तत्वार्थ सुत्र अध्याय २ सुत्र ५०से ५२ तक
#1

नारकसम्मूर्च्छिनोनपुंसकानि -५०
संधि विच्छेद-नारक+सम्मूर्च्छिनो+नपुंसकानि
शब्दार्थ-नारक-नारकी,सम्मूर्छिनो-सम्मूर्च्छन जन्म वाले,नपुंसकानि-नपुंसक होते है !
अर्थ-नारकी और सम्मूर्च्छन जन्म वाले मनुष्य, तिर्यन्चों का नपुंसक वेद होता है !
विशेषः-
१- वेद/लिंग-जिसका वेदन/अनुभव करते है,वेद/लिंग है!इसके पुरुष,स्त्री और नपुंसक तीन भेद है प्रत्येक के द्रव्य और भाव से दो भेद है!अंगोपांग आदि नामकर्म के उदय में निर्मित;योनि,स्तन,आदि द्रव्यस्त्रीलिंग/वेद , शिशिन,दाढ़ी ,मूछें आदि द्रव्य पुरुष वेद/लिंग है !
स्त्री वेद के उदय में जो गर्भ धारण करे वह स्त्री है,पुरुषवेद के उदय में जो पुत्रादि उत्पन्न करे वह पुरुष है , नपुंसक वेद के उदय में दोनों शक्ति से रहित ,नपुंसक है !
ये सज्ञाए रूढ़ि शब्द रूप ही है अन्यथा ऐसा नही मानने पर,गर्भ धारण नही करनी  वृद्धाये,देवियाँ,कार्मण काययोगमय विग्रह गति में स्थित  स्त्रियां,गर्भ धारण से रहित होने के कारण स्त्री नही कहलाएंगी !इसी प्रकार पुत्रादि उत्पन्न नही करने की स्थिति में पुरुष कहना असम्भव होगा !
चारित्र मोहनीय की नो कर्मकषाय-वेदनीय की तीन; पुरुष, स्त्री, नपुंसक वेद कर्म प्रकृतियों के उदय में आत्मा के काम-विकार रूप परिणाम होना क्रमश:पुरुष ,स्त्री, नपुंसक भाव वेद  है ! स्त्री वेद में कामाग्नि कंडे की अग्नि  के सामान धीरे धीरे सुलगती रहती है पुरुष वेद में तृण अग्नि के समान जलती तीव्रता से है ,किन्तु अल्प काल में शांत हो जाती है !नपुंसक वेद की यह ईंट के भट्टे की अग्नि के समान सदा धधकती रहती है ,कभी शांत नही होती !  
 नपुंसक वेद-चारित्र मोहनीय की नोकषाय, नपुंसक वेद के उदय की निमित्त से ,यह जीव नपुंसक वेदी भाव युक्त होता है!कर्मोदय  में  यह स्त्री ,पुरुष दोनों ही नही है!उसके स्त्री पुरुष मनोज्ञ विषय का कदापि सुख  नही है !
देवों का वेद
न देवा: ५१ 
अर्थ-देव नपुंसक वेद के नहीं होते !अर्थात देवों  में स्त्री और पुरुष वेद ही होता है !
विशेष-
१-इस सूत्र में नपुंसक पिछले सूत्र  अनुवृत्त है!
२- पुण्य के उदय से देवगति में जीव पुरुष और स्त्री संबंधी उत्कृष्ट सुख  भोगते है वहां स्त्री और पुरुष दो ही वेद है ,नपुंसक वेद नही है !
मनुष्य और तिर्यन्चों के वेद
शेषास् त्रिवेदा:-५२
शब्दार्थ -शेषास्=शेष जीव,त्रिवेदा:-तीनो वेद के होते है !
अर्थ-शेष;सूत्र ५० और ५१ में उल्लेखित  अतिरिक्त  सब  कर्मभूमियों के जीवों;गर्भ जन्म वाले  मनुष्य/तिर्यन्च तीनो वेदी होते है !
भोगभूमिज तथा म्लेच्छ खंड के जीवों के स्त्री अथवा पुरुषवेद ही होता है !
अकाल मृत्यु निम्न लिखित जीवों की नहीं होती है -
औपपादिकचर्मोत्त्मदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः-५३ 
संधि विच्छेद -औपपादिक+चर्मोत्त्मदेह+असंख्येय+वर्षायुषो+ऽनपवर्त्य+आयुष:
शब्दार्थ-औपपादिक-उपपादजन्म वाले देवों/नारकियों की,चर्मोत्त्मदेह-उत्तम देह वाले;तत्भव मोक्षगामी जीव /श्रेष्ठ तीर्थंकरभगवान,असंख्येय-असंख्यात वर्षों से अधिक (पल्य आयु वाले भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंच) जीवों ,वर्षायुषो-वर्षों की आयु वाले की ,ऽनपवर्त्य+आयुष:-अनपवर्त्य आयु होती है अर्थात इनकी आयु भुजयमान आयु से कम नहीं हो सकती!ये बध आयु को पूर्ण कर ही शरीर छोड़ते है !
अर्थ -उपपाद जन्म वाले देव /नारकी,चरमशरीरी वाले तद्भव मोक्षगामी जीव  और उत्कृष्ट जीव तीर्थंकर भगवान,भोगभूमिज(उत्तर कुरु ,देवकुरुमें उत्पन्न दीर्घायु के जीव) के असंख्यात वर्ष की आयु वाले (पल्य आयु वाले)जीव मनुष्य/तिर्यंच का अकाल मरण नही होता,वे अपनी पूर्ण भुजयमान बध आयु पूर्ण कर ही शरीर त्यागते है!उनकी आयु कम नहीं हो सकती अर्थात इनका अकाल मरण नहीं होता है!
विशेष-
१-संख्यात आयु -की इकाई अचल अर्थात ८४ की घात ३१ x१० की घात ८० है !इससे ऊपर की संख्या असंख्यात है !सन्दर्भ-आदि पुराण पृष्ठ ६५-विरचित आचर्य जिनसैन !
२-ऽनपवर्त्य आयुष:-जिन जीवों की आयु ,बंध आयु से कम नहीं होती!अपवर्त्य आयु -जिनकी आयु विष आदि के सेवन से कम हो सकती है !
३-भुजयमान आयु का उत्कृष्ण नहीं हो सकता,मात्र उदीरणा हो कर कम हो सकती है !इसलिए प्रश्न उठता है की क्या सभी संसारी जीवों की आयु का क्षय हो सकता है ?या इसके कोई अपवाद भी है !
इसका उत्तर देने के लिए आचार्य उमास्वामी जी ने उक्त सूत्र रच कर  बताया है, कि उपपाद जन्म वाले नारकी /देवों का,तद्भवमोक्षगामी मनुष्यों/तीर्थंकरों,असंख्यात वर्षो की आयु वाले मनुष्य/तिर्यन्चों की भुजयमान आयु का क्षय नहीं होता है!उनकी पूर्ण आयु भोगकर ही पर्यायका अंत होता है!इन जीवों की भुज्यमान आयु के प्रारम्भ होने के प्रथम समय से,आयु के जितने निषेक होते है वे क्रमश: एक एक ही उदय में आकर निर्जरित होते है! शस्त्र,विषादिक बाह्य निमित्तों से उनका घात नही होता है!किन्तु ऐसा नहीं है कि इन जीवों के आयुकर्म की उदीरणा नहीं होती हो!उदीरणा होना संभव है किन्तु निषेक का स्थिति घात न होकर ही उदीरणा होती है !स्थितिघात का अर्थ है कि इनके पूरे निषेको का उदीरणा के द्वारा क्षय नहीं होता है !
इस  विशेष नियम करने का कारण है कि कर्मशास्त्र  के अनुसार; निकचित,निधत्ति और उपशमकरण को प्राप्त कर्म के अतिरिक्त, अन्य कोई भी अधिक स्थिति वाला कर्म, उभयरूप कारण विशेष के मिलने पर अल्पकाल में भोगा जा सकता है!भुजयमान आयु पर भी यह नियम लागू होता है इसलिए इस सूत्र की व्यवस्था  करी गई है !
अकाल मृत्यु का कारण -कर्म भूमि के मनुष्यो और तिर्यन्चों की भुजयमान आयु की उदीरणा  होती है जिससे आयु की स्थिति जल्दी पूर्ण होकर अकाल मृत्यु हो जाती है!जैसे कि आम को पाल मे रखकर समय से पूर्व पका लिया जाता है !इसको एक उद्धाहरण से समझते है -
किसी जीव ने मनुष्यायु  के १०० वर्ष की स्थिति का बंध कर १०० वर्ष की आयुबांधी!आयुकर्म के जितने प्रदेशबंध किया १००वर्ष के जितने समय होते है उतने समयों में उन कर्म परमाणुओं की निषेक रचना तत्काल हो गयी!जब वह जीव मरकर मनुष्य पर्याय में आया तो प्रति समय एक एक आयु कर्म का निषेक उदय में आ कर निर्जरित होने लगा!इसी प्रकार यदि प्रत्येक समय एक एक आयुकर्म का निषेक उदय में आकर निर्जरित होता रहता तो १०० वर्ष में सारे निषेक उदय में आते जिससे १०० वर्ष की मनुष्य पर्याय की बंध आयु पूर्ण हो जाती !अब ५२ वर्ष तक तो प्रति समय १-१ निषेक आयुकर्म के उदय में आकर  निर्जरित होते रहे जिससे ५२ वर्ष की आयु पूर्ण हो गयी !इसके बाद किसी ने पाप कर्म के उदय में  विष दे दिया /या स्वयं ले लिया /या किसी रोग से ग्रसित हो जाने पर/किसी के द्वारा वध किये जाने पर.शेष बंध आयु के ४२ वर्ष में आने वाले आयु कर्म के निषेकों की उदीरणा अंतर्मूर्हत में ही हो जाने से अकाल मरण होजाता है !
यदि किसी  जीव ने आयु ही ५ वर्ष की बांधी तो यह अकाल मरण नहीं है !
४- कुछ लोगो की मान्यता है की केवली ने,सब कुछ केवलज्ञान में  देख/जान रखा है की अमुक जीव की अमुक आयु है,तब अकाल मरण कैसे सम्भव है क्योकि केवली ने तो पहिले ही उस जीव की आयु जान रखी है ?
समाधान-जो लोग ऐसा मानते है वह आगम सम्मत नहीं है क्योकि केवली ने तो केवलज्ञान में  यह भी जाना/देखा है कि अमुक जीव ने अमुक आयु का बंध किया है और अमुक वर्षो मे ही अकाल मृत्यु को प्राप्त कर जाएगा!इसलिए जो अकाल मृत्यु नहीं मानते उनकी धारणा,आगम सम्मत नही है !
५-निगोदिया और सूक्ष्म जीवों का भी अकाल मरण संभव है उनका नाम भी उक्त सूत्र में नही है!
आचार्यश्री उमास्वामी जी की मानव सभ्यता सदा ऋणी रहेगी जिन्होने भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित जीव विज्ञान को हमारी पीढ़ी तक पहुँचाया!आधुनिक विज्ञान तो अभी नित्य नवीन अनुसंधानों में ही लगा है,कुछ का ज्ञान प्राप्त करने में सफल हुआ है जबकि ज्ञान का अथाह सागर अभी भविष्य की गर्थ में लुप्त है!उद्धाहरण के  लिए स्थावर जीवों ;पृथिवीकायिक,जलकायिक,अग्निकायिक ,वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों की सत्ता जैनागम में पूजनीय ऋषभदेव भगवान तीर्थंकरो ने बहुत पहिले प्रतिपादित करी है किन्तु आधुनिक विज्ञान मात्र वनस्पतिकायिक की सत्ता प्रमाणित करने में कुछ वर्षों पूर्व ही सफल हुआ है !
 इस प्रकार आचार्य उमास्वामी  विरचित तत्वार्थ सूत्र जी के द्वितीय अध्याय,जीवों की उत्पत्ति,भेद  और विकास की इतिश्री हुई!मुझ  जैसे अल्पज्ञानी द्वारा  त्रुटियाँ  रह गई हो तो बुद्धिजीवी प्रबुद्ध  विनम्र निवेदन है उन्हें ठीक कर मेरा मार्ग दर्शन कर अनुग्रहित करने की कृपा करे!


आचार्य वीर सेन स्वामी के अनुसार जीव का  अकाल मरण नही होता है क्योकि -  ,  !
धवला जी पुष्प १० .पृ. २३७
"परभविआउए बद्धे पच्छा भुंजमाणाउअस्स कदलीघादो णत्थि जहासरूवेण चेव वेदेदित्ति जाणावणट्ठं कमेण कालादोत्ति उत्तं।परभवियाउअं बंधिय भुंजमाणाउए घादिज्जमाणे को दोसो त्ति उत्तेण, णिज्जिण्ण भुंजमाणा  उअस्स अपत्तपरभवियाउअउदयस्स चउगइबाहिर- स्स जीवस्स अभावप्पसंगादो।जीवा णं भंते।
 अर्थ-परभव संबंधी आयु के बंधने के पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीघातनही होता,किन्तु वह जितनी थी उतनी का वेदनकरता है,इस बात का ज्ञ...
ान कराने के लिए 'क्रम से काल' को प्राप्त होकर' यह कहा है !
शंका -परभविक आयु को बांधकर भुज्यमान आयु का घात मानने में कौन सा दोष है ?
समाधान-नही,क्योकि ,जिसकी भुजयमान आयु की निर्जरा हो चुकी है,किन्तु अभी तक पर भविक आयु का उदय नही प्राप्त हुआ है,उस जीव का चतुर्गति के बाह्य हो जाने से अभाव को प्राप्त होता है !
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अधिक जानकारी के लिए.... 
तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
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अध्याय 9
अध्याय 10

Manish Jain Luhadia 
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