तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ भाग ६
#1

योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्यनाम्नः २२
संधि-विच्छेद :-योगवक्रता+विसंवादनं+ च+अशुभस्य+नाम्नः


शब्दार्थ-योगवक्रता- योग अर्थात मन,वचन,काय की क्रिया में कुटिलता होना,विसंवादनं-मोक्ष मार्ग पर चलने वाले को उस मार्ग से विमुख करना,जैसे कोई दो -चार घंटे पूजा, स्वाध्याय में बैठा है उससे कहना दूकान में बैठो,कुछ अधिक लाभ होगा पूजादि में क्या रखा है ,च अशुभस्यनाम्नः-और अन्य कार्य अशुभनाम कर्म के आस्रव के कारण है!
भावार्थ- अशुभ नाम कर्म से तात्पर्य; बेजोंक शरीर,खराब गति,दु:स्वर,अपयश आदि अशुभ नामकर्म से मिलते है !ये अशुभ नामकर्म के आस्रव मन,वचन और काय की कुटिलता एवं विसंवाद के कारण होता है! 'च' से अभिप्राय,इनके अतिरिक्त अन्य कार्य जैसे,सप्त व्यसनों का सेवन करना,व्रतो को धारण नहीं करना,कषायों की तीव्रता होना,पापमय वृत्ति होना,पाच इन्द्रिय विषयों में लिप्त होना आदि,धार्मिक कार्यों; देव-पूजन आदि में अरूचि होना अर्थात सभी अशुभ कार्यों से अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है
शंका-योगवक्रता तिर्यंचायु के आस्रव का कारण बताया है तो वह नामकर्म के आस्रव का कारण कैसे हो सकता है ?
समाधान- नियम है की प्रत्येक,निगोदया से सर्वार्थ सिद्धि तक के जीव के प्रति समय सातों कर्मों का आस्रव होता ही है तथा आयु बंध के ८ अपकर्ष कालों में आठों कर्मो का आस्रव होता है!अब कोई जीव यदि मायाचारी कर रहा है तो उसके ज्ञानावरण,दर्शनावरण,कर्म का तीव्र बंध होगा,असाता वेदनीय, दर्शनमोहनीय,चारित्रमोहनीय का आस्रव-बंध होगा,आयु का अपकर्ष काल होगा तो तिर्यंच आयु का आस्रव-बंध होगा,उसके अशुभनामकर्म,नीचगॊत्रकर्म,अन्तरायकर्म अशुभ बंधेगा! बहुआरम्भ और बहु  परिग्रह से केवल नरकायु का अपकर्ष काल में बंध नहीं होगा वरन ज्ञानावरण, दर्शनावरण, असाता वेदनीय,दर्शनमोहनीय,चारित्रमोहनीय,अशुभनामकर्म का बंध होगा! एक परिणाम से एक ही कर्म का आस्रव-बंध नहीं होता,वह परिणाम सातों कर्मो में विभक्त होता है!
शंका-योगवाकर्ता और विसंवादन में क्या अंतर है -
समाधान-योगवकर्ता स्वगत है और विसंवादन प्रगत है!कोई मनुष्य किसी को मन वचन काय से  धोखा देता है वह स्वगत है,योग वक्रता है!कोई व्यक्ति किसी की धार्मिक क्रियाओं का आवरण कर रहा है,उसे उसके, विपरीत मन वचन काय की प्रवृत्ति रोकने की,ऐसा मत करो,विसंवादन है!दुसरे को       धोखा देना विसंवादन है  अर्थात दोनों में एक कारण है दूसरा कार्य ! 

शुभ नाम कर्म के आस्रव  कारण -

तद्विपरीतं शुभस्य !!२३!!
संधि विच्छेद - तद्विपरीतं+शुभस्य
शंदार्थ -तद्विपरीतं-उसके विपरीत, अर्थात योग वक्रता और विसंवाद के विपरीत,शुभस्य - ये शुभ नाम कर्म के आस्रव के कारण है!
अर्थ- अर्थात योगों की सरलता और सह धर्मियों को सही मार्ग पर लगाना, गलत मार्ग पर चलने वालों को सही मार्ग पर लगाना,उनसे झगड़ा नहीं करना,विसंवाद का विपरीत संवाद है! ये शुभ नाम कर्म के आस्रव के कारण है!
भावार्थ – योगो; मन,वचन, काय की सरलता होना और विसंवाद; नही होना; मोक्ष मार्ग या धर्म मार्ग पर नहीं चलने वालो को मोक्ष मार्ग/धर्म मार्ग पर लगाना,सप्तव्यसनों का सेवनका त्याग,चुगली न करना, पञ्चपापों में प्रवृत  नहीं रहना,पर निंदा नहीं करना,अन्य के दोषों को न देखना,कषायमय प्रवृत्ति न होना,धार्मिक प्रवृत्ति होना,गुरुपरस्ती में लगना,सर्व जीवों से मैत्री भाव व उनपर दया भाव रखना आदि शुभ परिणाम,शुभ नाम कर्म के आस्रव के कारण है!
                                           

शुभ नाम कर्म                      - अशुभ नाम कर्म
शुभ स्पर्श रस,गंध,वर्ण -२०          अशुभ  स्पर्श रास गंध वर्ण-२०  
मनुष्यगति और देवगति             नरक गति और तिर्यंचगति 
मनुष्यगत्यानुपूर्वी,देवगत्यानुपूर्वी          नरकगत्यानुपूर्वी
तिर्यंचगत्यानूपूर्वी       
पंचेन्द्रिय जाति                  एक,दो,तीन,चार इन्द्रिय पर्याप्तक                           अपर्याप्तक
बादर                               सूक्ष्म
स्थावर                              
सु:स्वर                            दु:स्वर
अंगोपांग-३  
परघात                           उपघात 
उद्योत                           आताप 
                          
यश                               अपयश
त्रस                                स्थावर
सुस्वर                              दुस्वर 
सुभग                              दुभग 
शुभविग्रहगति                     अशुभविग्रहगति
अदेय                            अनादेय 
श्वसोच्छ्वास
स्थिर                             अस्थिर
शुभ                              अशुभ 
अगुरुलघु
तीर्थंकरप्रकृति
प्रत्येक                             साधारण
उदयोत                            
निर्माण
५ शरीर  
५ संघात
५ बंध
सम्चतुर्संस्थान                    बाकी ५ संस्थान 
वज्रऋषभनारांच सहनन             बाकी ५  सहनन 

 
शंका -क्या शुभ नाम कर्म के आस्रव के कारण सूत्र २३ में बताये ही है -
समाधान -नहीं तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी निम्न सूत्र में बताया शुभ नाम कर्म का आस्रव है -


तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव का कारण -
दर्शनविशुद्धिर्विनयसम्पन्नताशीलव्रतेष्वनतीचारोऽअभीक्ष्णज्ञानोपयोग
संवेगौशक्तितस्त्यागतपसीसाधुसमाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुत प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थंकरत्वस्य !!२४!!
संधि विच्छेद-दर्शनविशुद्धि:+विनयसम्पन्नता+शीलव्रतेष्वनतीचार+अभीक्ष्ण(ज्ञानोपयोग+संवेग)+शक्ति(तस्त्याग+तपसी)+साधुसमाधि+वैयावृत्यकरणं+(अर्हद+आचार्य+बहुश्रुत+प्रवचन)भक्ति+आवश्यकापरिहाणि +मार्गप्रभावना+प्रवचन+वत्सलत्वं+ इति+ तीर्थंकरत्वस्य
सोलह कारण भावनाए इस सूत्र में समावेशित है-


शब्दार्थ -दर्शनविशुद्धि- विनयसम्पन्नता- शीलव्रतेष्वनतीचार -अभीक्ष्णज्ञानोपयोग-अभीक्ष्णसंवेग शक्तितस्त्याग-शक्तितस्तप-साधुसमाधि-वैयावृत्यकरणं-अर्हदभक्ति-आचार्यभक्ति-बहुश्रुतभक्ति-प्रवचनभक्ति-आवश्यकापरिहाणि,मार्गप्रभावना-प्रवचनवात्सल्य इति-ये,तीर्थंकरत्वस्य-तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव का कारण है 

भावार्थ- -तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव का कारणउ क्त  सोलह कारण भावनाए है -
१-दर्शनविशुद्धि- सच्चे देव शास्त्र गुरु का पक्का श्रद्धां होना,सम्यग्दर्शन में अत्यंत विशुद्धि होना,सच्चे देव शास्त्र गुरु में रूचि रखना दर्शनविशुद्धि भावना है! भावना से अभिप्राय किसी कार्य में निरंतर लगे रहना,निरंतर चिंतवन करना,उसकी धुन लगने से है!दर्शंविशुद्धि भावना वाले जीव की सच्चे देव,शास्त्र गुरु में बहुत रूचि रहती है,वह निरंतर अपने सम्यगदर्शन की विशुद्धि के लिए निरंतर चिंतवन करता रहता है!वह अपने सम्यक्त्व में शंका आदि ८ दोषों,८ मद ,६ अनायतन और ३ मूढ़ता से बचने का यत्न करता रहता है! वे अपने सम्यग्दर्शन के आठों अंगो का भली प्रकार पालन करते है! जिस की ऐसे भावना निरंतर रहती है,उसकी दर्शनविशुद्धि भावना होती है!यह प्रमुख भावना है,केवल इस भावना के सद्भाव में भी  तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव संभव है क्योकि इसके साथ साथ अनेक भावनाए स्वयं पायी जाती है!इसके अभाव में यह आस्रव असंभव है !
२-विनयसम्पन्नता भावना -समय्ग्दर्शन, सम्यगज्ञान,सम्यगचारित्र बड़े महान है,इनके धारक भी महान है, इसलिए इन तीनों के प्रति विनय भाव होना,विनयसम्पन्नता भावना है !
३-शीलव्रतेषु अनतिचार भावना-मेरे शील,श्रावक की अपेक्षा तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों और पञ्च अणु/महाव्रतों में अतिचार/दोष न लगने देना,निरंतर ऐसी भावना करना की मै अमुक कार्य करूँगा तो मेरे व्रतों में दोष लग जाएगा,उन कार्यों से सदा बचने  की भावना,शीलव्रतेषु अनतिचार भावना है !
४-अभीक्षण ज्ञानोपयोग भावना-निरंतर ज्ञान में उपयोग लगाना अर्थात ज्ञान की अराधना में दत्त-चित्त होना,ऐसे भावना अभीक्षण ज्ञानोपयोग भावना है!
५-अभीक्षण संवेग भावना-संवेग से तात्पर्य,संसार से भयभीत होना,धर्म/धर्म के कार्यों का फल  अच्छा होता है और पाप/पाप के कार्यों का फल बुरा होता है,ऐसा जीव निरंतर संसारिक कार्यों से भयभीत रहता है,निरंतर संसार से भयभीत रहना,अभीक्षण संवेग भावना है!
६-शक्तितस्त्याग भावना-अपनी शक्ति अनुसार त्याग करना,निर्दोष दान त्याग आदि की प्रवृत्ति में जो निरंतर लगे रहते है ,
७-शक्तितस्तपसी भावना-अपनी शक्ति को छुपाये बिना १२ तपों को तपने वाले की शक्तितस्तपसी भावना होती है!गृहस्थ के छह कर्म में और मुनि के उत्तर गुणों में तप है!दोनों ही शक्ति के अनुसार तप करने वाले हो तब शक्तितस्तपसी भावना होती है!जिसके आत्मा और शरीर का भेद विज्ञान है वो बड़े मन लगाकर तप करता है!
८-साधु समाधि भावना-साधुओ की साधना में कोई विघ्न नही आवे,इनके रत्नत्रय का पालन विधि पूर्वक हो,इनकी समाधि भी विघ्नरहित हो,ऐसी निरंतर भावना रखने वाले की,साधुसमाधी भावना होती है!
९-वैयावृत्यकरणं-भावना-मुनि आदि के रोग लग जाने पर उनकी पीड़ा दूर करने के उपायों का निरंतर चिंतवन करना,कैसे वे निरोगी होकर अपनी साधना में लग जाए,ऐसी भावना निरंतर रखने वाले की वैयावृत्यकरण-भावना होती है!जैसे श्री कृषण महाराज को हरवंश पुराण के अनुसार ,जैसे मालूम हुआ की अमुक मुनि/श्रावक को कोई रोग लग गया है,वे सब कार्यों को छोड़कर उनकी सेवा में लग जाते थे, इसी वैयावृत्य करने के कारण ही दर्शंनविशुद्धि भावना सहित होने से,उनको तीर्थंकर नामकर्म का आस्रव हुआ जिसके फलस्वरूप वे आगामी चौबीसी के १६वे तीर्थंकर भरत क्षेत्र में होंगे!
१०-अर्हदभक्ति भावना-अर्हन्त भगवान् की भक्ति में निरंतर लगे रहना वाले की अर्हदभक्ति भावना होती है
११-आचार्यभक्तिभावना-जो निरंतर आचार्य भक्ति में लीन रहे उसकी आचार्यभक्ति भावना होती है!
१२-बहुश्रुतभक्तिभावना-जो श्रुतज्ञाता,उपाध्याय की भक्ती करना बहुश्रुतभक्ति भावना है!
१३-प्रवचनभक्ति-प्रकृष्ट वचन,अर्हन्तदेव के वचनों,अर्थात जिनवाणी की भक्ति करने वालों की प्रवचन भक्ति भावना होती है !
१४-आवश्यकापरिहाणि भावना-श्रावकों/मुनियों को अपने-अपने आवश्यकों को समय पर मन लगा कर पूरे करना,किसी में कोई कमी नहीं आनी चाहिये!ऐसी आवश्य्कों के करने वाले की भावना, आवश्यक परिहाणि भावना है !
१५-मार्गप्रभावना-जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का जो दत्त चित्त होकर निरंतर चिंतवन करने वाले होते है उनकी मार्गप्रभावनाभावना होती है!
१६-प्रवचनवत्सलत्वं भावना- अर्हन्त देव के प्रकृष्ट वचनों में जिसका निस्वार्थ स्नेह भाव गाय और बछड़े की तरह हो तो प्रवचनवत्सलत्वं भावना जीव की होती है!
इन १६ भावनाओं के भाने से तीर्थंकर प्रकृति कर्म का आस्रव-बंध होता है


दर्शन विशुद्धि भावना के साथ साथ विनयसम्पन्नता भावना,अभीक्षणज्ञान उपयोग,अर्हन्तभक्ति, आचार्यभक्ति,बहुश्रुतभक्ति,प्रवचनभक्ति,भावना होगी ही और सम्यगदृष्टी होने के कारण प्रवचन वत्सल्यात्व भी होगा ही,वह साधु की वैयावृत्ति भी करेगा ही,इस प्रकार एक दर्शनविशुद्धि भावना के साथ अनेक भावनाए स्वयं हो जाती है!अतः तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म के आस्रव के लिए! दर्शनविशुद्धि भावना मुख्य भावना है
तीर्थ और तीर्थंकर -संसार से पार लगाने वाले मोक्ष-मार्ग को तीर्थ कहते है!उस तीर्थ को चलाने, अथवा अपनी दिव्य-ध्वनि के द्वारा मोक्ष-मार्ग की प्रवृत्ति कराने वालों को तीर्थंकर कहते है!
 तीर्थंकर जम्बू,,घातकी-खंड और पुष्कार्द्ध द्वीप;के भरत,ऐरावत क्षेत्र में नियम से गर्भ,जन्म,तप,ज्ञान और मोक्ष ५ कल्याणक और विदेहक्षेत्र से कदाचित ५ कल्याणक, कदाचित ३-तप,ज्ञान और मोक्ष कल्याणक और कदाचित २-ज्ञान एवं मोक्ष कल्याणक वाले होते है!ये इन कर्मभूमियों में ही होते है! क्योकि भरत और ऐरावत क्षेत्र में जो तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते है,वे अगली पर्याय में देव/नारकी बनते है,उससे अगली मनुष्य पर्याय प्राप्त कर तीर्थंकर बनते है!उसी भव में तीर्थंकर नहीं बनते है! किन्तु विदेह क्षेत्र में उसी भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर तीर्थंकर बन सकते है!किसी जीव ने गृहस्थ या मुनि अवस्था में तिर्थंकर प्रकृति का बंध किया तो उनके क्रमश: दीक्षा,ज्ञान और तप ३ कल्याणक और ज्ञान,मोक्ष २ कल्याणक होते है !
क्या मात्र १६ कारण भावनाए भाने से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है ?
 जो जीव दर्शनविशुद्धि भावना के साथ कुछ अन्य भावनाए भाते है तथा विश्व कल्याण की भावना रखते है,(यह भावना अत्यंत आवश्यक है),उनके तीर्थंकर प्रकृत्ति का आस्रव-बंध होता है!
तीर्थंकर प्रकृत्ति का आस्रव कौन जीव और कब कर सकता है?
 तीर्थंकर प्रकृत्ति के आस्रव का प्रारंभ कर्मभूमि का जीव चौथे गुणस्थान से आठवे गुणस्थान के छ्टे भाग तक (इससे पहले नहीं) केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही करता है क्योकि इन के अभाव में तीर्थंकर-नामकर्म प्रकृत्ति के योग्य भावों की विशुद्धि होना असंभव है!नारकी,तिर्यंच,और देव तीर्थंकर प्रकृत्ति का प्रारंभ नहीं करते !
क्या तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव करने वाला जीव चारों गतियों में जा सकता है ?
 तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव का प्रारंभ किसी जीव ने कर्मभूमि के मनुष्य ने किया,वह उसी भव में, विदेह क्षेत्र के जीवों की तरह,मोक्ष प्राप्त कर सकता है!यदि किसी जीव,जैसे श्रेणिक महाराज,ने तीर्थं कर प्रकृति के बंध से पूर्व नरक आयु का बंध कर लिया हो,तब वह नरकगति को जा सकता है अन्यथा मरण कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले जीव नियम से स्वर्ग ही जाते है! तीर्थंकर प्रकृत्ति का बंध करने वाले जीव तिर्यन्चों में कभी नहीं पाए जाते क्योकि जिनके तिर्यंच आयु का आस्रव हो चुका है उनके तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ ही नहीं होता है!
तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव-बंध करने वाले जीव कितने भवों में मोक्ष प्राप्त करते है ?
 वे या तो उसी भव से मोक्ष प्राप्त करते है अन्यथा नियम से एक ( देव/नारकी) भव छोड़कर तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करते है!
क्या तीर्थंकर प्रकृति का बंध निरंतर होता है?
तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रारम्भ होने के बाद निरंतर होता है, दो अपवादो को छोड़कर!,जैसे -
1-तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाला जीव क्षयोपशमिक हो,उसने पहले नराकयु का बंध करा हो तो वह मरकर नरक में जाएगा तब उसके मनुष्य पर्याय के अंतिम अन्तरमूर्हत में उसका सम्यक्त्व भी छूट जाएगा और तीर्थंकर प्रकृत्ति का बंध भी रुक जाएगा!नरक में जन्म लेने के एक अंतर्मूर्हत  में पुनः सम्यगदृष्टि हो जाएगा और तीर्थंकर प्रकृत्ति का बंध शुरू हो जाएगा!
२-तीर्थंकर प्रकृति का बंध ४थे गुण स्थान से ८वे गुण स्थान के ६ठे भाग तक होता है! कोई जीव इसका बंध करने वाला हो और वह पहले भव में यदि उपशम श्रेणी चढे, तो ८वे गुण स्थान के ६ठे भाग के बाद तीर्थंकर प्रकृति का बंध रुक जाता है,वह इससे ऊपर चड़कर जब पुनःवापिस आता है तो उसके ८वे गुणस्थान के ६ठे  भाग पर पहुचने के बाद पुनः तीर्थंकर प्रकृति का बंध शुरू हो जाएगा!
इन दो अपवादों के अतिरिक्त तीर्थंकर प्रकृति का बंध एक बार शुरू होने के बाद रुकता नहीं है!
तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले जीव कौन से स्वर्ग और नरक तक जा सकते है?
तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले जीव,तीर्थंकर प्रकृति से पूर्व नरकायु का बंध करने वाले जीव ,यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि है तो पहले नरक तक जायेगे,क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव तीसरे नरक के ऊपरी भाग तक जा सकते है,तथा स्वर्ग में सर्वार्थसिद्धि तक जा सकते है!भगवान् ऋषभदेव सर्वार्थ- सिद्धि से पधारे थे!
तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले जीव नरक में और भी है क्या?


आगम के अनुसार वर्तमान में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले असंख्यात जीव पहले से तीसरे नरक में है जो अगले भव में तीर्थंकर बन कर मोक्ष पधारेंगे!
किस गति से आकर जीव तीर्थंकर बन सकते है?
नरक और देव गति से आकर,मनुष्य गति में,जीव तीर्थंकर बन सकता है,तिर्यंच गति से आने वाला जीव तीर्थंकर नहीं बन सकते !
क्या पंचम काल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध संभव है?
यद्यपि पंचम काल में तीर्थंकर नहीं हुए किन्तु केवली और उनके बाद श्रुत केवली भी हुए!
तीर्थंकर प्रकृति के बंध के लिए केवली अथवा श्रुत केवली का पादमूल आवश्यक है! जब तक पंचम काल में केवली और श्रुत केवली थे,तब तक  किसी जीव ने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया हो तो आगम सम्मत है!किन्तु वर्तमान में,इस समय,केवली/श्रुत केवली के पाद मूल का अभाव होने के कारण तीर्थंकर प्रकृति का बंध असंभव है!
तीर्थंकर प्रकृति का उदय बंध होने पश्चात् कितने समय बाद आता है?
कर्म का उदय,दो प्रकार का-स्वमुख उदय और परमुख उदय होता है! तीर्थंकर प्रकृति की स्थिति अंत: कोड़ा-कोडी सागर प्रमाण होती है तथा उसका अबाधा काल अंतरमूहर्त होता है! अंतरमूहर्त के बाद तीर्थंकर प्रकृति को उदय में आना ही है किन्तु उसका स्वमुख उदय उस जीव के १३ वे गुणस्थान में प्रवेश करने पर आता है! अर्थात तीर्थंका प्रकृति का बंध करने वाले जीव के अन्य शुभ प्रकृति रूप परमुख उदय होना प्रारंभ हो जाता है किन्तु स्वमुख उदय १३ वे गुण स्थान में प्रवेश करने पर शुरू होता है!  
अर्हन्त और तीर्थंकर में क्या अंतर है?
सभी तीर्थंकर अर्हन्त होते है,किन्तु सभी अर्हन्त तीर्थंकर नहीं होते है!केवली- सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली भी होते है!अर्हन्त भगवन केवली तो है,किन्तु यदि उनके तीर्थंकर नाम कर्म प्रकृति  का बंध/उदय नहीं है तो उनके कल्याणक रूप महिमा नहीं होती!जिन जीवों के तीर्थंकर प्रकृति  का बंध होता है उनकी अपेक्षा ४६ गुण अर्हन्तों के बताये है ,ये तीर्थंकरों में ही पाए जाते है!सामान्य केवली में ४६ गुणों का होना आवश्यक नहीं है!
एक समय में अधिकतम कितने तीर्थंकर हो सकते है?
जम्बूद्वीप में अधिकतम ३४ =,(भरत में १.ऐरावत में-१,विदेह - ३२)इससे दुगने घातकी खंडो में ६८ हो सकते है और इसके बराबर पुश्कार्द्धद्वीप में ६८,इस प्रकार मनुश्लोक में ,ढाई द्वीप में १७० तीर्थंकर अधिकतम  हो सकते है! सुनते ऐसे है की भगवान् अजित्नात्ज जे के समय में १७० तीर्थंकर विराजमान थे किन्तु पंडित रतन लाल जैन बैनाडा जी को अनेक शास्त्रों का अवलोकन करने के बाद भी इस तथ्य का आगम प्रमाण नहीं मिला!तीर्थंकरों  की अवगाहना-कम से कम ७ हाथ और अधिक से अधिक ५०० धनुष होती है! ५२५ धनुष सामान्य केवली की अवगाहना हो सकती है!
क्या तीर्थंकर भगवन केवलज्ञान के पश्चात अंतर्मूर्हत  में मोक्ष प्राप्त कर सकते है?  नहीं,क्योकि तीर्थंकर प्रकृति के बंध के समय इस बंध के जीव, सोलह कारण भावनाओं के साथ विश्व कल्याण की भावना भी भाते है-इन संसारी जीवों,जो कि अनादि  काल से संसार भ्रमण कर रहे है, कल्याण कैसे हो? इस भावना के भाने के फलस्वरूप कोई भी तीर्थंकर केवल ज्ञान प्राप्त होने के अंतर्मूर्हत समय  में मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते! उन्हें पृथक वर्ष तक धर्मोपदेश देकर,तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए  विहार करना ही होता है!पृथक वर्ष का अर्थ  है ३ से ९ वर्ष के बीच का कोई भी समय !

नीच गोत्र के आस्रव के कारण-
परात्मनिंदाप्रशंसेसदसद्गुणोंच्छादनोद्भावनेचनीचैर्गोत्रस्य !!२५!!  
संधिविच्छेद:- (परनिंदा)+(आत्म+प्रशंसा)+ असदसद्गुणो+ उच्छादन+उद्भावने+ च+ नीचैर्गोत्रस्य
शब्दार्थ-परनिंदा आत्मप्रशंसा-दूसरो की निंदा और स्वयं की प्रशंसा करना,पर सदगुणोच्छादन-दूसरो मे विद्यमान गुणो को ढकना।आत्म असद् गुणोद्भावन-अपने अविद्यमान गुणो को प्रकट करना, -अन्य, पाप कार्य जैसे सप्त व्यसनों का सेवन,हिंसात्मक आदि अशुँभ कार्य करना,नीचैर्गोत्रस्य-नीच गोत्र के आस्रव के कारण है।

अर्थ-नीचगोत्र कर्म का आस्रव दूसरों की निंदा और अपनी प्रशंसा,दुसरे में बिद्यमान गुणों को छुपाने से,और अपन्रे अविद्यमान गुणों को प्रकट करने से,तथा अन्य पाप रूप कार्य जैसे सप्त-व्यसनों का सेवन,हिंसात्मक  आदि कार्य करने से होता है!
भावार्थ-गुणों और दोषों से रहित संसार में कोई भी व्यक्ति  नहीं है,हमें उसके गुणों का ही अवलोकन  कर  उन्हें ग्रहण करना चाहिए न की उसके दोषों को उजागर करना चाहिए! अन्यों की कमियों को ढकना और उनके गुणों को प्रकाशित करना चाहिए!अपना प्रशंसा अथवा गुणों का गान न कर,उन्हें प्रकाशित करना चहिये तथा  अपनी कमजोरियों का ध्यान कर उन्हें दूर करना चाहिए!किन्तु   व्यवहार में इसका   अधिकांशतः विपरीत ही देखना में आता  है,जो की नीच गोत्र के आस्रव का कारण है!
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#2

मुनि श्री 108 प्रमाण सागर जी महाराज
तत्वार्थ सूत्र स्वाध्याय | अध्याय 6 | सूत्र 24 | 25 Sept.2020


Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
Email: manish@frontdesk.co.in
Tel: +91 141 6693948
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#3

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तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
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