तत्वार्थ सूत्र(मोक्ष शास्त्र जी ) अध्याय ६- आस्रव
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तत्वार्थ सूत्र(मोक्ष शास्त्र जी ) अध्याय ६- आस्रव (आचर्यश्री उमास्वामी जी रचित)


तत्वार्थ सूत्र(मोक्ष शास्त्र जी )  
(आचर्यश्री उमास्वामी जी रचित)
अध्याय ६- आस्रव
आचार्य उमास्वामी जी की जय
पंचपरमेष्ठी की जय !
विश्व धर्म "जैन धर्म" की जय !
'मोक्षमार्गस्य नेतराम ,भेतारं कर्मभूभृतां !
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां,वन्दे तद्गुणलब्द्धये' !!

 सभी धर्मानुरागी बंधुओं/बहिनो से विनम्र निवेदन है कि,इस अध्याय में"आस्रव",
तीसरे तत्व के २७ सूत्रों का मनोयोग से दत्तचित्त होकर स्वाध्याय करे;उनका चिंतवन/मनन कर,अपने जीवन में अंगीकार करे,जिससे आप कर्मों केआस्रव/बंधके कारणों को हृदयांगम कर, उससे बचने की दिशा में पुरुषार्थ कर,न्यूनतम कर्मों का आस्रव/बंध कर अपने सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन का उत्थान कर सके! 

आस्रव-जो शरीर,वचन अथवा मन की क्रिया से आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे  योग  कहते है!योगो की प्रवृत्ति से आत्मप्रदेशों में कर्मों का आस्रव होता है,कर्मों के आत्मप्रदेशों में आगमन को आस्रव कहते है!शुभ और अशुभ योग से क्रमश; दोनों प्रकार शुभ और अशुभ कर्मों का आस्रव होता है,जिस योग की प्रधानता होती है उसके अधिक और दुसरे के कम कर्म बंधते है!हमारे आत्मप्रदेशों में ही कर्मवर्गणाये,पुद्गल वर्गणाओं रूप में रहती है,जैसे ही हम मन,वचन,अथवा काय से कोई क्रिया करते है वे कर्माणपुद्गल वर्गणाए,आत्मप्रदेशों में परिस्पन्द करने से कर्म रूप बंध जाती है!यह समस्त क्रिया बंध और आस्रव है,कर्मों का आस्रव-बंध एक ही समय युगपत् होता है!
इस अध्याय में उमास्वामी आचार्यश्री २७  सूत्रों के माध्यम से तीसरे 'आस्रव' तत्व के कारणों, उस के भेद,जीवाधिकरण,अजीवाधिकरण और अष्ट कर्मों के आस्रवों के कारणों पर उपदेश देते हुए प्रथम सूत्र में योग को परिभाषित करते है-
आस्रव क्यों होता है-
कायवाड.मन:कर्मयोग: !!१!!

संधिविच्छेद:-काय+वाड.+मन:+कर्म+योग:
शब्दार्थ:-काय-शरीर,वाड.-वचन,मन:-मन की,कर्म-क्रिया,योग:-योग है!

अर्थ-काय-शरीर ,वचन और मन की क्रिया योग है
भावार्थ-शरीर,वचन अथवा मन की क्रिया से आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन(हलन-चलन,/
संकोच-विस्तार) को योग कहते है!योग के निमित्त,सामान्य से ३ और विशेष से १५  है!

 आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन काया,वचन और मन की,क्रिया से क्रमश: काययोग, वचनयोग और मनोयोग कहलाता है!
काययोग-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से होने पर औदारिकादि;सात प्रकार की कायवर्गणाओं में से किसी एक वर्गणा की सहायता से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है,उसे काययोग कहते है !
काययोग के भेद:-सात-१-औदारिक,२-औदारिकमिश्र,३-वैक्रियिक,४-वैक्रियिकमिश्र,५-आहारक,६-आहरकमिश्र तथा ७-कार्मण काययोग!

स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु और श्रोत पंचेन्द्रियां भी काय में ही गर्भित है !
वचनयोग-वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम होने से जीव में वाग्लाबधि प्रकट होती है और वह बोलने के लिए ततपर होता है,तब वचनमर्गणा के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होता है उसे वचन योग कहते है !
वचनयोग के भेद:-चार;

१-सत्यवचनयोग- वचनों में सत्यत्व हो,२-असत्यवचनयोग-वचनों में असत्यत्व हो,३-उभयवचनयोग-वचनों में सत्यत्व और असत्यत्व  दोनों हो ,तथा४- अनुभयवचनयोग-वचनों में सत्यत्व  और असत्यत्व दोनों ही नही हो  और
मनोयोग वीर्यान्तरायकर्म और नो इन्द्रयावरणकर्म के क्षयोपशम से मनोलब्धि के होने पर तथा मनो वर्गणा के आलंबन के निमित्त से,जीव के चिंतन के लिए ततपर,आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता है,वह मनोयोग कहलाता है
मनोयोग के भेद:-चार;

१-सत्यमनोयोग-मन में सत्यत्व ,२-असत्यमनोयोग -होमन में असत्यत्व हो,३-उभयमनोयोग-मन में सत्यत्व और असत्यत्व दोनों हो ,४-अनुभयमनोयोग-मन में  सत्यत्व  और असत्यत्व   दोनों ही नही हो  इस प्रकार तीनो;,काय,वचन और मन,योगो के कुल १५ उत्तर भेद है!
विशेष 

१-वर्तमान में हमारे चारों मनोयोग,चारों वचनयोग और औदारिक काययोग,कुल ९ में से,एक समय में एक ही योग हो सकता है!हमें भ्रान्ति हो सकती है कि जब हम चलते है,उसी समय बोलते भी है,   उसी समय चिंतवन भी करते है,किन्तु वास्तव में ऐसा होना असंभव है!जब मनोयोग,वचनयोग अथवा काययोग का कोई भी एक भेद हो रहा हो तब योग का अन्य कोई भेद नहीं हो सकता!आत्मा का उपयोग जिस ऒर होता है,वही योग होता है अन्य नहीं! जब हम सोचते है,उस समय मनोयोग ही होता है चाहे हम संस्कार वश उसी समय शरीर से भाग भी रहे हो,किन्तु आत्मा का उपयोग उस ऒर नहीं हो रहा होता है, अत: उस समय काययोग नहीं होता है!जब हम टी.वी पर कोई कार्यक्रम देखते है,उस समय हमें चक्षुइंद्री से देखने और कर्ण इंद्री से सुनने की अनुभूति एक साथ होती है किन्तु वास्तव में ऐसा होता नहीं है क्योकि एक समय में हम आत्मा का उपयोग एक ही ऒर लगा सकते है!इस का प्रमाण है कि हम टी.वी.पर प्रवचन सुनते समय उसको निर्विघ्न काय (हाथ)से साथ-साथ लिख नहीं पाते है!
२-केवली भगवन के दो वचन योग:-१-सत्यवचनयोग-वचन सत्य होने के कारण,२-अनुभय वचन योग:-भाषा अनुभय होने के कारण तथा दो मनो योग:-१ सत्यमनोयोग-सत्य वचन बोलने से पहले जो मन का उपयोग सत्य बोलने के लिए हुआ,उस कारण और,२-अनुभय मनोयोग-अनुभय वचन होने के कारण!उनके तीन काययोग होते है!सामान्य से जब वे समवशरण में विराजमान रहते है अथवा विहार करते है तब उनका औदारिक काययोग होता है!उनका दंड-समुदघात में औदारिककाययोग,कपाट समुद घात में औदारिकमिश्र काययोग और प्रतर व लोकपूर्ण समुद्घात में कार्माण काय योग होता है।
विशेष-वीर्यान्तराय और ज्ञानावरण के क्षय होने पर सयोगकेवली के तीन;वर्गणाओं; काय, वचन और मन  की अपेक्षा जो आत्म प्रदेश में परिस्पंदन होता है वह कर्म क्षय निमित्तक योग है !जो की १३ वे गुणस्थान तक ही रहता है आयोग केवली के तीनों वर्गणाओं का आगमन रुक जाता है!जिससे वहां योग का अभाव हो जाता है !

३- योग के आठ अंग -
१-यम :-अहिंसा,सत्य ,अस्तेय ,ब्रह्मचर्य व  अपरिग्रह रूप मन वचन काय का संयम यम है !
२-नियम:-शौच ,संतोष,तपस्या। स्वाध्याय,व् ईश्वर प्रणिधान ये नियम है !
३-आसान:-पद्मासन ,वीरासन ,आसान है 
४-प्राणायाम -श्वासोच्छ्वास का गति निरोधप्राणायाम है !
५-प्रत्याहार-इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना प्रत्याहार है !
६-धारणा -विकल्पपूर्वक किसी एक काल्पनिक ध्येय में चित्त को नष्ट करना धारणा है 
७-ध्यान-ध्यान,ध्याता व् ध्येय  को एकाग्र प्रवाह ध्यान है !
८-समाधि-ध्यान,ध्याता व ध्येय रहित निवृत्त चित्त समाधि है !
चित्त (मन )की पांच अवस्थाये-
१-क्षिप्तचित्त-चित्त का संसारी विषयो में भटकना !
२-मूढ़चित्त-चित्त का निंद्रा आदि में  रहना !
३-विक्षिप्तचित्त-सफलता-असफलता के झूले में झूलना !
४-एकाग्रचित्त-एक ही विषय में केंद्रित रहना !
५-निरुद्धचित्त-समस्त प्रवृत्तियों का रुक जाना !,
४-५ वी अवस्थाये योग के लिए उपयोगी है !
चित्त (मन) के रूप -
१-प्रख्या-अणिमा आदि ऋद्धियों की अनुरक्ति/प्रेमी प्रख्या है 
२-प्रवृत्ति-विवेक बुद्धि के जागृत होने पर चित्त धर्ममेय समाधि में स्थित हो जाता है तब पुरुष का बिम्ब चित्त पर पड़ता है और चेतनवत् कार्य करने लगता है!यही चित्त की प्रवृत्ति है !
९-३-१६ 
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क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन

योगका लक्षण और सूत्रप्रयुक्त कर्म शब्द के अर्थ पर विचार―शरीर, वचन और मन का कर्म योग कहलाता है । इस सूत्र में दो पद हैं । प्रथम पद में समास इस प्रकार है कि कायश्च वाक्चमनश्च कायवाङ्मनांसि तेषांकर्मइति कायवाङ्मन: कर्म । यहां कर्म शब्द का अर्थ क्रिया है अर्थात् शरीर की क्रिया, मन की क्रिया, वचन की क्रिया, यद्यपि कर्मशब्द के अर्थ अनेक होते हैं । कहीं तो कर्मकारक में प्रयोग होता है, कहीं पुण्य पाप अर्थ लिया जाता है, कहीं क्रिया अर्थ लिया जाता है, । यहां क्रिया अर्थ है, अन्य अर्थ यहां घटित नहीं होते । कर्म शब्द का एक अर्थ कर्मकारक है, वह यहां इस कारण घटित नहीं होता कि शरीर वचन और मन यहां कर्म नहीं माने जा सकते, क्योंकि कर्म होते हैं तीन प्रकार के (1) निर्वर्त्य (2) विकार्य और ( 3) प्राप्य । निर्वर्त्यं कर्म उसे कहते हैं जो रचा जाये । जैसे लोहे की तलवार बनायी जा रही है तो यहां बनाने वाला लोहार है और वह तलवार को बनाता है तो वह तलवार किस तरह बनती है कि वह लोहा ही पसर फैलकर उस रूप में आ जाता है । तो यह रचना हुई लोहे की । तो कोई कर्म तो रचनारूप होते हैं, कोई कर्म विकार्य होते हैं जैसे सेठानी जी दूध से दही को बना रही हैं तो दही का बनाना क्या? दूध में जामन डालना और उसका विकार बन गया, उस विकार का नाम दही है । तो दही जो निष्पन्न हुआ है वह दूध का विकार रूप है । निर्वर्त्य में और विकार्य में अंतर क्या आया? निर्वर्त्य में विकार नहीं है लोहा था उसे पसारकर, आकार बदलकर एक रचना ही तो हुई पर विकार नहीं आया दही में विकार आया है । उसकी बदल बन गई है । रूप भी दूसरा, रस भी दूसरा, गंध भी दूसरा, स्पर्श, भी दूसरा हो गया । एक होता है प्राप्यकर्म जैसे देवदत्त स्टेशन को जाता है तो यहां स्टेशन कर्म है तो वह प्राप्य कर्म है, अर्थात् न तो स्टेशन निर्वर्त्य है कि देवदत्त ने किसी चीज से स्टेशन की रचना की और न वह विकार्य कर्म है कि कोई चीज मिलाकर किसी चीज का विकार बन गया हो स्टेशन किंतु वह प्राप्य कर्म है । देवदत्त दो मील दूर था । अब वहाँ से चलकर उसने स्टेशन को प्राप्त कर लिया तो यों होता है प्राप्यकर्म । तो यहां देखिये कि ये तीनों ही प्रकार के कर्म कर्ता से भिन्न हैं । पर यहां शरीर, मन, वचन के जो योग हैं वे कर्ता से भिन्न हैं क्या? अगर इन्हें कर्म मानते तो इससे भिन्न कर्ता क्या? तो ये कर्म कारक में नहीं आते । यहाँ एक बात विशेष जानना कि अध्यात्मशास्त्र में कर्ता कर्म आदिक का अभेद बताया जाता । उसकी दृष्टि और है । निश्चयनय की दृष्टि में एक ही पदार्थ में षट्कारक निरखना हुआ करता है । मगर रूढ़ि में, आमरिवाज में जो कर्ता कर्म की रूढ़ि है तो वह भिन्न-भिन्न में हुआ करती है । यहां स्थूल दृष्टि से चिंतन चल रहा है कि शरीर, वचन और मन ये कर्मकारक नहीं है । तो दूसरा कहा गया था कि ये पुण्य, पापरूप होंगे सो पुण्य पापरूप भी कर्म यहां नहीं माना, क्योंकि यदि इनका पुण्य पापरूप से अभिप्राय होता तो आगे सूत्र स्वयं कहा जायेगा―शुभपुण्यस्याशुभ: पापस्य यदि पुण्य पाप यहां प्रयुक्त कर्म का अर्थ माना जाता तो आगे इस पुण्य पाप का जिक्र क्यों करते, इससे पुण्य पाप वाला कर्म भी इस सूत्र में कहे गए कर्म शब्द का अर्थ नहीं है । तब फिर क्रिया ही अर्थ रहा । शरीर, वचन, और मन की क्रिया योग है अथवा कर्मकारकरूप से भी समझना हो तो कर्ता मानो आत्मा को और उसके कर्म हुए शरीर, वचन, मन, तो इस प्रकार कर्म लगाये जा सकते हैं, पर यहां मुख्यता क्रिया की है । यहाँ यह बात भी समझने योग्य है, योग परमार्थ से शरीर, वचन, मन की क्रिया नहीं है, किंतु शरीर, वचन, मन की क्रिया करने के लिए उस क्रिया के अभिमुख जो आत्मप्रदेशों का परिस्पंद है वह योग कहलाता है ।

(2) कर्म शब्द की निष्पत्ति व योग की त्रिविधता―कर्म शब्द की निष्पत्ति कैसे हुई है । तीनों साधनों में कर्म शब्द की निष्पत्ति हुई है । जैसे―आत्मा के द्वारा जो परिणाम किया जाता है वह कर्म है । तो ‘आत्मना क्रियते तत् कर्म’ यह कर्म साधन हो गया । 'आत्मा द्रव्य भावरूपं पुण्यं पापं करोति इति कर्म ।’ आत्मद्रव्य भावरूपं कर्म को करता है तो यह कर्तृसाधन हो गया । और जब ऐसी क्रिया पर ही दृष्टि हुई तो वह भाव साधन हो गया । 'करणं कृतिर्वा कर्म' निश्चय से तो आत्मा के द्वारा अत्मा का परिणाम ही किया जाता है, पर निमित्तनैमित्तिक भाव के कारण व्यवहारदृष्टि से आत्मा के द्वारा योग शब्द भी कर्ता, कर्म, करण साधन में प्रयुक्त होता है । यहाँ एक शंकाकार कहता है कि आत्मा तो अखंड द्रव्य है और तीनों प्रकार के योग आत्मा के परिणाम स्वरूप हैं । तो परमार्थदृष्टि से तो तीन भेद योग के न होना चाहिए । फिर यहां ये तीन भेद कैसे किए गए? उत्तर―पर्यायदृष्टि से ये व्यापार भिन्न-भिन्न हैं, इस कारण योग के तीन भेद हो गए । जैसे मानो आम्रफल का परिचय करना है तो आम तो एक पदार्थ है, उसमें भेद क्यों हों? लेकिन चक्षु इंद्रिय से देखने पर आम में रूप विदित होता है तो घ्राणइंद्रिय से परिचय करने पर आम में सुगंध परिचत होती है और रसना इंद्रिय से परिचय करने पर मीठा खट्टा, इस प्रकार परिचय होता है, और स्पर्शन इंद्रिय से परिचय करने पर कोमल, कठोर ऐसा कुछ अनुभव होता है । तो आम तो एक वस्तु है दृष्टांत के लिए, किंतु इंद्रिय के व्यापार के भेद से उसमें चार भेद जैसे विदित हो गए हैं इसी तरह पर्याय के भेद से योग में भी भेद समझ लेना चाहिए । तो यहाँ आम्रफल में तो चक्षुइंद्रिय आदिक के निमित्त से रूप रस आदिक पर्यायभेद सिद्ध हुए हैं, क्योंकि ग्रहण भेद से ग्राह्य भेद होता ही है । इस प्रकार आत्मा में पूर्वकृत कर्मोंदय के निमित्त से, क्षयोपशम आदिक के निमित्त से शक्तिभेद भी होता है और योगभेद भी होता है।

(3) योगों की निष्पत्ति का सहेतुक विधान―देखिये पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से शरीरादिक मिले हैं तो वहाँ शरीर, वचन, मन की वर्गणा में से किसी वर्गणा के आलंबन होने पर और वीर्यांतराय के क्षयोपशम से और मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से जो अंतरंग में वचनलब्धि प्राप्त हुई है तक वचन के परिणमन के अभिमुख आत्मा का जो प्रदेश परिस्पंद है वह वचनयोग कहलाता है । इस प्रकार सीधे स्पष्ट जाने कि योग तो आत्मा का प्रदेश परिस्पंद है । वह योग यदि वचन के अभिमुख है, वचन व्यापार करने के लिए निमित्तभूत हो रहा है तो वह कहलाता है वचनयोग । पर वचनयोग होने के लिए प्रथम तो शरीर चाहिए ना, वह शरीर नामकर्म के उदय से मिल गया, फिर उसकी शक्ति चाहिए, सो वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से शक्ति मिल गई, फिर इतना ज्ञान चाहिए कि जिससे वह वचन बोल सके, तो मतिज्ञानावरण का क्षयोपशम मिल गया, ऐसी स्थिति में वचनवर्गणा का आलंबन होने पर जो आत्मा का प्रदेश परिस्पंद है उसे वचनयोग कहते हैं, इसी तरह मनोयोग भी वह आत्मा का प्रदेश परिस्पंद है जो मन के परिणाम के अभिमुख है इसमें भी क्या-क्या साधन हुआ करते हैं कि पहिले तो शरीर नामकर्म का उदय चाहिए ताकि शरीर मिला सो वह भी मिल गया और वीर्यांतराय कर्म का क्षयोपशम हुआ और मनोज्ञानावरण का क्षयोपशम हुआ, इस प्रकार जब मन की लब्धि प्राप्त हो जाती है वहाँ फिर अंतरंग बहिरंग कारण मिलने पर विचार के अभिमुख जो आत्मा के प्रदेश परिस्पंद होते हैं वह है, मनोयोग। इसी प्रकार काययोग भी जानना । इतने साधन तो सभी में चाहने पड़ते हैं शरीर नामकर्म का उदय, वीर्यांतराय का क्षयोपशम और इसके होने पर औदारिक आदिक जो 7 प्रकारकी कायवर्गणायें हैं उनमें से किसी वर्गणा का आलंबन लेकर जो आत्मप्रदेश का परिंपंद है वह काययोग है । योग प्राय: क्षयोपशम के होने पर होता है, किंतु सयोगकेवली के ज्ञानावरण व वीर्यांतराय के क्षय पर भी होता है । वह क्षयोपशम निमित्तक रहा तो केवली भगवान में क्षय निमित्तक योग रहा । यह क्षय निमित्तक तो है पर इसका अर्थ यह नहीं कि क्षय हो चुके तो सदैव योग बना ही रहे । जो क्रिया का परिणमन करे ऐसे आत्मा के कायवर्गणा वचनवर्गणा, मनोवर्गणाके आलंबन से जो प्रदेश परिस्पंद होता है वह सयोगकेवली के योग की रीति है, पर इसका आलंबन आगे नहीं चलता इसलिए 14 वें गुणस्थान में और सिद्ध भगवान में योग नहीं होते हैं ।

(4) योग की आत्मा से कथंचित् भेदाभेद का संदर्शन व योग का प्रकृतार्थ―यहाँ एक बात यह भी जान लेना कि योग और आत्मा में कथंचित् भिन्नपना है, कथंचित् अभिन्नपना है । अभिन्नपना है ऐसा समझने में तो कुछ कठिनाई नहीं है, आत्मा है और प्रदेश परिस्पंद हो रहा उसका । तो आत्मा से प्रदेश जुदा नहीं और प्रदेश परिस्पंद जो हो रहा उससे आत्मा जुदा नहीं, लेकिन लक्षण संज्ञा आदिक के कारण उनमें भेद भी माना जा सकता है । जैसे एक पुरुष पुजारी है, किसान है, व्यापारी है । तो है तो वही पुरुष, मगर संज्ञा लक्षण आदिक के भेद से वे भिन्न-भिन्न रूप में परखे जाते हैं । अतएव वे व्यापार इससे भिन्न भी हो गए । तो ऐसे ही आत्मद्रव्य की दृष्टि से तो एकपना ही है, आत्मा, व योग तीन नहीं, हो गया, मगर क्षयोपशम जुदा-जुदा है, शरीर पर्याय जुदा-जुदा है । उसकी दृष्टि से योग तीन प्रकार का हो गया । यहां योग शब्द का अर्थ है प्रदेश परिस्पंद । योग का अर्थ ध्यान न लेना । ध्यान का वर्णन आगे ध्यान के प्रकरण में होगा । वैसे योग शब्द दोनों का पर्यायवाची है । युज् धातु समाधि अर्थ में भी आती है, पर उसका वर्णन आगे किया जायेगा । यहां उसके आस्रव बताये जा रहे हैं तो ध्यान से कहीं आस्रव होता है? प्रदेश परिस्पंद से आस्रव होता है । तो यहां योग का मतलब शरीर, वचन, काय की क्रिया है । योग शब्द का अर्थ जोड़ भी होता है । जैसे बच्चों को सवाल दिया जाता है दो तीन संख्यावों की लाइन रख दी और कहा कि इनका योग करो याने समुदाय अर्थ में भी योग का नाम चलता है, पर यहाँ समुदाय अर्थ नहीं किया जा रहा है । समुदाय अर्थ तो प्रथम पद में ही आ गया कि शरीर, वचन और मन का कर्म तो कर्म शब्द सबके साथ लिया जायेगा । शरीरकर्म, वचनकर्म और मन कर्म । पर यहां योग शब्द का अर्थ प्रदेशपरिस्पंद ही है ।

(5) आस्रवकारणपना व कायादिक्रमरहस्य का संदर्शन―इस सूत्र का तात्पर्य यह हुआ कि नवीन कर्म का आस्रव योग का निमित्त पाकर होता है, आत्मा के प्रदेश में जो परिस्पंद है वह नवीन कर्म के आस्रव का कारण है । कार्माणवर्गणा में कर्मत्व का आ जाना यह आत्मा के प्रदेशपरिस्पंद के कारण होता, यहाँ तक एक साधारण बात रही, पर उस कार्माणवर्गणा में स्थिति और अनुभाग आ जाये तो वह होता है कषायके निमित्त से । यहां केवल आस्रव का प्रकरण है । तो जो आस्रव का सीधा निमित्त हैं उसका ही वर्णन किया जा रहा है । शरीर, वचन और मन ये तीनों अजीव पदार्थ हैं, पर जीव के साथ संबंध होने से वे जीवित कहलाते हैं । तो वहां दो पदार्थ पड़े हैं―जीव और ये काय आदि पुद्गल । तो उपादान की दृष्टि से देखा जाये तो शरीर, वचन, मन की क्रियायें उन पुद्गलों में ही होती हैं और आत्मा के प्रदेशपरिस्पंद रूप क्रियायें आत्मा में होती हैं, किंतु जो आत्मप्रदेशपरिस्पंद काय, वचन, मन में से जिसकी क्रिया के लिए हो रहा हो उसमें उसका नाम जोड़ा जाता है । तो आरोप होने से योग के तीन नाम हो जाते हैं―काययोग, वचनयोग और मनोयोग प्राय: करके योग के जहां नाम आते हैं तो उनका क्रम इस प्रकार रहता है मन, वचन, काय, किंतु यहाँ काय, वचन, मन इस क्रम से प्रयोग किया गया है तो इसमें यह बात ध्वनित होती है कि काय की क्रियाविशेष विदित होने वाली और और विशेष परिस्पंद वाली है । वचनकी क्रिया काय की क्रिया की अपेक्षा कुछ कम चेष्टा वाली और वचन की अपेक्षा मन की क्रिया परिस्पंद भीतर ही उससे भी सूक्ष्म ढंग से है । तो स्थूल और सूक्ष्म की अपेक्षा इस सूत्र में काय, वचन और मन इस क्रम का प्रयोग किया गया है । एक बात यह जाहिर होती है कि कोई काय चेष्टा बिना विचारे भी हो जाती है, पर उसकी अपेक्षा वचन की क्रिया बिना विचारे नहीं होती, कम होती है । वचन बोलने में काययोग की अपेक्षा विचार अधिक चलता है और मनोयोग में तो वह विचाररूप ही है । तीसरी बात लौकिक दृष्टि से काय से होने वाला अनर्थ सबसे बड़ा अनर्थ है, वचन से होने वाला अनर्थ उससे कम है और मन में ही कोई बात सोच ले तो उससे दूसरे का अनर्थ नहीं होता, वह कम अनर्थ है, पर सिद्धांत की दृष्टि से काययोग से अधिक अनर्थ वचनयोग में है, वचनयोग से अधिक अनर्थ मनोयोग में है । ऐसे अनेक रहस्यों को संकेत करने वाले इस सूत्र में यह बात कहना प्रारंभ किया है कि जीव के साथ कर्मों का आते रहना किस प्रकार होता है? उसमें सर्वप्रथम आस्रव होता, उस आस्रव का इस सूत्र में संकेत किया है ।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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