भाव संग्रह
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भाव संग्रह 

 आचर्यवर्य श्री  देवसेन  द्वारा विरचित 

पंडित लाला राम शस्त्री द्वारा निर्मित हिंदी भासघा टीका सहित 

प्रकाशक-हीरालाल मणिक लाल  गांधी 

आर्यिका सुमतिमती दिगंबर जैन ग्रन्थमाला सोला पुर ,महाराष्ट्र !

प्रस्तवनाकार उपाध्याय मुनिश्री १०८ कनकनन्दी महाराज 



वन्दे शान्ति जिनेन्द्र श्री जिन  भक्त 'सामंतभद्र' च !



वन्दे शांतिपयोधिं  रत्नत्रय लब्धये भक्त्या! 
अर्थ - मैं रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु श्री शांतिनाथ जिनेंद्र्देव,परम जिन  भक्त  समन्तभद्र स्वामी की और आचार्यश्री शान्तिसागर की  वंदना करता हूँ!
आचार्य विरचित मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा -
णमिय सुरसेणणुयं  मुणिगणहरवन्दियं महावीरं !
वोच्छामि भावसंगह  मिणमो  भववप्पहोट्टं॥१॥ 
'प्रणम्य सुरसेननुतं मुनिगणधरवंदितं महावीरं !
वक्ष्ये भावसंग्रहमेतं भव्य प्रबोधनार्थम् ॥१॥   
अर्थ- जो महावीरस्वामी; इन्द्रो,मुणिगणों और गणधर देवों द्वारा वंदनीय है उनकी मै (देवसेन आचार्य) नमस्कार कर ,भव्य जीवों के आत्मज्ञान की प्राप्ति  के लिए भाव संग्रह ग्रन्थ की रचना करता हूँ !
जीवस्स हुंती भावा जीवा पुण दुबिह भेयसंजुत्ता !
मुक्ता पुण संसारी ,मुक्ता सिद्धा  णिरवलेवा॥२॥
जीवस्य भवन्ति भावा ,जीवा:पुनर्द्विबिधभेदसंयुक्ता !
मुक्ता पुन: संसारिणो ,मुक्ता:सिद्धा निरवलेपा:!!२!!
अर्थ - सब जीवों  के भाव होते है !(अन्य अजीवादिक पदार्थों के भाव नही होते है ) !जावों के दो भेद संसारी और मुक्त होते है! मुक्त सिद्ध जीव राग द्वेष ,मोह आदि विकारों से रहित होते है ! (ऐसे समस्त कर्मों से मुक्त  सिद्धों को सिद्ध परमेष्ठी कहते है !) 
लोयग्गसिहरवासी केवल णाणेण मुणिय तइलोया ।
असरीरा गइरहिया सुणिच्चला सुद्धभावट्ठा॥३॥
लोकाग्र शिखरवासिन: केवलज्ञानेन  ज्ञात्त्रिलोका:!
अशरीरा गतिरहिता:सुनिश्चला:शुद्धभावस्था:॥३॥

अर्थ -वे (मुक्त जीव) लोक के शिखर पर विराजमान होकर केवलज्ञान द्वारा त्रिलोक को(एक ही समय मे) साक्षात जानते/देखते  हैं।वे शरीर रहित,गति(चतुर्गतियो के परिभ्रमण) रहित,अत्यंत निश्चल(स्थिर) तथा (अपनी आत्मा के) शुद्ध भावो मे लीन रहते है।

जे संसारी जीवा चउगइपज्जायपरिणया णिच्चं।
ते परिणामे गिणहदि सुहासुहे कम्भसंगहणे ४॥
ये संसारिणे जीवाश्चचतु्र्गतिपर्यायपरिणता नित्यं।
ते परिणामान् गृहन्ति शुभाशुभान् कर्म-संग्रहणे॥४॥

अर्थ-जो जीव सदैव चारो(देव,मनुष्य,तिर्यंच,नारकी ) गतियों की पर्यायों में परिणत रहते है वे संसारी जीव कहलाते है !उनके शुभ और अशुभ परिणामों से समस्त कर्मों का संग्रह होता है !

भावेण कुणइ पावं पुण्ण भावेण तहय मुक्खं  बा।
इयमंतर णाऊण जं सेयं तं समायरहं॥५॥
भावेन करोति पापं पुण्यं भावेन तथा  च मोक्षं वा !
इत्यन्तरम ज्ञात्वा यच्छयेस्तम् समाचरत!!५!

अर्थ-यह जीव अपने भावो (परिणामों) से पापोपार्जन और पुण्योपार्जन करता हैै तथा भावों से ही मोक्ष प्राप्त करता है।इस प्रकार हे भव्य जीव! (भावों) मे इतना अंतर जानकर जो  (आत्मा) के लिये कल्याणकारी परिणाम है उनका ही आश्रय ले।

भावार्थ-शुभ और अशुभ भाव जीव के अपने आधीन है !जीव किसी को मारने रूप अशुभ भाव अथवा उस की रक्षा करने रूप शुभ भाव  कर सकता है,दोनों उसके आधीन हैं!आत्मा का कल्याण जीवों की रक्षा करने के भावों में है तथा मारने के भावों से पापोपार्जन होता है!यही समझकर भव्य जीवों को पाप रूप अशुभ भावों को त्यागना चाहिए और रक्षा करने रूप शुभ भावों का  धारण करना चाहिए !हिंसा,झूठ ,चोरी ,कुशील और परिग्रह रूप पांच पापों को करने से जीव नरक में उत्पन्न होता है! स्वयभूरमण सागर में वास करने वाला तंदुल मत्स्य  इन पंच पापो से कोई पाप नही करता किन्तु जीवों की हिंसा करने के भाव रखता है जिससे वह सप्तम नरक जाता है !अत: पांचों पापों के करने के भाव नही रखने चाहिए! पाप और पुण्य कर्मों का बंध भावों से होता है!अत:संसारी जीवों को नरक के दुखों से बचने के  लिए पाप रूप अशुभ भावों का त्याग ही आत्मा के लिए कल्याणकारी है !

सेवो सुद्धो भावो  तस्सुवलंभोय होइ गुणठाणे।
पणदहपमादरहिए सयलवि चारित्तजुत्तस्स॥६॥
सेव्यः सुद्धो भावःतस्योपलंभश्च भवति गुणस्थाने।
पंचदशप्रमादरहिते सकलस्यापि चारित्रयुक्तस्य॥६॥

अर्थ- शुद्ध भाव ही सेवा/ धारण करने योग्य है!उससे १५ प्रमादो से रहित,सकल चारित्र  युक्त ७ वे अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती (महामुनि) लाभान्वित होते है/धारण करते है !

भावार्थ-अशुभभाव नरकादि  कुगतियों के तथा शुभभाव देवादि शुभ गतियों के कर्म बंध के कारण होने से त्याज् हैै।शुद्धभाव ही उपादेय है  क्योकि उनसे कर्मबंध तोड़कर जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती है।शुभ भाव श्रेणी आऱोहरण करने वाले सकल चारित्रयुक्त १५ प्रमाद रहित,अप्रमत्त  गुणस्थानवर्ती निर्गरन्थ महामुनिराज के ही होता है।इसलिए मोक्ष का कारण नि॓र्गन्थ लिंग ही है।अन्य अवस्था मे मोक्ष  नही है।
  

सेसा जे बे भावा सुहासुहा पुण्णपाव संजयणया।
ते पंचभाव मिस्सा होंति गुणट्ठाणमासेज्ज॥७॥
शेषौ यौ द्वौ भावौ शुभाशुभौ पुण्यपापसंजनकौ।
तौ  पंचभावमिश्रौ भवतो गुणस्थानमाश्रित्य॥७॥


अर्थ-शेष(शुद्धभाव को छोड़कर) दोनो शुभ और अशुभ भाव (क्रमश) पुण्य और पाप को संजोने अर्थात उत्पन्न करने वाले हैं।वे पांचो भाव (शुभ और अशुभ) मिलकर गुणस्थान के आश्रय से रहते है।

अउदइउ परिणामउ खय उवसमिउ तहा उवसमो खइओ।
एए पंच पहाणा भावा जीवाण होंति जियलोए॥८॥
औदयिकः,परिणामिकः,क्षयोपशमिकस्तथौपशमिकःक्षायिकः
एते पंच प्रधाना भावा जांवानां भवन्ति जीवलोके॥८॥

अर्थ-औदयिक,परिणामिक ,क्षयोपशमिक,औपशमिक और क्षायिक ये ५ प्रधान भाव लोक मे समस्त जीवो के होतॆ है।

भावार्थ- लोक में जीवों के कर्मो के; उदय,उपशम,क्षयोपशम,क्षय होने से क्रमशः औदयिक,औपशमिक, क्षयोपश मिक और क्षायिक भाव होते है!जीव के इन्ही भावो में,शुभ,अशुभ और शुद्ध भावों के अनुसार चौदह गुणस्थान बन जाते है !

तेचिय पज्जाय गया चउदहगुणठाण णामगा भणिया।
लहिऊण उदय उवसम खयउवसम खउ हु कम्मष्स॥९॥
ते चैव पर्यायगताश्चतुर्दशगुणस्थाननामका भणिताः।
लब्ध्वा उदयमुपशमं क्षयोपशमं क्षयं हि कर्मणः॥९॥


अर्थ- कर्मो के ही उदय/उपशम/क्षयोपशम/क्षय होने पर वे (शुभ अशुभ और शुद्ध भाव-परिणाम) अनेक पर्यायो को प्राप्त कर, चौदह गुणस्थान,के नाम से कहे जाते हैं।

भावार्थ--जीव के कर्मौ के उदय से औदयिक,उपशम से औपशमिक,क्षयोपशम से क्षायोपशमिक.और क्षय से क्षायिक भाव होते हैं।इन्ही .शुभ,अशुभ और शुद्ध भावो के मिलने से चौदहगुणस्थान हो जाते है।

गुणस्थान  के  भेद -

मिच्छो  सासण मिस्सो अविरिय सम्मो  य देसविरदो  य!
विरओ पमत्त इयरो अपुव्व आणियत्ती  सुहमो  य !१०!!
उवसांत खीनण मोहो  सजोइ केवलि जिणो  अजोगी  य !
ए  चउदस  गुण ठाणा  कमेण  सिद्धा य णायव्वा !!११!!
[b]अर्थ-मिथ्यात्व,सासादन,मिश्र,अविरतसम्यग्दृष्टि,देशविरत या विरतविरत,प्रमत्त,विपरीत या अप्रमत्तविरत,अपूर्व करण,अनिवृत्तिकरण,सूक्ष्म साम्पराय,उपशांत मोह,क्षीणमोह,योगकेवली और अयोगकेवली,चौदह  गुणस्थान  क्रमश: बन जाते है!जीव जो समस्त कर्मों का क्षय करलेते है वे सिद्ध /मुक्त कहलाते है! [/b]
चौदह गुणस्थानो का स्वरुप-
१-मिथ्यात्व गुणस्थानो का स्वरुप-  
मिच्छ्त्त सुदाएण य जीवे सम्भवइ उदइयो भावो !
तेण य मिच्छदिट्ठी ठाणं पावेइ  सो तइया !!१२!! 
अर्थ- मिथ्यात्व कर्म के उदय से जीव के औदयिक भाव प्रगट होते हैं तथा उन से जीव का मिथ्यादृष्टिगुण स्थान प्राप्त होता है! 
भावार्थ-अष्ट कर्मो में प्रबलतम २८ भेदौ वाला मोहनीय कर्म है! उसके मूलत:,दर्शनमोहनीय और चारित्रमोह नीय दो भेद है!दर्शनमोहनीय के मिथ्यात्व,सम्यकमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति  तीन तथा चरित्र मोहनीय के  १६;अनंतानुबंधी ,अप्रत्याख्यान,प्रत्याख्यान और संज्वलन  प्रत्येक  क्रोध ,मान,माया लोभ  के +,नोकर्म  ९,;हास्य,रति,अरति,भय,शोक,जुगुप्सा,पुरुषवेद ,स्त्रीवेद,नपुंसकवेद भेद है !
अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के दर्शनमोहनीय के एक मिथ्यात्वकर्म का और सादि मिथ्यादृष्टि के तीनों प्रकृतियों का उदय रहता है क्योकि प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व होते ही मिथ्यात्व कर्म;मिथ्यात्व,सम्यकमिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति में  विभक्त जाता है जो  कि  इससे पूर्व एक मिथ्यात्व रूप ही रहता है!इसलिए अनादि मिथ्या दृष्टि जीव के मिथ्या कर्म का उदय रहता है और उसका प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है ! 
  मिथ्यात्व कर्म के उदय  में जीव के भाव-
मिच्छत्तरस पउत्तो जीवो विवरीय दंसणो होई !
ण मुणइ हियंच अहियं पित्तज्जुरजुओ जहा पुरिसो!!१३!!
अर्थ-उस मिथ्यात्वकर्म के उदय होने से यह जीव की  विपरीत दृष्टि/ अर्थात जीव को तत्वों का विपरीत श्रद्धांन  हो जाता है और पित्तज्वर रोगी के समान अपने हित अहित को नही जान सकता है ! 
वह पुरूष कड्वे पदार्थ को मीठा  और मीठे को कडवा कहता है,इसी प्रकार मिथ्यात्व मे प्रवृत्त जीव उत्तम धर्म मे रुचि नही रखता जिससे उसका आत्म कल्याण नही हो सकता (गाथा-१४) 

श्रद्धान-दर्शन अथवा दृष्टि का अर्थ श्रद्धान है !श्रद्धान के २  भेद!
 १-सम्यक् श्रद्धान-सम्यक श्रद्धान आत्मा का गुण  है 
२- मिथ्याश्रद्धान-जीव को मिथ्यात्व कर्म के उदय में विपरीत श्रद्धान  हो जाता है,यही मिथ्या श्रद्धान कहलाता है! जैसे  धतूरा ,मद्य और कोंदों  की मधुरता के मोह से मोहित हुआ जीव अपना
 हित  और अहित योग्य कार्यों को नही जानता ,उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव का विपरीत श्रद्धांन होने के कारण अपने आत्मा के स्वरुप तथा समस्त तत्वों के स्वरुप से अनभिज्ञ रहता है,अत: वह अपने आत्मा के  कल्याण करने में असमर्थ रहता है !
मिथ्यात्व के भेद-
तं पि हु पंचपयार वियरो एयंत विणय संजुत्तं।
सं सय अण्णाणगयं विवरीओ होइ पुण बंभो॥१६॥

अर्थ -वह मिथ्यात्व;विपरीत,एकांत,विनय ,संशय  और अज्ञान ,पांच प्रकार  का है !फिर ब्रह्म मत विपरीत मिथ्यात्व है !
जल से आत्मा की शुद्धि मानना मिथ्यात्व है - 
मण्णइ जलेण सुद्धि तित्तिं मंसेण पिसरवग्गसस्स।
पसुकयवहेण सागं धम्मं गोजोणिफासेण॥१७॥

अर्थ- जो लोग जल स्नान से आत्मशुद्धि मानते है,मांस भक्षण से पितृ वर्ग की तृप्ति मानते हैं,पशुओं के वध करने या होम करने में स्वर्ग की प्राप्ति मानते हैऔर गाय की योनि का स्पर्श करने से धर्म की प्राप्ति मानते है,
इन सब में धर्म की विपरीतता निम्न गाथाओं से स्पष्ट है -
जइ जलण्हाणपउत्ता जीवा मुच्चेइ णिययपावेण।
तो तत्थ वसिय जलयरा सव्वे पावंति दिवलोयं॥१८॥

अर्थ-यदि जलस्नान करने से ही जीव अपने पापो से मुक्त हो जाते तब जल में निवास करने वाले समस्त जलचर जीवों को स्वर्ग की प्राप्ति होनी चाहिए !
भावार्थ-स्वर्ग की प्राप्ति जप,तप ,ध्यान द्वारा पापों को नष्ट करने से होती है !जिस तीर्थ स्नान में लोग स्वर्ग की प्राप्ति मानते है उसी तीर्थ में अरबों-खरबों मत्स्य,मच्छली,कच्छप,आदि जलचर जीव एक दुसरे का भक्षण करते हुए रहते है जिससे वे महा पापोपार्जन करते है !यदि तीर्थ स्नान से ही पापो से निवृत्ति मानी जाय तो उन सभी जलचरों को स्वर्ग प्राप्ति होनी चाहिए किन्तु यह असम्भव है!अत: जल स्नान से,पापों से आत्मा की शुद्धि मानना विपरीत श्रद्धान् है!बहुदा गंगा के किनारे बहुत से लोग माला से  जप करते है और साथ साथ मच्छली मारने के लिए वंशी डालते देखे जाते है !वे इस तीर्थस्थान पर स्नान और जप करते हुए भी मच्छली मारने के महापाप उत्पन्न करते है !
तीर्थ  स्नान से पाप क्यों नही नष्ट होते?-
जं कम्मं दिढ़वद्धं जीव पएसहि तिविहजोएण !
तं जलफासणिमित्ते कह फहहि तीथण्हाणेण॥१७॥      

अर्थ-जो कर्म जीव के प्रदेशों से त्रिविध;मन,वचन,काय योगो से  दृढ़तापूर्वक बंधे है वे तीर्थ में स्नान कर मात्र जल के स्पर्श के निमित्त से कैस छुट सकते है?
भावार्थ- जीवो के कर्मों का बंध योग और कषायों के निमित्त से ही होता है इसलिए ये योगो के निग्रह और कषायों के त्याग से ही छूट सकते है,केवल स्नान के द्वारा जल के स्पर्श मात्र से कर्मों का छूटना असम्भव है!कर्मों के और कर्मों सहित आत्मा के प्रदेश अत्यंत सूक्ष्म है वे जल से स्पर्शित हो ही नही सकते फिर जल के स्पर्श से आत्म शुद्धि त्रिकाल में हो ही नही सकती! 
मलिणो देहो  णिच्चं देहि पुण णिम्मलो सया रूवी !
को इह जलेण सुज्झइ तम्हा ण्हाणेण णहि सुद्धी !!२०!!

अर्थ-मलीन (मल मूत्र से भरी,रजोवीर्य से उत्पन्न,रुधिर,मांस आदि घृणित वस्तुमय)शरीर में नित्य निर्मल, अरूपी आत्मा रहता है!इस जल के स्नान से किस की शुद्धि होती है?
आत्मा की शुद्धि नही हो सकती क्योकि वह अरूपी है और देह; रुधिर,मांस मय सप्त धातुओं से निर्मित   अशुद्ध ही है इसलिए उसकी भी शुद्धि नही हो सकती ! 
नोट -गीता में भी उल्लेख है कि शरीर अत्यंत मलीन और आत्मा अत्यंत निर्मल है !आत्मा और शरीर ,दोनों में महान अंतर है!फिर तीर्थ स्नान से किसकी शुद्धि सकती  है? अर्थात किसी की नही !(अत्यंत मलिनो देहो देही चत्यांत निर्मल:!उभयोरन्तर  दृष्ट्वा शौचं  विधीयते !
 आगे लिखा है कि, यह चित अंतरंग मे अत्यंत दृष्ट है इसलिये वह तीर्थ स्नान से कभी शुद्ध नही हो सकता। जिस प्रकार मद्य़ से भरा घड़ा,सौ बार जल से धोने पर भी  सदा अशुद्ध ही रहता है,शुद्ध नही हो सकता उसी प्रकार मलीन हृदय तीर्थ स्नान से पवित्र नही हो सकता।

आत्मा की  शुद्धि का उपाय- 
सुज्झइ जीवो तवसा इंदियखल णिग्गहेण परमेण।
रयणतयसंजुत्तो जह कणयं अग्गिजोएण॥२१॥
शुद्धयति जीवस्तपसा इन्द्रियखल निग्रहेन परमेण।
रत्नत्रय संयुक्तो यथा कनकं अग्नियोगेन॥२१॥  

अर्थ -जिस प्रकार अग्नि के संयोग से स्वर्ण शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार रत्नत्रय से युक्त,जीव /आत्मा तपश्चरण एवं इन्द्रियों के परम निग्रह करने से ही शुद्ध होता है!
भावार्थ-तीर्थ स्नानों से आत्मा कभी शुद्ध नही होता!पुरुष के लिये मन की विशुद्धि होना,वचनों का संयम होना एवं मौन धारण करना ,इन्द्रियों का निग्रह करना,तपश्चरण करना; तीर्थ है! ये शरीर जन्यतीर्थ है जो मोक्ष मार्ग को दिखाते है ! 
तीर्थ स्नान से आत्मा की शुद्धि मानने वाले जीव अपनी जड बुद्धि के कारण तुच्छ पुरुष है,उन्हें  चौरासी लाख (नित्य निगोद,इतरनिगोद,पृथिवकायिक,जलकायिक अग्निकायिक,और वायुकायिक,प्रत्येक की  की ७-७ लाख वनस्पतिकायिक की दस लाख,द्वी,त्रि और चतुरिंद्रिय प्रत्येक की  २-२ लाख, देवों ,नारकियों पंचेन्द्रिय तिर्यन्चों प्रत्येक की ४- ४ लाख और  मनुष्यों की १४ लाख) योनियों में निरंतर परिभ्रमण करना पड़ता है!गाथा-२२ 
जे तियरमणासत्ता विसयपमत्ता कसायरसविसिया।
एहंता वि ते ण शुद्धा गिहवावारेसु वंदृता॥२३॥

अर्थ-जो जीव  स्त्री भोगो में सदैव आसक्त रहते है,विषय भोगो में प्रमत्त /लीन है,कषायों(क्रोध ,मान, माया,लोभ) के वशीभूत रहते है,वर्तमान में गृह व्यापार में लीन  रहते है,ऐसे पुरुष स्नानमात्र से कभी शुद्ध नही हो सकते
सवस्सेण ण लित्ता मायापउरा य जायणसीला।
किं कुणइ तेसु ण्हाणां अव्भंतर गहिय पावाणाम॥२४॥
सर्ववस्तुना न तृप्ता माया प्रचुराश्च याचनाशीलाः।
किं करोति तेषां स्नानमभ्यन्तर गृहीत पापानाम्॥२४॥           
शब्दार्थ -

अर्थ-जिनको  समस्त वस्तुओं का दान देने पर भी वे  तृप्त नही हो,माया चारी में प्रवृत्त रहे, सदा याचना करते रहे  और जिन्होंने आत्मा/अभ्यंतर  में अनेक पाप संग्रह कर रखे  है,ऐसे लोगो की शुद्धि स्नान से कैसे हो सकती है,अर्थात नही हो सकती !
भावार्थ-बिना छाने जल से  स्नान करने से,उसमे विद्यमान समस्त सूक्ष्म त्रस और जलकायिक स्थावर जीवों का घात होता है !इसके अतिरिक्त जिस भूमि पर वह जल  गिरता है वहां की मिटटी और जल के  संयोग से जीव उत्पन्न होकर मर जाते है ! यद्यपि इस प्रकार स्नान  करने से बहुत जीवहिंसा होती है तथापि  अरिहंत देव के  अभिषेक पूजन  लिए सामग्री बनाने के लिए एवं मुनियों(सुपात्रों ) के आहार दान के  लिए छाने  हुए पानी से स्नान करने का विधान है !गृ हस्थों को समस्त कार्यों में छाने जल का प्रयोग अपेक्षित है !
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