तत्वार्थ सूत्र - अध्याय १ सूत्र २१-सूत्र ३३
#1

भव प्रत्ययोऽर्वधिर्देव नारकाणाम्-२१

संधि विच्छेद-
भव प्रत्ययो:+अवधि:+देव+नारकाणाम्
शब्दार्थ-भवप्रत्यय-भव प्रत्ययो (कारण),अवधि-अवधि ज्ञान ,देव +नारकाणाम्-देवों और नारकीयों को होता है !
अर्थ-देवों और नारकीयों को भव प्रत्यय(कारण) अवधिज्ञान होता है!
अवधिज्ञान के भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय दो भेद है ! भव प्रत्यय देव और नारकी के पर्याय के निमित्त से अवधि ज्ञानावरण के क्षयोपशम से और गुण प्रत्यय व्रत नियम आदि के द्वारा अवधि ज्ञानावरण के क्षोपशम के निमित्त से होता है !
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के भेद/स्वामी -
क्षयोपशम निमित्त: षड्विकल्प: शेषाणाम्-२२
अर्थ-वह (अवधिज्ञान ),क्षयोपशम-क्षयोपशम के,निमित्त:-निमित्त से षड्विकल्प:-छ:भेदो सहित,शेषाणाम्-शेष जीवों अर्थात तिर्यंच और मनुष्यो को होता है
 भावार्थ -क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान छ:भेदो वाला तिर्यंच और मनुष्यो को होता है!
अवधि ज्ञान -जो द्रव्य ,क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा अर्थात सीमा से युक्त अपने विषयभूत रुपी पदार्थ के ज्ञान को जाने वह  अवधि ज्ञान   है ! गुण  प्रत्यय अवधि ज्ञान के ३ भेद -देशावधि,परमावधि,सर्वावधि है !
देशावधि ज्ञान-देश का अर्थ सम्यक्त्व है,क्योकि वह संयम का अवयव है, जिस ज्ञान की अवधि/सीमा/मर्यादा हो वह देशावधि ज्ञान है ! 
१-देशावधि के  भेद- अनुगामी ,अननुगामी,वर्धमान,हीयमान,अवस्थित,अनवस्थित छ भेद है !
अनुगामी देशावधि  ज्ञान-जो अवधि ज्ञान सूर्य के भांति  दुसरे भवों  या क्षेत्रों  में जीव के  साथ बना रहे वह क्रमश:भवानुगामी और क्षेत्रानुगामी  अवधिज्ञान है और जो  अन्य भवों तथा क्षेत्रों में नहीं जाता वह भव  अननुगामी और क्षेत्र अननुगामी अवधिज्ञान है !
क्षेत्रभवानुगामी अवधिज्ञान -जो भरत ,ऐरावत और विदेह   आदि  क्षेत्रों में  तथा देव नारक मनुष्य और  तिर्यंच भव में भी साथ जाता है वह क्षेत्रभवानुगामी अवधिज्ञान है और जो इन क्षेत्रो और भवों में नहीं जाता वह शेत्रभव अननुगामी अवधिज्ञान है
 वर्धमान देशावधि ज्ञान- जो अवधि ज्ञान,शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा  की कलाओं के समान बढ़ता रहता है वर्धमान देशावधि ज्ञान है !
हीयमानदेशावधिज्ञान-जो अवधि ज्ञान कृष्ण पक्ष के चन्द्रमाँ की कलाओं के समान घटता रहता है वह हीयमान देशवधि ज्ञान है !
अवस्थितदेशावधिज्ञान-जो अवधि ज्ञान सूर्य या तिल के समान एक सा रहता है वह अवस्थितदेशावधिज्ञान है !
अनवस्थितदेशावधिज्ञान -जो अवधिज्ञान हवा से जल की तरंगो की तरह घटता बढ़ता है,एक समान नही रहता,अनवस्थित देशावधिज्ञान है!
२-परमावधि ज्ञान-परम अर्थात असंख्यात लोकमात्र संयम भेद ही जिस ज्ञान की  अवधि अर्थात मर्यादा है वह परमावधि  ज्ञान कहलाता है !
३- सर्वावधि ज्ञान - सर्व का अर्थ है केवलज्ञान ,उसका विषय जो जो अर्थ होता है ,वह भी उपचार से सर्व कहलाता है !सर्व अवधि अर्थात मर्यादा जिस ज्ञान की होती है वह सर्वावधि  ज्ञान है !
  देशावधि और परमावधि ज्ञान के जघन्य,उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट तीन तीन भेद है सर्वावधि ज्ञान का  एक ही भेद है! परमवधि और सर्वावधि  उसी भव से मोक्षगामी  दिगंबर तपस्वी जीवों के होते है !
मन:पर्यय ज्ञान के भेद -
ऋजुविपुलमति मन:पर्यय :-२३
अ र्थ -ऋजु मति  और विपुलमति मन: पर्यय  ज्ञान के भेद है !
ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान- त्रियोग की सरलता से स्पष्ट विचारे  गए दुसरे के मन में स्थित रुपी पदार्थ को जानने वाला ऋजुमति मन: पर्यय ज्ञान कहलाता  है!
विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान-दुसरे के मन में गूढ़ अथवा जटिल रूप में स्थित रुपी पदार्थों को जानने वाला विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान  कहलाता है !
ऋजुमति और विपुलमति मन: पर्यय  ज्ञान में अंतर -
विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेष:२४
संधि विच्छेद -विशुद्धि +अप्रतिपाता +आभ्याम् +तद्विशेष:
अर्थ -विशुद्धि और अप्रितिपात  से  उनमे (ऋजुमति और विपुलमति) में विशेषता है !
विशुद्धि-मन:पर्यय  ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में जो उज्जवलता होती है उसे विशुद्धि कहते है !
अप्रतिपाता -संयम परिणाम की वृद्धि होने से उसमे गिरावट नहीं होना अप्रतिपात कहलाता है !
ऋजुमति से विपुलमति अधिक विशुद्ध होता है!तथा जुमति मन:पर्यय  ज्ञान होकर छूट भी सकता है किन्तु विपुलमति मन:पर्यय  ज्ञान केवल ज्ञान होने तक बराबर बना रहता है !
अवधि और मन:पर्यय ज्ञान में अंतर -
विशुद्धि क्षेत्र स्वामि विषयेभ्योऽवधि मन:पर्ययो:-२५ 
विशुद्धि+ क्षेत्र+ स्वामि+ विषय+इ भ्यो+अवधि +मन:पर्ययो:
अर्थ-अवधि और मन: पर्यय ज्ञान में; विशुद्धि ,क्षेत्र , स्वामी और विषय की अपेक्षा विशेषता होती है!
विशुद्धि -परिणामों की उज्ज्वलता है,क्षेत्र-जहाँ वस्तु स्थित है वह उसका क्षेत्र है,स्वामी--जिसकी वस्तु है वह उसका स्वामी है !क्षेत्र में स्थित ज्ञेय पदार्थ विषय है इभ्य :- अपेक्षा  से अवधि +मन:पर्यय में  विशेषता,है 

अवधिज्ञान अपेक्षाकृत कम विशुद्ध , बड़ा क्षेत्र (तीनो लोक) अधिक स्वामी औ र स्थूल विश्वान होता है!किन्तु मन:पर्यय ज्ञान विशुद्ध ,अल्पस्वामी,और सूक्ष्म विषयवान है ! 
अवधिज्ञान से मन:पर्यय ज्ञान विशुद्धतर है क्योकि मन: पर्यय  ज्ञान का विषय सूक्ष्म है !अवधिज्ञान का क्षेत्र सर्वलोक है किन्तु मन:पर्यय ज्ञान का क्षेत्र ढाई द्वीप(४५लाख योजन प्रमाण) ही है!मन:पर्यय ज्ञान प्रमत्त से क्षीणकषाय गुणस्थान तक उत्कृष्ट चारित्र गुणों से युक्त दिगंबर मुनिराज के ही पाया जाता है किन्तु अवधि ज्ञान चारो गतियों के जीवों के पाया जाता है !
मतिज्ञान,श्रुतज्ञान,और अवधि ज्ञान  चौथे गुणस्थान से १२ वे  गुण स्थान तक के जीवों के होता है !
केवल ज्ञान १३ वे गुणस्थान से १४ वे गुणस्थानव्रती एवं सिद्ध भगवान के होता है 

मति और श्रुत ज्ञान के विषय का नियम  -
२६-मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्याय़ेषु !
संधि विच्छेद -मतियो +श्रुतयो:+निबन्ध: +द्रव्येषु +असर्वपर्याय़ेषु
शब्दार्थ-मतियो -मतिज्ञान,श्रुतयो:- श्रुतज्ञान,निबन्ध-: के विषय (सूत्र २५  से लिया गया है) का नियम, द्रव्येषु -सब द्रव्यों की,असर्वपर्याय़ेषु-(अनन्तानन्त पर्यायों में से )कुछ पर्यायों जानता है !
अर्थ- मति और श्रुत ज्ञान के विषय में नियम है कि वह सब द्रव्यों (जीव,पुद्गल,धर्म,अधर्म ,आकाश और काल ) में प्रत्येक की अनन्तान्त पर्यायों में से कुछ को ही जानता है !
अवधि ज्ञान के विषय का नियम-
२७-रुपिष्ववधे:
संधि विच्छेद -रुपिषु + अवधे :
शब्दार्थ-रुपिषु -रूपि,(पुद्गल), अवधे :-अवधि ज्ञान
अर्थ - अवधि ज्ञान के विषय का नियम है कि वह ,रुपी  पुद्गल की अनन्तान्त पर्यायों  में से कुछ को जानता है !
नोट -यहा विषय २५वे सूत्र से और निबंध:-नियम  व असर्वपर्याय़ेषु -सब पर्यायों में नही सूत्र २६ से ग्रहण किया है !
रुपी से अर्थ पुद्गल द्रव्य से है किन्तु इसमें कर्मों से बंधित संसारी  जीव द्रव्य  भी लेना है,शुद्ध मुक्त जीवद्रव्य को नही !
अवधिज्ञान जीव की पौद्गलिक  औपशमिक , और क्षयोपशमिक भाव रूप पर्याय को जानता है किन्तु मुक्त जीव और क्षायिक तथा पारिणामिक भाव को नही जानता
मन:पर्यय ज्ञान के विषय का नियम-
२८-तदनन्तभागे मनपर्यस्य
संधि विच्छेद -तत् +अंनतभागे +मन: पर्ययस्य
शब्दार्थ-तत्-उस (अवधिज्ञान),अंनतभागे-अनंतवभाग,मन: पर्ययस्य-मन: पर्यय ज्ञान है
अर्थ -मन: पर्यय ज्ञान के विषय में नियम है कि वह रुपी पुद्गल द्रव्य में  अवधिज्ञान के अनंतवे भाग को    कुच्छ पर्यायों तक जानता है !
नोट -१-यहा विषय २५वे सूत्र से और निबंध:-नियम  व असर्वपर्याय़ेषु -सब पर्यायों में नही सूत्र २६ से ग्रहण किया है !रुपी ,२७वे सूत्र से ग्रहण किया है !
२--रुपी पुद्गल द्रव्य में सर्वावधि ज्ञान का विषय सूक्ष्मत: परमाणु है!उसके अनन्त भाग करने पर उसके एक भागमें मन:पर्यय ज्ञान की प्रवृत्ति होती है !यह अति सूक्ष्म द्रव्य को जानता है!परमावधि के विषयभूत पुद्गल स्कंध के अनंतवे भागमय परमाणु को सर्वावधि ज्ञान; परमाणु के अनंतवे भाग को ऋजुमति और उसके  भी अनंतवे भाग को विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान जानता है !
जिज्ञासा-परमाणु को पुद्गल स्कंध का सूक्ष्मत: अविभाज्य खंड परिभाषित किया है ,फिर सर्वावधि और मन:पर्यय  ज्ञान के विषय उस परमाणु के अनंतवे ,और उसके भी अनंतवे भाग कैसे संभव है ?
समाधान-एक ही पुद्गल में स्पर्श,गंध,रस और  वर्ण आदि संबंधी अनन्तानन्त अविभागी प्रतिच्छेद होते है!उनके घटने बढ़ने की अपेक्षा अनंत से भाजित करना सम्भवहै,इसे :पर्यय ज्ञान जान लेता है !परन्तु इतना विशेष है कीएक परमाणु में विध्यमान  स्पर्शादि अनेक पर्यायों में सर्वावधि ,वर्तमान पर्याय को जानता है तथा मन:पर्यय वर्तमान ,अतीत और अनागत रूप अनेक पर्यायों को जानता है !अविभागी प्रतिच्छेद किसी गुण जैसे गंध ,स्पर्श ,रस,वर्ण  सूक्ष्मत इकाई है !
नोट-सभी सहधर्मी ,धर्मानुरागी भाइयों एवं बहिनो से  विनम्र निवेदन है कि तत्वार्थ सूत्र जी के सूत्रों के अर्थों समझकर उन्हें कंठस्थ करने का प्रयास कीजिये!आप सूत्रों में संस्कृत शब्दों का संधि विच्छेद कर उनके अर्थों को सरलता से समझकर कंठस्त करने में सफल निश्चय ही होंगे !
इस महान ग्रन्थ के पूर्ण होते होते आपके भाव विशुद्धि की चर्म सीमा का स्पर्शन करने लगेंगे जो कि आपके इह और पर लोक के आध्यात्मिक उत्थान एवं आत्मिक कल्याण में निमित्त प्रमाणित  होंगे !

केवलज्ञान के विषय का नियम:-
२९-सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य
संधि विच्छेद-सर्व+द्रव्य+पर्यायेषु+ केवलस्य
शब्दार्थ-सर्व-सभी (द्रव्य-द्रव्यों की, पर्यायेषु-पर्याय),  केवलस्य-केवल (ज्ञान के विषय का नियम है )
अर्थ -केवलज्ञान के  विषय का नियम है  ,वह  समस्त  द्रव्यों की, सभी (अनन्तान्त त्रिकालवर्ती ) पर्याय को युगपत् प्रत्यक्ष एक ही समय (काल) में जानता  है!
नोट -१-यहा विषय २५वे सूत्र से और निबंध:-नियम  सूत्र २६ से ग्रहण किया है!

२-जीव द्रव्य अनन्तानन्त है,पुद्गल द्रव्य के अनन्तानन्त गुणे है, अधर्म,धर्म और आकाश द्रव्य एक एक है ,काल के काल अणु  असंख्यात है!असंख्यात है !इन सभी द्रव्यों की अतीत,अनागत और वर्तमान रूप पृथक पृथक अनन्तान्त पर्याय है!उन सभी द्रव्यों और उनकी सभी पर्यायों को केवलज्ञान जानता है ! इसकी उत्कृष्तम विशुद्धि के कारण, इसमें  बिना इच्छा करे, स्वत: ही ज्ञेय  युगपत प्रत्यक्ष  प्रगट हो जाते है
केवल ज्ञान की सिद्धि-
लोक में जीवों में हीनाधिक ज्ञान देखा जाता है अत:किसी जीव में सम्पूर्ण ज्ञान भी हो सकता है !अत:केवल ज्ञान की पुष्टि अनुमान से  होती है !
केवल ज्ञान के पर्यायवाची-
केवल,परिपूर्ण,समग्र,असाधारण,निरपेक्ष,विशुद्ध,सर्भावव्यापक लोकालोक विषय अनंत पर्याय,अप्रतिम आदि है !
किसी जीव में एक साथ  सम्यग्ज्ञान कितने हो  सकते

३०-एकादिनी भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्भ्य:
संधि विच्छेद-
एका+आदिनी+ भाज्यानि +युगपत् एकस्मिन्न् आचतुर्भ्य:
शब्दार्थ-एका-एक से ,आदिनी-आदि/प्रारम्भ कर ,भाज्यानि-विभक्त करने योग्य हो सकते है, युगपत् -एक काल में एक साथ,एकस्मिन्न्-एक जीव/आत्मा  में,आ-लेकर ,चतुर्भ्य:-चार ज्ञान तक
अर्थ-एक जीव/आत्मा में एक काल में युगपत् एक साथ एक,दो,तीन अथवा चार ज्ञान हो सकते है !
भावार्थ-एक ज्ञान हो गया तो असहाय,क्षायिक  केवल ज्ञान होगा उसके साथ अन्य चारो क्षयोपशमिक ज्ञान नही हो सकते !दो होंगे तो मति और श्रुत ज्ञान होगा! तीन होंगे तो मतिश्रुत अवधि अथवा मति ,श्रुत मन:पर्यय ज्ञान होगा ,चार ज्ञान होंगे तो चार, क्षयोपशमिक   मति,श्रुत,अवधि और मन: पर्यय  ज्ञान होंगे !पाँचों ज्ञान एकसाथ नही हो सकते क्योकि चार क्षयोपशमिक है और एक क्षायिक क्रेवल ज्ञान  है !
जिज्ञासा १  -क्षयोपशमिक ज्ञान क्रमवर्ती होने से,एक  काल में,एक ही सकता है चारों ज्ञान युगपत कैसे सम्भव है ?
 समाधान-चारों मति,श्रुत,अवधि,मन:पर्यय ज्ञानावरण कर्म  के एक साथ  क्षयोपशम होने  से,चारों ज्ञानो संबंधी जानने की शक्ति रूप लब्धि तो एक काल में हो जाती है किन्तु उपयोग एक काल में एक ही होसकता है !एक ज्ञेय में उपयुक्त होने से उसकी स्थिति भी अन्तर्मुर्हूत की है ,बाद में उपयोग ज्ञेयान्तर हो जाता है!इस प्रकार लब्धि की अपेक्षा चार ज्ञान जीव में युगपत हो सकते है !
२- यदि ऐसा है तो उपयोग की अपेक्षा  भी एक काल में अनेक वस्तुओं का ज्ञान संभव है जैसे मिठाई  का भक्षण करते समय रूपादि,पांचों का ज्ञान एक साथ होता है;उसका रंग दिख रहा है,स्वाद भी ले रहे है,गंध,स्पर्श  भी जान रहे है,भक्षण करते समय शब्द  भी सुनते है !
समाधान-ऐसा नही है,मात्र उपयोग की शीघ्रता से हमे काल भेद ज्ञात नही होता है !जैसे नोट की गद्दी में सुई डालते समय काल भेद नही होता है !


मति श्रुत और अवधि ज्ञान में मिथ्यात्व-

मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च-३१
संधि विच्छेद  -
मति+श्रुत +अवधिय: +विपर्यय:+ च !
शब्दार्थ-मति+श्रुत +अवधिय मति ,श्रुत और अवधि ज्ञान ,विपर्यय -मिथ्या/विपरीत  च-भी होते है 
अर्थ -मति श्रुत ,अवधि ज्ञान सम्यक तो होते है किन्तु मिथ्या भी होते है !इन्हे क्रमश: कुमति,कुश्रुत और  कुअवधि (विभंगावधि) ज्ञान कहते है !
सूत्र में " च" का अभिप्राय १- ये(मति श्रुत और अवधि )ज्ञान मिथ्या भी होते है और तीसरे,मिश्रगुणस्थान में जीव के; मति श्रुत और अवधि ज्ञान सम्यक और मिथ्यात्व  दोनों रूप होते है !
२- इसके साथ संशय ,अनध्यवसाय  को भी ग्रहण करना है 
इन तीनो ज्ञान में; मिथ्यादर्शन के उदय में जीव के परिणाम मिथ्यात्व रूप होजाते है !उनके श्रद्धान   में विपरीतता होने से इसे एकता विपर्यय कहते  है !कुमति,कुश्रुत ज्ञान परोक्ष ज्ञान होने से इनमे तीनों; संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय   पाये जाते  है किन्तु कुअवधि ज्ञान प्रत्यक्ष होने से संशय नही होता !देशावधि ज्ञान में ही विपर्यय और अनध्यवसाय होता है !परमावधि  और सर्वावधि केवल सम्यग्दृष्टि के होने से विपरीतता रहित है !
अनध्यवसाय -वस्तु स्वरुप का  निर्णय करनी की आवश्यकता नही लगना अनध्यवसाय  !
उद्दाहरण - दो व्यक्तियों से अलग अलग पूछा जाए की  पुत्र किस का है ? यद्यपि दोनों का उत्तर होगा " पुत्र मेरा है " किन्तु सम्यग्दृष्टि का अभिप्राय होगा की क्योकि वह  उससे  उत्पन्न होने  से उसका है ,किन्तु  भेदज्ञान से  उसका अपना नही मानेगा   क्योकि पुत्र आदि सब 'पर' है!मिथ्यादृष्टि का अभिप्राय होगा की क्योकि उसने उसको जन्म दिया है इसलिए वह पुत्र उसी का है उसे 'स्व' और 'पर' का भेद  ज्ञान नहीं होगा ,अत: दुसरे व्यक्ति का ज्ञान अभिप्राय की अपेक्षा मिथ्या और पहिले का सम्यक  है !
ज्ञानो का मिथ्या होने का कारण -
सदसतोरवि शेषाद् -यदृच्छोप लब्धेरुन्मतवत्-३२
संधि  विच्छेद  -
सद+असतो:+अविशेषात्+यदृच्छोप+लब्धे:+उन्मतवत्
शब्दार्थ-सत्-सत्य/विध्यमान ,असतो:-असत्य/अविद्यमान ,अविशेषात्-अंतर या भेद नहीं होने से,यदृच्छोप-अपनी इच्छानुसार,लब्धे:-जानने के कारण,उन्मतवत् -पागल मनुष्य के उन्मत्तवता के कारण ज्ञान विपर्यय अर्थात मिथ्यादृष्टि का ज्ञान ,मिथ्या ज्ञान होता है ! 
अर्थ- सत् -विध्यमान वस्तु को सर्वथा  विध्यमान रूप'ही' जानना,असत्-अविध्यमान वस्तु को सर्वथा  अविध्यमान  रूप 'ही' जानना ,सत्-असत् के विशेष को जाने बिना ,एक समान  रूप से ,अपनी इच्छानुसार उन्मत्त पागलो की भांति पदार्थों का  ज्ञान   मिथ्याज्ञान  होता है !

जिज्ञासा सम्यग्दृष्टि अपने यथार्थ मति,श्रुत,अवधि ज्ञान द्वारा पदार्थ को जैसा जानता है वैसा  ही मिथ्यादृष्टि,मिथ्या(मति ,श्रुत और अवधि) द्वारा पदार्थों को जानता है फिर मिथ्यादृष्टि का ज्ञान  मिथ्या क्यों कहा गया है ?
समाधान -मदिरा के नशे में व्यक्ति को अपनी माँ,बहिन और पत्नी में  भेद का  जैसे ज्ञान नहीं होता  है  कभी वह उस  लड़की को अपनी माँ ,कभी पत्नी और कभी बहिन कहता है,यदि वह ठीक रिश्ता भी बता रहा है तब भी उसका ज्ञान मिथ्या होता है क्यकि उसको निश्चितता नहीं है,विश्वस्नीयता नही है  अपने ज्ञान की !अर्थात उसे वस्तु की वास्तविकता (सत्यता ) और अवास्तविकता (असत्यता) का अंतर नहीं मालूम !इसलिए उसका ज्ञान मिथ्या है !  इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव, घट पट को जानता है किन्तु मिथ्यात्व के उदय में उसे कभी घट और कभी पट कहता है ,उसे वस्तु के स्वरुप का ज्ञान नहीं होता !
मोक्ष-जीव की मुक्ति कुछ अन्य धर्मों में भी मानी  गई  है ,जैसे एक धर्म में  आत्मा शरीर को छोड़ते ही मुक्त हो जाती है ,कुछ अन्य धर्म  मानते ही की अपने आराध्य देवो की आराधना करने से मुक्ति मिल जाती है!किन्तु  जैन धर्म स्पष्ट घोषणा करता है की आत्मा मुक्त  स्वयं के पुरुषार्थ से अष्ट कर्मों का क्षय करने से होती है !इसका मार्ग भी वीतरागी,सर्वज्ञ,हितोपदेशी  अरिहंत भगवंतों ने अपने अनुभव के आधार से अपनी  दिव्यध्वनि के माध्यम से बताया है ,गणधर देवों  ने उसको द्वादशांग रूप ११अङ्ग और १४ पूर्वों में गुथा है,श्रु त केवली और सत्य महाव्रतधारी आचार्यों के पहले मौखिक रूप से ,तत्पश्चात लिपि बध  होकर  आज भी हम तक पहुँच रहा है !यही सम्यक मोक्ष मार्ग है क्योकि वीतरागी भगवन्तो द्वारा सम्यक विधि से  प्रणीत है ,जबकि अन्य धर्मो  में मोक्ष के सन्दर्भ में आये कथन; अनुभवहीन रागी ,राग- द्वेष में लिप्त देवों  के  बताये है ,इसलिए वह मिथ्या मार्ग है !यहाँ देखने के बात है की सभी ने मोक्ष बताया है किन्तु जैन धर्म में प्रणीत  ही सम्यक है !यहाँ 'यदृच्छोप लब्धेरुन्मतवत्' कथन प्रमाणित हो जाता है कि  उन्मत्तता  के कारण अन्य मति अपनी इच्छानुसार मुक्ति की विधि बताते है !मिथ्यादृष्टि की  लोक के सदर्भ में मिथ्याकल्पना -
रूपादि की उत्पत्ति का कारण
1- अद्वैत ब्रह्मवादी; एक,अमूर्तिक ,नित्य ब्रह्म को' ही' मानते है
२-सांख्यमति;एक,अमूर्तिक,नित्य प्रकृति को मानते है!
३- नैयायिक,वैशेषिकं मति ;पृथ्वी आदि के परमाणुओं  में जाति भेद मानते है!वे पृथ्वी में चारो  स्पर्श ,रस ,गंध, वर्ण ,जल में तीन ; स्पर्श,रस,वर्ण ,अग्नि में दो ;स्पर्श,वर्ण तथा वाय में एक;स्पर्श को ही मानते है !ये चारों अपनी पृथक पृथक जाती के स्कंध रूप कार्य को उत्पन्न करते है ! 
४-नास्तिकमती;पृथ्वी के परमाणु में कठोर आदि गुण ,जलीय परमाणु  में शीतलादि गुण ,अग्नि के परमाणु में उक्षण गुण ,पवनीय परमाणु में प्रवाहित होने का गुण मानते है तथा इनसे पृथ्वीादि स्कन्धों की उतपत्ति बताते है !यह उनकी घट पट  के समान, कारण विपरीतता है !
 मिथ्यादृष्टि जीव इनके संबंध में भेदाभेद विपरीतता भी करता है !कोई अन्यवादी कारण से कार्य को सर्वथा पृथक  कहते है,जैसे पृथ्वी आदि के नित्य परमाणुओं से उत्पन्न हुआ स्कंध रूप कार्य सर्वथा पृथक ही है गुण  से गुणी  पृथक ही है  इत्यादि !कोई अन्यवादी कारण से कार्य को सर्वथा अभिन्न मानते है जैसे घट,पटादि ,वन, पर्वतादि ;,ब्रह्म से उत्पन्न होने के कारण स्वयं ब्रह्मरूप है!यह घट-पट  संबंधी उनकी भेदाभेद विपरीतता है !वस्तु को सर्वथा भेद रूप,सर्वथा अभेद रूप,भेद को अभेद रूप या  अभेद को भेद रूप मानना इसका स्वरुप है !
८-१-१६
तत्वार्थ  सूत्र आचार्य उमास्वमि द्वारा विरचित
अध्याय-१ 
सूत्र ६ ,६-प्रमाणनयैरधिगम: अर्थात प्रमाण और  नय से वस्तु का ज्ञान होता है,प्रमाण के विषय में तो उक्त सूत्रों से मालूम हो गया किन्तु नयों के विषय में आचर्य से शिष्य के प्रश्न करने पर वे कहते है -  
नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढैवंभूतानयाः-३३
संधि विच्छेद - 
नैगम+संग्रह+व्यवहार+ऋजूसूत्र+शब्द+समभिरूढ+एवंभूत+नयाः
अर्थ-नैगम,संग्रह,व्यवहार,ऋजूसूत्र,शब्द,समभिरूढ और एवंभूत, सात नय है !
भावार्थ-नय-वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म की मुख्यता कर,अन्य धर्मों का विरोध नहीं करते हुए,उन्हें केवल उस समय गौण करते हुए ,पदार्थों का जानना नय है !वक्ता  के अभिप्राय या वस्तु के एकांश ग्राही(दृष्टि कोण-पॉइंट ऑफ़ व्यू )  ज्ञान को नय तथा वस्तु के सम्पूर्ण ज्ञान को प्रमाण   कहते है !प्रमाण ,अनेक धर्मों को युगपत ग्रहण करने के कारण अनेकान्तरूप सकलादेशी है किन्तु नय,एक धर्म को ग्रहण करने के कारण एकांत रूप व विकलादेशी है! नैगम,संग्रह,व्यवहार,ऋजूसूत्र,शब्द,समभिरूढ और एवंभूत, सात नय है !    
नैगमनय-वर्तमान में अपने सामने सम्पूर्ण ,सर्वांग वस्तु नही होने पर भी, अपने ज्ञान में ऐसा संकल्प करे की यह वस्तु वर्तमान में ही विध्यमान है,नैगमनय है अर्थात जो नय,अनिष्पन्न अर्थ के संकल्प मात्र को ग्रहण करता है उसे नैगमनय कहते है!जैसे कोई व्यक्ति,लकड़ी,पानी,चावल आदि एकत्र कर रहा हो,उसे पूछने पर की वह क्या कर रहा है ?यद्यपि अभी वह भात नहीं पका रहा है,किन्तु उत्तर देता है कि मैं भात पका रहा हूँ!यह नैगम नय का दृष्टांत है !नैगम नय के काल की अपेक्षा :- 
१-अतीतनैगमनय -अतीत में हुई दशा को वर्तमान के समान कहना ,
२-अनागतनैगमनय-भविष्य में होने योग्य दशा को वर्तमान में कहना तथा 
३-वर्तमाननैगमनय-वर्तमान में कुछ निष्पन्न और कुछ  अनिष्पन्न वस्तु को निष्पन्न कहना ,तीन भेद है!
वस्तु की अपेक्षा नैगम न य के ३ भेद,उपभेद ९  है-
१-द्रव्य नैगमनय-शुद्ध और अशुद्ध दो भेद है  
२-पर्याय नैगम नय;अर्थ पर्याय,व्यंजन पर्याय,और अर्थ-व्यंजन पर्याय तीन भेद,
३ -द्रव्य-पर्याय नैगमनय- के ४ भेद ;शुद्ध द्रव्यार्थ पर्याय ,अशुद्ध द्रव्यार्थ  पर्याय,शुद्ध द्रव्य-व्यंजन पर्याय,अशुद्ध द्रव्य व्यंजन पर्याय है!   
संग्रहनय-जो नय अपनी जाति का विरोध नहीं कर एकत्व अनेक पदार्थों को ग्रहण करता है उसे संग्रह नय कहते है!जैसे;सत कहने से समस्त द्रव्यों का क्योकि सभी द्रव्यों का सत लक्षण है , द्रव्य कहने से समस्त ६ द्रव्यों का क्योकि गुणपर्याय सहित जीव-अजीव रूप छ द्रव्य ,,जीव कहने से समस्त षट्काय जीवों का और पुद्गल कहने से समस्त पुद्गलों, का संग्रह होता है !ये संघ्रह नय है  !संग्रह नय  सामान्य से सत कहता है !उसे विशेष से भेद कर व्यवहार न य कहता है !
व्यवहारनय-जो नय,संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गए ज्ञात पदार्थों का विधिपूर्वक व्यवहरण /भेद करता है वह व्यवहार नय है!जैसे द्रव्य के ६ भेद करना ,जीव के संसारी और मुक्त भेद करना ,संसारी में षट्काय जीवों के  भेद करना! पुद्गल के परमाणु और स्कंध भेद करना!यह नय जहाँ तक संभव हो वहां तक भेद करता है !
ऋजुसूत्रनय-जो वस्तु की वर्तमान पर्याय  को ग्रहण करे वह ऋजुसूत्रनय है !

ऋजु-सरल/सीधी,सूत्रपति-व्याख्यान करने वाली ,पूर्व/भूतकालीन पर्याय नष्ट हो गई है ,अपर/आगामी पर्याय अभी उत्पन्न नही हुई तो व्यवहार योग्य नही है!ऋजुसूत्रनय के  दो भेद है- स्थूल और सूक्ष्म पर्यायों का ही ग्रहण करे वह क्रमश: स्थूलऋजुसूत्र और सूक्ष्मऋजुसूत्रनय है !
शब्द नय-जो नय लिंग,संख्या,कारक आदि के व्यभिचार को दूर करता है वह शब्दनय है!व्याकरण की त्रुटियाँ को नहीं ग्रहण करता!जैसे जब मुनि मौन विराजते  है तब ही उन्हें मुनि मानता है,जब वे  तपस्या कर रहे होते है तब उन्हें तपस्वी मानता है और जब आहार विहार कर रहे होते है तब ही साधु मानता है!आचार्य आ रहे है,यद्यपि व्याकरण की अपेक्षा त्रुटि पूर्ण वक्तव्य है क्योकि आचार्य तो एक लिंगी होते है न की बहु लिंगी,किन्तु 'रहे है', सम्मान की अपेक्षा वक्तव्य है इसलिए शब्दनय की अपेक्षा ग्रहणीय है !
सँभिरूढ नय
सम -अन्य अर्थों को सम-छोड़कर,अभिरूढ -प्रधानता से एक अर्थ में  रूढ़ करना,संभीरुढ़ है !`जो नय नाना अर्थों का उल्लंघन कर रूढ़ि से एक अर्थ को ग्रहण करता है उसे सँभिरूढ़नय कहते है!यह नय पर्याय के भेद से अर्थ को भेद रूप ग्रहण करता है!जैसे इंद्र,शुक्र,पुरंदर तीनो इंद्र के नाम है!परन्तु यह नय तीनों के भिन्न भिन्न धर्मों की अपेक्षा भीं भिन्न अर्थों को ग्रहण करता है !आज्ञा ,ऐश्वर्यवान इंद्र है,सामर्थ्यशाली 'शक्र ' है,पुरो/नगरो का दारुण करने वाला 'पुरन्दर'है !इसप्रकार इन तीनों के अर्थ विभिन्न होने पर वे पर्यायवाची नही है !
एवंभूत नय- एवं-इस प्रकार,भूत -होना एवंभूतंय है !जिस शब्द का जिस क्रिया रूप अर्थ है उसी क्रिया रूप परिणमे पदार्थ को ग्रहण करता है उसे एवंभूत नय कहते है!जैसे पुजारी को पूजा करते समय ही पुजारी कहना,इस नय का काम है,अन्यथा पुजारी नही कहना !जैसे जब इंद्र आज्ञा ऐश्वर्य वाला है तभी उसे इंद्र कहना,अभिषेक अथवा  हुए नही ,सामर्थ्य रूप परिणमित होते हुए शक्र ;पुरों का भेदन करते समय पुरंदर कहना ,गाय को गमन करते समय ही गाय कहना ,सोते बैठते समय नही !अथवा आत्मा जिस समय जिस ज्ञानरूप में परिणमित है ,उसी  समय उसका उस रूप निश्चय करने वाला एवंभूत न य  है!जैसे इंद्र संबंधी ज्ञानरूप परिणमित आत्मा इंद्र है ,अग्निसंबंधी ज्ञानरूप परिणमित आत्मा अग्नि है इत्यादि ! 

साम्यत सात नय है किन्तु विशेष विवक्षा में  शब्दों की अपेक्षा नए संख्यात है !क्योकि जितने शब्द भेद है उतने ही नय है !इन्हे अति संक्षेप में कहने से वस्तु का ज्ञान नही होता और अधिक विस्तार से कहने पर अल्पबुद्धिवनों को ग्रहण नही होता। अत:मध्यम वृत्ति के लिए ७ ही कहे है !
नयो के सामान्य से दो भेद है
१-व्यवहारनय-संयोगीरूप बाह्य को विषय करने वाला,(नैगम,संग्रह,व्यवहार और ऋजुसूत्र नय )!   और
२-निश्चयनय-अंतरंग स्वभाव को विषय करने वाला;शब्द,सँभिरूढ और एवंभूत है  
वक्ता  के अभिप्राय की अपेक्षा -
१-द्रव्यार्थिक-वस्तु के द्रव्य को विषय करने वाला (नैगम,संग्रह और व्यवहार
२- पर्यायार्थिक-वस्तु की पर्याय को विषय करने वाला(ऋजुसूत्र, शब्द ,सँभिरूढ और एवंभूत नय )
पदार्थ की  तीन कोटियों की अपेक्षा नयों के भेद -नय
१-अर्थनय-अर्थात्मक अर्थात वस्तुरूप - संग्रह ,व्यवहार ,ऋजुसूत्र नय , कुछ आचार्य नैगम,संग्रह और व्यवहार नय को अर्थनय मानते है 
२-शब्दनय -शब्दात्मक अर्थात वाचक रूप - शब्द ,सँभिरूढ और एवंभूत नय
३-ज्ञाननय -ज्ञानात्मक अर्थात प्रतिभास रूप-नैगमनय 
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#2

अधिक जानकारी के लिए.... 
तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
अध्याय 1 
अध्याय 2
अध्याय 3
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अध्याय 6
अध्याय 7
अध्याय 8
अध्याय 9
अध्याय 10
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