार १५ प्रमाद के भेद है !इन प्रमादों से पूर्णतया नही बचा जा सकता है किन्तु उउनसे बचने में पुरुषार्थ तो कर ही सकते है ! विकथाये -स्त्री कथा ,राज कथा ,चौर्य कथा,भोजन कथा आदि हम त्यागए अथवा न्यूनतम करे !अनावश्यक रूप से राग-द्वेष में क्यों प्रवृत्त रहे !तीव्र कषायों को से मंद कर सकते है !विभिन्न रूप परिस्थितियों में कषाय रूप परिणाम नही होने दे !पंचइन्द्रिय विषयों से अपने को दूर किया जा सकता है !मनुष्य पर्याय को अच्छे आत्म कल्याण के कार्यों में निंद्रा कम लेकर ,अधिकतम उपलब्ध समय तक लगा सकते है!स्नेह अर्थात राग रूप प्रवृत्ति कम कर सकते है ! इन प्रमादों को न्यूनत्तम कर कर्मों के आस्रव को न्यूनत्तम कर सकते है !
योग- मन,वचन ,काय के क्रिया के निमित्त से जो आत्म प्रदेशों में हल-चल , परिस्पंदन (vibration )होता है,उसे योग कहते है ! सूत्र दिया है 'कायवाड्गं मनःकर्म योग:'इससे कर्मों का आस्रव होता है !मन,वचन काय की क्रियाओं को न्यूनत्तम कर कर्मों का आस्रव को न्यूनतम करना चाहिए !
आचार्यों ने योग के के १५ भेद भी कहे है-
- मनोयोग के चार - सत मनोयोग असत् मनोयोग,उभय मनोयोग और अनुभय मनोयोग !
- वचन योग के चार - सत् वचन योग,असत् वचन योग ,उभय वचन योग अनुभय वचन योग 
- काय योग के सात -औदारिक काय योग,औदारिक मिश्र काययोग ,वैक्रयिक काय योग ,वैक्रयिक मिश्र काय योग,आहारक काय योग ,आहारक मिश्र काययोग और कार्मण काय योग
कषाय उसके भेद - जो आत्मा को कृष -कस्ता है उसे कषाय कहते है !आचार्य ने यहाँ कषाय के चार भेद क्रोध-गुस्सा करना ,मान-घमंड करना ,,माया-मायाचारी करना , और लोभ-परिग्रहों की वांच्छा करना लोभ है, कहे है !
विस्तार रूप से आचार्यों ने कषाय के २५ भेद ;१६ कषाय -क्रोध ,मान ,माया ,लोभ में प्रत्येक के चार चार अनंतानुबंधी ,अप्रत्यख्यानावरण ,प्रत्यख्यानावरण ,संज्वलन तथा नोकषाय -हास्य, रति,अरति,शोक भय, जुगुप्सा पुरुष वेद ,स्त्री वेद,नपुंसक वेद भी किये है !इन २५ कषायों में निरंतर हमारी प्रवृत्ति रहती है ,इनको न्यूनत्तम करना चाहिए!आत्मा में भावास्रव की प्रमुखता, मिथ्यात्व और इन कषायों की है !किन्तु हम इनसे बचने का कोई पुरुषार्थ नही करते !इनसे नही बचेंगे तो कर्मों के आस्रव से नही बच सकते !
भावास्रव के ३२ भेद;किये है -अन्य आचार्यों ने विस्तार से भावास्रव के ५७ भेद ;मिथ्यत्व-,अविरति -१२,प्रमाद -१५ ,कषाय २५, योग १५ कहे है !प्रमाद को कषाय में गर्भित करने से मिथ्यात्व - ,अविरति १२,कषाय-२५,योग १५ =५७ भेद है इन ५७ आत्मा के परिणामों से कर्मों का आस्रव होता है !
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