तत्वार्थ सुत्र अध्याय २ सुत्र १६ से ३० तक
#1

इन्द्रियों के भेद -

द्विविधानि -१६
संधि विच्छेद -द्वि+विधानि 
शब्दार्थ- द्वि -दो ,विधानी-प्रकार की होती है 
अर्थ इन्द्रिया  दो प्रकार की होती है !
१-द्रव्य इन्द्रिय-पुद्गल का परिणाम है,इन्द्रिय  नाम कर्म के उदय से होती है और
२-भाव इन्द्रिय-आत्मा का परिणाम है; इन्द्रिय  ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होती है !
द्रव्येन्द्रिय का स्वरुप -
निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् -१७  
निवृत्ति+उपकरण+ द्रव्य +इन्द्रियम ,
संधि विच्छेद -निवृत्ति+उपकरण+ द्रव्य +इन्द्रियम ,
शब्दार्थ -निर्वृत्ति - निर्वृत्ति ,उपकरण-उपकरण  द्रव्य-द्रव्य  ,इन्द्रियम-इंद्रीय कहते है !
अर्थ -  द्रव्येंद्रिय निर्वृत्ति और उपकरण रूप  है !
निर्वृत्ति-अंगोपांग नामकर्म के उदय से होने वाली इन्द्रियों की रचना विशेष को निर्वृत्ति कहते है !इसके दो भेद आभ्यन्तर निर्वृत्ति और बाह्य निर्वृत्ति है !
आभ्यंतर निर्वृत्ति-आत्मा के प्रदेशों का इन्द्रियाकार होना आभ्यंतर निर्वृत्ति है ,यह जीव है जो चक्षु इंद्री आँख (उपकरण )से  देखती है आत्मा के कान के आकार के आत्म प्रदेश  सुनते है!
बाह्य निर्वृत्ति -पुद्गल के परमाणुओं का इन्द्रियाकार होना बाह्य निर्वृत्ति है !
उपकरण -निर्वृत्ति के उपकारक पुद्गलों को उपकरण कहते है!ये भी आभ्यंतर और बाह्य उपकरण दो प्रकार के होते है !जैसे नेत्र में जो काल और सफ़ेद मंडल काली पुतली को रोकने में सहायक, वह आभ्यंतर उपकरण और पलके तथा रोम बाह्य उपकरण है!इसे प्रकार कान के पर्दे को रोकने वाला  आभ्यंतर उपकरण है और कान बाह्य उपकरण है !आत्मा के प्रदेश कान  के परदे के आकार के सुनते है वे जीव है आभ्यंतर निर्वृत्ति है !तथा पुद्गल परमाणुओं का कर्णकार होना बाह्य निर्वृत्ति है ,ये अजीव है !
इसी प्रकार शेष इन्द्रियों के सन्दर्भ में भी समझना चाहिए !
भावेन्द्रिय का स्वरुप -
लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् -१८ 
संधि विच्छेद -लब्धि+उपयोगौ+ भावेन्द्रियम् 
अर्थ लब्धि और उपयोग  भावेन्द्रिय है !
लब्धि-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में परिणमन करने की शक्ति उतपन्न होने को लब्धि कहते है !
उोपयोग-लब्धि के निमित्त से  आत्मा के प्रदेशोंमें  परिस्पंदन (परिणमन ) होता है उसे उपयोग कहते है !
 विशेष -जीव में देखने की शक्ति होने पर भी ,यदि उसका उपयोग उस वस्तु को  देखने में नहीं है तो वह उस वस्तु को नहीं देख पाता  है !इसी प्रकार किसी वस्तु को जानने की इच्छा होते हुए भी यदि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम नहीं हो तो उसे नहीं जान सकते !अत: ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में जानने की शक्ति प्रगट होती है वह तो लब्धि है और उसके होने पर आत्मा का पदार्थ की ओर अभिमुख होना उपयोग कहलाता है !लब्धि और उपयोग दोनों के मिलने से ही पदार्थ का ज्ञान होता है !
इन्द्रियों के नाम-
स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि =१९ 
 संधि विच्छेद-स्पर्शन+रसन+घ्राण+चक्षुः+ श्रोत्राणि -१९ 
अर्थ स्पर्शन त्वचा,रसन-जीव्हा,घ्राण-नासिका चक्षुः-नेत्र और श्रोत्र -कर्ण ,अणि -ये पांच इन्द्रिया है
स्पर्शन-आत्मा जिससे अपने विषय को स्पर्श करती है वह स्पर्शन,जिससे आस्वाद लेती है रसना,जिससे गंध को सूंघती है वह घ्राण ,जिससे रूप को देखता है वह चक्षु और जिससे शब्द सुनता है ,वह श्रोत्र  इन्द्रिय है !
ये परतन्त्रत्व से करण-साधन रूप जैसे कहा जाता है कि 'मैं  नेत्रों से भली भांति देखता हूँ'और स्वतन्त्रत्व से करता-साधन रूप है जैसे खा जाता है कि 'मेरे नेत्र देखते है' !
आत्मा वीर्यान्तराय  और  मति ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की निमित्ता  में अंगोपांग नामकर्म के उदय में आत्मा अपने विषय का स्पर्शन करता है ,वह  स्पर्शन है;स्वाद लेता है ,वह रसन है;सूघता है वह घ्राण है,, वह चक्षु और सुनता है वह श्रोत्र  है!
सूत्र में इन्द्रियों को इसी क्रम में रखने का कारण है कि स्पर्शन इन्द्रियों सहित सबसे अधिक  एकेन्द्रिय जीव अनादिकाल से संसार में है, इनके एक ही इंद्री होती है शेष नही !सभी जीवों के यह है !उसके बाद द्वीन्द्रिय जीव के स्पर्शन और रसना दो इन्द्रिय,त्रीन्द्रिय के  घ्राण तीन ,चतुरिंद्रिय के स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु चार इन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय  जीवों के पाँचों इन्द्रिय   होती है !
इन्द्रियों के आकार-
श्रोत्रेन्द्रिय-कान-जौ की बीच की नाली के समान ,नेत्रेन्द्रिय -मसूर के समान,घ्राणेंद्रिय -तिल के फूल समान.रसना इन्द्रिय-अर्ध  समान,स्पर्शनीन्द्रिय-शरीर के समान !
इन्द्रियों के विषय-
स्पर्शरसगंधवर्णशब्दास्तदर्था:-२० 
संधि विच्छेद-स्पर्श +रस+ गंध+ वर्ण+ शब्द:+ तदर्था:-
अर्थ तदर्था:-विषय है ;उन पांच  इन्द्रियों के विषय क्रमश: स्पर्श ,रस, गंध,रूप /वर्ण और शब्द  है !
स्पर्शन  इन्द्रिय स्पर्श को,(जो स्पर्श करने योग्य है वह स्पर्श है ) ,रसना इन्द्रिय रस(जिसका स्वाद लेते है,आस्वादन रूप है , रस है ) को ,घ्राण इन्द्रिय गंध को( जिसे सूघते  है अथ्वा जो  सूंघने योग्य है वह गंध है ) ,चक्षु इन्द्रिय (जो  देखने रूप है वह वर्ण है) को तथा  श्रोत्र इन्द्रिय /कर्ण शब्द (जिसे सुनते है अथवा जो शब्द रूप है )को विषय करती है ! इन्द्रिय अपने अपने विषयों को स्वतंत्र रूप से ग्रहण  करती है !यह विषय जड़ पुद्गल है !जानने का कार्य  भावेन्द्रिय का है ! पुद्गल इन्द्रिय उसके निमित्त है !ज्ञान आत्मा का गुण  है यदि पुद्गल में ज्ञानत्व हो जाये तो जीव द्रव्य का ही  होजायेगा !
स्पर्श:-स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा आत्मा पदार्थ के ठंडे-गर्म,कठोर-नरम,हल्का-भारी  स्निग्ध-रुक्ष का ज्ञान उसे स्पर्श कर  करती है !
रस: रसना इन्द्रिय अर्थात जीव्हा द्वारा आत्मा पदार्थ के खट्टे ,मीठे,कडुवा, चरपरे और कैसला स्वाद का ज्ञान प्राप्त करता है !
गंध:-घ्राणेन्दीय र्थत नासिका  के द्वारा आत्मा पदार्थ की सुगंध अथवा दुर्गन्ध का ज्ञान प्राप्त करता है !
वर्ण:-चक्षुइन्द्रिय अर्थात नेत्रों से  आत्मा पदार्थ के सफ़ेद,लाल,पीले नी,ले काले वर्ण गुणों को ग्रहण करता है !
शब्द:-श्रोत्रन्द्रिय अर्थात करण द्वारा आत्मा के द्वारा उत्पन्न शब्दों का ग्रहण करता है !शब्द के  षड्ज,ऋषभ,गांधर ,मध्यम,पंचम,धैवत,निषध (सा,रे,गा ,म,प ध,न ) सात  भेद है!इस प्रकार ५ इन्द्रियों विषय  संबंधी कुल २७ भेद है !
एक इन्द्रिय से असैनी पंचेन्द्रिय जीवों के इन्द्रियों का उत्कृष्ट विषय क्षेत्र  धनुष /योजनों में क्रमश वृद्धिगत दूना दूना है  -
 जीव की इन्द्रिय     स्पर्शन           रसना              घ्राण                चक्षु  
१- एकेन्द्रिय         ४००                     X                  X                  X 
२-द्वीइंद्रिय          ८००                     ६४                 X                   X 
३-त्रीन्द्रिय            १६००                    १२८              १००                 X 
४-चतुरिंद्रिय         ३२००                    २५६              २००             २९५४ (योजन)
५-असैनी पंचेन्द्रिय ६४००                   ५१२              ४००             ५९०८ (योजन )
६- सैनी पंचेन्द्रिय    ९ (योजन)            ९(योजन)    ९(योजन)       ४७२६३ +७/२० (योजन)

मन का विषय -
श्रुतमनिन्द्रियस्य -२१ 
 संधि विच्छेद -श्रुतं+अनिन्द्रियस्य 
शब्दार्थ -श्रुतं -श्रुत अर्थात ज्ञानागोचर पदार्थ ,अंनिन्द्रिय -इन्द्रियों रहित ;मन का विषय है 
अर्थ- मन का विषय,इन्द्रियों से पृथक ही श्रुत जानना,श्रुतज्ञान है! 
मन का विषय रूप पदार्थ इन्द्रियों के व्यापार की अपेक्षा रहित है!मन का प्रयोजनभूत पदार्थ मन के स्वाधीन ही साध्य है!'मन' रुपी और अरूपी पदार्थों को अनेक प्रकार से ग्रहण करता है इसलिए इसका क्षेत्र असीमित है मन का कार्य विचार करना है,विचार इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गए अथवा नही ग्रहण किये गए सभी विषयों का हो सकता है!इस विचार का ही नाम श्रुत है!अत: मन का विषय 'श्रुत' -रूपी और अरूपी  सभी पदार्थों के स्वरुप का चिंतन है!
स्पर्शन इन्द्रिय के स्वामी -
वनस्पतयन्तानमेकम्-२२ 
संधि विच्छेद -वनस्पति+अन्तानाम+एकम् 
शब्दार्थ-वनस्पति- वनस्पतिकाय ,अन्तानाम-अंत में  है,एकम् -उनके एक( स्पर्शन) इंद्री होती है !
अर्थ-(स्थावरजीव),जिनके अंत में वनस्पतिकाय है अर्थात पृथ्वीकायिक,जलकायिक,अग्निकायिक,वायुका यिक  और वनस्पतिकायिक जीवो के (एकम) एक स्पर्शन इन्द्रिय है!
 वीर्यान्तरायकर्म और स्पर्शनइन्द्रियावरणके क्षयोपशम ,शेष इन्द्रिय- कर्म संबंधी सर्वघाती स्पर्धकों के उदय और शरीर,आंगोपांग,एकेन्द्रिय जाति आदि नाम कर्म के उदय की निमि त्ता में जीव के एक स्पर्शन इंद्री व्यक्त होती है !
शेष इन्द्रियों के स्वामी -
कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि -२३ 
संधि विच्छेद-कृमि+पिपीलिका+भ्रमर+मनुष्य+आदीना मे+एक+एक+ वृद्धानि
शब्दार्थ-कृमि-लत,पिपीलिका-चिवटी,भ्रमर-भौरा,मनुष्यादीना-मनुष्य आदि मे  एक -एक एक, वृद्धानि -क्रमश: बढ़ते हुए इन्द्रिय है अर्थात लट आदि ; द्विइन्द्रिय के दो ( स्पर्शन और रसना) ,पिपीलिका-चिवटी आदि के तीन इन्द्रिय-(स्पर्शन रसना घ्राण) ,भँवरे  आदि की चार (स्पर्शन ,रसना घ्राण और चक्षु इन्द्रिय है), मनुष्य के पांचो ;(स्पर्शन रसना घ्राण ,चक्षु ,और श्रोत्र )इन्द्रिय होती है !
इस सूत्र में पिछले सूत्र में स्थावर जीवों की एक इंद्री से क्रमश एक एक  बढ़ते बढ़ते द्वी,त्रि ,चतुर और पंचेन्द्रिय जीवों की इन्द्रिय बताई गई है ! 
समनस्क का लक्षण -
सञ्ज्ञिनः समनस्काः-२४ 
शब्दार्थ -सञ्ज्ञिनः-संज्ञी ,सैनी , समनस्काः-मन सहित होते है 
अर्थ -मनसहित जीव संज्ञी अर्थात सैनी होते है  !
सैनी/संज्ञी -हित  और अहित  परीक्षा तथा  गुण /दोषो का विचार  तथा स्मरण आदि करने में सामर्थ्यवान होते  है! 
शंका-हित  और अहित में प्रवृत्ति मन की सहायता से होती है,विग्रह गति में मन रहता  नहीं। फिर जीव मन के बिना विग्रह गति में नया शरीर धारण करने के लिए गमन कैसे करता है ? 
समाधान -
विग्रहगतौ कर्म योग -२५ 
संधि विच्छेद- विग्रह+गतौ +कर्म योग 
शब्दार्थ-विग्रह-विग्रह ,गतौ -गति में,कर्म योग -कर्म योग रहता है !
अर्थ-विग्रहगति में जीव कर्म योग अर्थात कार्माण योग होता है जिससे  एक गति से दूसरी गति में जाता है !
विग्रह गति-नया शरीर धारण करने के लिए गमन करने को विग्रह गति  है  !
कर्मयोग-ज्ञानावरणीय कर्मो के समूह को कार्मण शरीर कहते है!कार्माण  काययोग  के निमित्त से आत्मा के प्रदेशोंमें परिस्पंदन /कम्पन्न होता है उसे कर्मयोग /कार्माण योग कहते है !इसी के द्वारा जीव मृत्यु स्थान से नवीन जन्म  स्थान को गमन करता  है !
जीव और पुद्गल के गमन का क्रम -
अनुश्रेणि गति:-२६
संधि विच्छेद- अनु+श्रेणि+ गति:
शब्दार्थ-अनु-अनुक्रमरूप/क्रमानुसार,श्रेणि-लोक के मध्य से लेकर उपर ,नीचे,तिर्यक् रूप आकाश के प्रदेशो की पंक्ति,  गति:-गमन करता है 
अर्थ -जीव और पुद्गलों का गमन आकाश-प्रदेशों के अनुक्रम से श्रेणी रूप होता है,यह अनुश्रेणी गति है -यह गति सीधी दिशाओ के अनुसार है,वक्रता रूप दिशाओं में नही है !
श्रेणी-लोक के मध्य से लेकर ऊपर ,नीचे तथा तिर्यक दिशा में(पूर्व,दक्षिण, पश्चिम उत्तर  दिशाओं में )आकाश के प्रदेशों की सीधी पंक्तियो को श्रेणी कहते है!जैसे ग्राफ पेपर पर x -अक्ष और y- अक्ष और z- अक्ष पर सीधी सीधी पंक्तिया होती है उसी  प्रकार आकाश के प्रदेशों की भी पंक्तिया होती है ,इन्हे श्रेणी कहते है !
विशेष-१-जीव का मृत्यु के पश्चात,विग्रह गति में गमन,श्रेणी अनुसार होता है किसी अन्य प्रकार से नहीं होता !इसी प्रकार पुद्गल का शुद्ध परमाणु एक चौदह राजू गमन श्रेणी के अनुसार करता है बाकी अशुद्ध  सब पुद्गलों का नहीं होता है !
२- यहाँ यद्यपि प्रकरण जीव का है किन्तु गमन का ग्रहण है जो की पुद्गल और जीव दोनों  है ,इसलिए इस सूत्र में जीव के साथ,गतिमान सभी पदार्थों को ग्रहण किया है अत: पुद्गल के गमन को भी ग्रहण किया  है !अगले सूत्र में जीवस्य है इसलिए इस सूत्र में पुद्गल का ग्रहण स्वत: हो जाता है 
शंका-१ मेरु प्रदिक्षणा के समय चन्द्रमादि ज्योतिष्क देवो,विद्याधर आदि अन्य जीवोकी गति श्रेणी के अतिरिक्त भी दृष्टिगोचर है ,अत: श्रेणीबद्ध गमन का नियम नही बनता ?
समाधान -यहां काल और क्षेत्र का नियम रूप कथन मरण की अपेक्षा है!अत:मरणोपरांत जीव की और शुद्ध पुद्गल  परमाणु की गति सीधी श्रेणीबद्ध रूप ही होता है !
शंका-२ जीव और पुद्गल एक समय में १४ राजू गमन कैसे करते 
समाधान-क्षेत्र का नियम है कि यदि कोई जीव नीचे के वातवलय से निकलकर ऊपर सिद्धशिला अथवा तनुवातवलय में उत्पन्न होता है तो उसका १४ राजू ऊपर गमन होता है इसी प्रकार पुद्गल की भी १४ राजू गति है !
मुक्त जीव की गति-
अविग्रहा जीवस्य -२७ 
संधि विच्छेद_अविग्रहा+जीवस्य 
शब्दार्थ  -अविग्रहा-मोड़ रहित सीधी,जीवस्य-जीव की गति होती है !
अर्थ-मुक्त जीव का गमन मोड रहित उर्ध्व (उत्तर) दिशा में होती है !
भावार्थ -श्रेणी के अनुसार होने वाली गति के दो भेद है !
१-विग्रहवती -जिसमे जीव को गनतव्यस्थल तक पहुचने के लिए मुड़ना पड़ता है !
२-अविग्रहा-जिसमे जीव को गंताव्यस्थल तक पहुचने के लिए मुड़ना नहीं पड़ता कर्मों को क्षय कर मुक्त जीवों की गति सिद्धशिला की ओर अविग्रहगति ही होती है !अगले सूत्र में संसारी जीव की गति का उल्लेख है इसलिए इस सूत्र में स्वत: मुक्त जीवों की गति का उल्लेख हो गया !
३- सूत्र में मुक्त जीव का उल्लेख नही है फिर मुक्त जीव क्यों कहा गया है?
समाधान - ऐसा इसलिए है क्योकि अगले सूत्र में संसारी जीवों के गमन का उल्लेख है अत: यहाँ स्वत: मुक्त जीव से सूत्र का भाव हो जाता है !
संसारी जीव की गति और समय -
विग्रहवतीचसंसारिणी:प्राक्चतुर्भ्य:-२८
संधि विच्छेद-विग्रहवती+च+संसारिणी:+प्राक्+चतुर्भ्य:
शब्दार्थ-विग्रहवती-मोड सहित गति, च-और (पिछले सूत्र से अविग्रह अर्थात सीधी मोड़ रहित गति)जैसे होती है,संसारिणी:-संसारी जीव की,प्राक्-पूर्व ,चतुर्भ्य:-चार समय से 
अर्थ-संसारी जीव की गति चार समय से पूर्व; मोड सहित और मोड़े रहित ,दोनों प्रकार की होती है !
विशेष-संसारी जीव की गति मोड रहित और मोड सहित होती है!मोड रहित गति में केवल एक समय लगता है !जिस मे एक मोड लेने पड़ते है उसमे २ समय, जिसमे २ मोड लेने पड़ते है उसमे ३ समय.तीन मोड़ें में ४ समय लगते है! ४ समय से पूर्व  जीव नियम से जन्म ले लेता है,चार समय तक कोई जीव  विग्रहगति में नहीं   रहता !इस लिए विग्रहगति का समय चार समय से पूर्व कहा है !
२-विग्रह गति के चार भेद है
१- विग्रहगति -ऋजुगति (इषुगति )-आनुपूर्वी कर्म के उदय के अनुसार,संसारी अथवा मुक्त जीवो, जिनका उत्पत्ति स्थान सरल रेखा में होता है उनकी ऋजु गति होती है।इसे इषुगति भी कहते है!इशू अर्थात वाण ,धनुष से छूटने के बाद वह  सरल -सीधा ही जाता है इस प्रकार जो गति सरल होती है उसे इषुगति  कहते है !
२-विग्रहवती गति-आनुपूर्वी कर्म के उदय के अनुसार, जिन संसारी  जीवो का उत्पत्ति स्थान वक्र रेखा में होता है उनकी विग्रहवती गति होती है !इसके तीन भेद 
१-पाणिमुक्तगति पानी पर रखा हुआ मुक्त एक मोड़ लेकर  जमीन पर गिरता है,जिस गति में एक मोड़ा  लेना पड़े वह पाणिमुक्तगति  है
२-लाङ्गलिका गति-लाङ्ग-हल को कहते है अर्थात जिस  की गति में हल की भांति दो मोड़े होते है वह लाङ्गलिक़ा  गति कहते है !
३-गोमूत्रगति -जिस गति में गो मूत्र के सामान ३ अथवा अनेक मोड़े  हो उसे गोमूत्र गति कहते है !
यहाँ अनेक का अर्थ अधिकतम ३ है क्योकि इससे अधिक मोड़ें किसी भी जीव को नवीन शरीर की उत्पत्ति के लिए नहीं लेने पड़ते!सबसे वक्ररेखा में स्थित निष्कुट क्षेत्र बतलाया है किन्तु वहां भी उत्पन्न होने के लिए अधिकतम ३ मोड़ें  लेने पड़ते है !
  मोड़ेंरहित ऋजुगति में उत्पत्ति स्थान तक पहुचने में जीव को१ समय,पाणिमुक्त गति में २ समय ,  लाङ्गलिका गति में ३ समय और गोमूत्र गति में ४ समय लगते है 
 अर्थात जितने मोड़ें  है उससे १ समय जीव को उत्पत्ति स्थान तक  पहुचने में अधिक   लगता है !
अविग्रह मोड रहित ऋजु गति में  मुक्त जीव को सिद्ध शीला के ऊपर तनुवातवलय से स्पर्श करते हुए सिद्धालय  पर पहुचने में १ समय लगता है !
अविग्रह गति का समय -
एक-समयाविग्रहा -२९  
संधि विच्छेद-एक+समय+अविग्रहा 
शब्दार्थ:-एक-एक,समय-समय,अविग्रहा -मोड़ें  रहित गति अर्थात ऋजु गति मे
अर्थ:-मोड़ें रहित ,अविग्रह गति में मात्र एक समय लगता है!
विशेष -
अविग्रह मोड रहित ऋजुगति में मुक्तजीव को सिद्ध शीला के ऊपर ,तनुवातवलय से स्पर्श करते हुए,५२५ योजन मोटे सिद्धालय  पर पहुचने में १ समय लगता है !
विग्रह गति में आहारक और अनाहारक की व्यवस्था -
एकं द्वौ त्रीन् वानाहारक:-३० 
संधि विच्छेद -एकं+ द्वौ+ त्रीन् +वा +अनाहरक:
शब्दार्थ-एकं-एक समय, द्वौ-दो समय , त्रीन् -तीन समय तक ,वा-वह (विग्रह गति मेंजीव ) ,अनाहरक:-अनाहारक( पुद्गल-आहार वर्गणाओं को ग्रहण  नही करना ) होता है !
अर्थ - विग्रह गति में जीव एक ,दो और तीन 'समय' तक अनाहारक रहता  है ! इस सूत्र में पिछले सूत्र से समय की अनुवृत्ति है !
भावार्थ-इशुगति में जीव  अनाहारक नही है !पाणिमुक्तगति में १ समय के लिए ,लांगलिका गति में २ समय तथा गोमूत्रगति में ३ समय के लिए जीव अनाहारक है !इससे आगे चतुर्थ समय में आहारक ही है !
विशेष-१-आहारक-औदारिक,वैक्रियिक,आहारक शरीर तथा छ:-(आहार,शरीर,इन्द्रिय,शवासोछ्वास भाषा,और मन) पर्या प्तियों के योग्य पुद्गल वर्गणाओं के जीव द्वारा ग्रहण करना आहारक है और उनका ग्रहण  नही होना , अनाहारक है !यहाँ आहारक से मतलब आहार-भोजन से नहीं बल्कि औदारिक ,वैक्रयिक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गल वर्गणाओं के ग्रहण करने से है!संसारी जीव मोड़ रहित गति में आहारक ही रहता है क्योकि जिस समय पूर्व शरीर छोड़ते है उससे आहार और उसके अनन्तर नवीन शरीर से आहार लेते है!
२- जीवों के शरीर ५ प्रकार के होते है  ;कार्माण और तेजस शरीर जीव के मुक्त होने तक उसके साथ रहता है ,आहारक शरीर लब्धिरूप(छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के) होता है शेष दो में से एक ही औदारिक अथवा वैक्रयिक शरीर  की पर्याप्ति होती है !
३-६: पर्याप्तियां -
आहार पर्याप्ति-एक शरीर को छोड़कर दुसरे नवीन शरीर के लिए कारणभूत नोकर्मवर्गणाओं को ग्रहण कर ,पर्याप्ति नाम कर्म के उदय में उनहे  खल/रस भाग रूप परिणमाने की जीव की शक्ति पूर्ण होना आहार पर्याप्ति है !
२-शरीर पर्याप्ति-शरीर नाम कर्म के उदय  में उक्त वर्गणाओं में से खल भाग को हड्डी आदि कठोर अवयवों में  तथा रस भाग को खून आदि नरम व् पतले द्रव्यों रूप अवयवों रूप परिणमाने की जीव की शक्ति  पूर्ण होना ,शरीर पर्याप्ति है ! 
३-इन्द्रिय पर्याप्ति-इन्द्रिय नाम कर्म के उदय में उसी आहार पर्याप्ति में नोकर्मवर्गणाओं में से कुछ को अपने २ इद्रियों के स्थान पर ,द्रव्येंद्रिय के आकार  रूप  जीव की परिणमाने की शक्ति पूर्ण होना इन्द्रिय पर्याप्ति है !
४-श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति-उन्ही में से कुछ स्कन्धों को श्वासोच्छ्वास रूप परिणामाने की जीव की शक्ति पूर्ण होना,श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति है !
५-भाषापर्याप्ति-भाषा (पुद्गल) वर्गणाओं को वचन रूप जीव की परिणमाने की शक्ति पूर्ण होना भाषापर्याप्ति है  ६-मन पर्याप्ति- द्रव्य मन योग्य मनोवर्गणाओं को,  द्रव्य मन के आकार रूप जीव के परिणमाने  की शक्ति पूर्ण होना मन पर्याप्ति है !
उक्त ६ की ६  पर्याप्तियां संज्ञी जीवों के ही ,इसी क्रम से ,प्रत्येक अंतर्मूर्हत-अंतर्मूर्हत  काल में अलग अलग पूर्ण होती है ,जबकि प्रारम्भ सब का युगपत  होता है तथा सभी के पूर्ण होने का समय भी अंतर्मूर्हत है!उत्तरोत्तर पर्याप्तियों के पूर्ण होने का काल अंतर्मूर्हत काल क्रमश: बढ़ता जाता है !द्वी इन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के मन के अतिरिक्त पाँचों पर्याप्ति होती है !एकेन्द्रिय जीव के प्रथम चार पर्याप्ति होती है!यदि जीव की  शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाती है तो वह  पर्याप्तक ही कहलाता है चाहे शेष ४ पर्याप्ति पूर्ण नही हो !शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने से पूर्व वह निवृत्यर्याप्तक कहलाता है !
इतनी सूक्ष्मता से जीव की संसार में उत्पत्ति काल के विकास का वर्णन जैनागम में ही उपलब्ध है अन्यत्र कही नही !आहार  पर्याप्ति जीव नवीन जन्म से पूर्व ,पहिले भव के अंतिम समय में प्राप्त करता है!शेष ५ पर्याप्तियां एक अंतर्मूर्हूत काल में अवश्य पूर्ण करलेता है !पर्याप्तियां  सूक्ष्म होती है किसी भी वैज्ञानिक यंत्रों से भी वर्तमान में उन्हें देखना सम्भव नही है !अल्ट्रा साउंड में भी जीव के अंग प्रत्यंगों के विकसित होने तक  देखना असम्भव है  !

संसारी जीव के मरण एवं जन्म का चक्र -
१-संसारी जीव जीवित अवस्था -जीव के औदारिक/वैक्रियिक शरीर ,तेजस और कार्मण शरीर है !जैसे ही संसारी जीव के प्राणांत होता है उसका चेतन आत्मा ,"विग्रहवतीचसंसारिणी:प्राक्चतुर्भ्य:"-२८ और "एकं द्वौ त्रीन् वानाहारक:"-३०  के अनुसार  सर्वप्रथम ऊर्ध्वगमन करता  यदि उसका नया जन्मस्थल वही (उर्ध्व दिशा में ) है तो वह एक समय में ही वहां जन्म ले लेता है उसके  मृत्यु के अंतिम समय में वह पूर्व शरीर से और अगले समय में नवीन शरीर से आहार वर्गणाए ग्रहण करना आरम्भ करता है इसलिए नवीन जन्म लेने तक वह आहारक ही रहता है !अन्यथा १,२ अथवा ३ मोडे लेने के पश्चात चौथे समय में आहार वर्गणाए लेना प्रारम्भ कर नवीन जन्म स्थल पर जन्मले लेता है।नवीन भव मे उत्पन्न व पूर्व शरीर को त्यागने मे अधिकत्तम ४ समय लगते हैवहअधिकत्तम तीन समय अनआहारक रह कर अंतिमसमय मे आहारक हो जाता है।
संसारी जीव की मृतावस्था-उसके मात्र औदारिक शरीर मृत देह रूप हैै।चेतना जीव चेतना ,  उसमे  मात्र कार्माण और तेजस शरीर है। 











































 
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