तत्वार्थ सूत्र अध्याय ५ भाग ३
#1

पुद्गल द्रव्य का उपकार -
शरीरवाङ्मन:प्राणापाना:पुद्गलानाम् !!१९!!
संधि विच्छेद-शरीर+वाङ्मन:+प्राणापाना:+पुद्गलानाम्
शब्दार्थ-
शरीर-शरीर,वाङ्मन:-वचन,मन,प्राणापाना:-श्वासोच्छ्वास(श्वास लेना और निकालना)पुद्गलानाम्-पुद्गल द्रव्य के उपकार है !
अर्थ-पुद्गल द्रव्य के; शरीर ,वचन ,मन और श्वासोच्छ्वास,जीव द्रव्य पर उपकार है !
भावार्थ-शरीर;पांच प्रकार के औदारिक,वैक्रयिक,आहारक,तेजस और कार्माण क्रमश,इन ५ शरीर नाम कर्मों के उदय से पुद्गल आहार वर्गणाओं से निर्मित होने के कारण यह पुद्गल द्रव्य के उपकार है !
वचन;भाव वचन और द्रव्य वचन दो प्रकार के है!वीर्यान्तरायकर्म और मति,श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग कर्म के उदय से जो आत्मा में बोलने की शक्ति मिलती है उसे भाव वचन कहते है!पुद्गल के निमित्त से होने के कारण वचन पुद्गल का उपकार है!इस बोलने की शक्ति से युक्त जीव के कंठ,तालु आदि के संयोग से जो पुद्गल शब्द रूप बनते है उन्हें द्रव्यवचन कहते है,ये भी पौद्गलिक है क्योकि कान से सुनायी देते है!भाषा वर्गणाओं को शब्द रूप परिणमन कर हमें बोलने की शक्ति मिलती है!यह भी पुद्गल का उपकार है
  हृदय के पास,द्रव्यमन,मनोवर्गणाओं से निर्मित है,इसी के द्वारा हम चिंतवन करते है!भावमन,गुणों और दोषों की चिंतवन करने की आत्मा की शक्तिहै!वह पुद्गलकर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त होती है हमारी आत्मा, द्रव्यमन के माध्यम से जो चिंतन करती है वह भी मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से ,अंगोपांग कर्म के उदय और वीर्यन्तराय कर्म के क्षयोपशम से करती है!यह भी पुद्गलकर्म के उदय से मिलने वाला भाव मन बन गया,अत:यह भी पुद्गल का उपकार है !
प्राणापाना:-आपना-श्वास लेना और प्राणा-छोड़ना अर्थात श्वास लेना और छोड़ना भी श्वासोच्छ्वास नाम कर्म के उदय से होता है!हम श्वासोच्छ्वास लेते है वह भी आहार वर्गणाए है, ये सभी पुद्गल द्रव्य के जीव द्रव्य पर उपकार है !
 श्वासोच्छ्वास से ही आत्मा के अस्तित्व का आभास होता है क्योकि इसकी गति को मुह पर हथेली रखने से रोका जा सकता है!जब तक श्वासोच्छ्वास चलती रहती है तब तक जीव भी जीवित है,मशीन की तरह चलता महसूस देता है !
विशेष-
१-पांच प्रकार के शरीर (औदारिक,वैक्रयिक,आहारक,तेजस और कार्माण) ,वचन ,मन और श्वासोच्छ्वास पुद्गल द्रव्य के जीव द्रव्य पर उपकार है अर्थात इनकी रचना पुद्गल द्रव्य से होती है !
२-अन्यमति शब्द को अमूर्तिक मानते है किन्तु यह मत ठीक नहीं है क्योकि शब्द मूर्तिमान कानो से सुने जाते है और मोर्तिक के द्वारा रुक भी जाते है !वह मूर्तिमान वायु द्वारा एक स्थान से दुसरे स्थान जाते भी है !शब्द की टककर से प्रतिध्वनि भी होती है इसलिए शब्द मूर्तिक है !
३-मन;द्रव्य और भावमन दो प्रकार का है!लब्धि और उपयोग लक्षण सहित भावमन पुद्गल के आलंबन से होता है इसलिए पौद्गलिक है!ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम और अंगोपांग नामक नामकर्म के उदय(निमित्त) से,जो पुद्गल गुण दोष का विचार और स्मरण आदि उपयोग के सम्मुख हुए आत्मा के उपकारक है,वे ही मन रूप से परिणत होते है अत; द्रव्य मन भी पौद्गलिक है !
शंका-मन एक स्वतत्र द्रव्य है,यह रूपादि परिणमन से रहित अणुमात्र है अत:इसे पौद्गलिक मानना आयुक्त नहीं है ?
समाधान-विचार करे मन,आत्मा और इन्द्रियों से संबध है या असंबद्ध!यदि असंबद्ध है तो आत्मा का उपकारक नहीं हो सकता,इन्द्रियों की सहायता भी नहीं कर सकता है!यदि आत्मा से संबद्ध है,तो उसके जिस प्रदेश से वह अनुमात्र मन संबद्ध है उसके अतिरिक्त अन्य प्रदेशों का उपकार नहीं कर सकता!
  मन,श्वासोच्छ्वास (प्राण और अपान )मूर्तिक है क्योकि अन्य मूर्तिक पदार्थों द्वारा इनका प्रतिघात देखा जाता है!जैसे भय उत्पन्न करने वाले बिजलीपात से मन का प्रतिघात होता है!,हाथ से मुह को ढकने से श्वासोच्छ्वास; प्राण और आपन का प्रतिघात होता है किन्तु मूर्त पदार्थ का अमूर्त पदार्थ से प्रतिघात नहीं होना चाहिए ,इससे सिद्ध होता है की ये मन ,श्वासोच्छ्वास मूर्तिक,पुद्गलमय ही है !श्वासोच्छ्वास ही आत्मा के अस्तित्व को भी प्रमाणित करता है !


पुद्गल द्रव्य क अन्य  उपकार -
सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च !!२० !!
संधि विच्छेद -सुख+दुःख+जीवित+मरण+उपग्रह:+च
शब्दार्थ-
सुख-सुख,दुःख -दुःख,जीवित-जीवन और मरण-मरण भी ,उपग्रह:-पुद्गल द्रव्य का उपकार है,च -(अन्य उपकार भी है ) !
अर्थ- इन्द्रिय जनित सुख ,दुःख जीवन,मरण भी जीव के ऊपर पुद्गल द्रव्य के उपकार है ,इनके अतिरिक्त अन्य उपकार भी है !
सुख:-साता वेदनीय कर्म के उदय और बाह्य क्षेत्र,द्रव्य ,काल और भाव के निमित्त से आत्मा के जो प्रसन्नता पूर्ण भाव होते है उसे सुख कहते है !
दुःख-असाता वेदनीय कर्म के उदय और बाह्य क्षेत्र,द्रव्य,काल और भाव के निमित्त से जो आत्मा को संक्लेश रूप परिणाम प्राप्त होते है उसे दुःख कहते है !
जीवन-आयु कर्म के उदय से जीव के एक भव में श्वासोच्छ्वास का जारी रहना जीवन है !
मरण-जीव के श्वासोच्छ्वास का रुकना उसका इस भव से मरण है!
 उपर्युक्त सभी पुद्गल कर्मों के निमित्त से होते है,इसलिए पौद्गलिक है,जीव के ऊपर पुद्गल के उपकार है !यहाँ उपकार का अर्थ केवल भलाई करने से नहीं अपितु कार्य में सहायक होने से है,जैसे फिटकरी से गंदा पानी साफ़ हो जाता है !
च-शब्द सूत्र में सूचित करता है की पुद्गल के अन्य उपकार भी है जैसे चक्षु इन्द्रिय पुद्गल का उपकार है !
 यहाँ 'उपग्रह' शब्द से सूचित होता है की पुद्गल परस्पर एक दुसरे पर भी उपकार करते है जैसे साबुन कपड़े पर,राख बर्तन पर करता है यहाँ उपकार शब्द का अर्थ निमित्तमात्र है अन्यथा दुःख,मरण उपकार नहीं कहलायेंगे !
जीवों का उपकार-
परस्परोपग्रहोजीवानाम् !!२१ !!
संधि विच्छेद -परस्पर+उपग्रहो+जीवानाम्
शब्दार्थ-
परस्पर-परस्पर,एक दुसरे पर,उपग्रहो=उपकार करते है,जीवानाम्-जीव द्रव्य
अर्थ-जीवों का एक दुसरे की सहायता करना जीव द्रव्य का उपकार है !
विशेष-
१-स्वामी अपने सेवक को वेतन देकर उस पर उपकार करता है तो सेवक अपनी सेवाएं उस स्वामी को देकर, स्वामी पर उपकार करता है !
२-गुरु शिष्यपर उपदेश देकर उपकार करता है तो शिष्य गुरु के उपदेश एवं आज्ञा ग्रहण कर उनपर उपकार करता है !
३-उपग्रह का प्रकरण होते हुए भी इस सूत्र में उपग्रह पद देने का कारण है की उपर्युक्त सूत्र में कहे गए सुख , दुःख,जीवन,मरण भी जीवकृत उपकार भी है!अर्थात जीव परस्पर में एक दुसरे को सुख दुःख भी देता है,जीवन , मरण में भी वे निमित्त मात्र (सहायक) है !
४-उपकार के प्रकरण में-विचारणीय तथ्य -
कौन द्रव्य अन्य द्रव्य का क्या उपकार करता है?क्या कोई द्रव्य अपने से भिन्न अन्य द्रव्य का भला बुरा कर सकता है?यदि कर सकता है तो जैन दर्शन में ईश्वरवाद का निषेध क्यों?कोई भी द्रव्य अपने में विध्यमान गुण पर्याय को कभी छोड़ कर दुसरे द्रव्य में प्रविष्ट नहीं होता !तब विचारणीय है कि एक द्रव्य, अपने से भिन्न दुसरे द्रव्य पर उपकार कैसे कर सकता है !
समाधान-ईश्वरवाद को मानने वाले दर्शन, प्रत्येक कार्य के प्रेरक रूप से,ईश्वर को निमित्त कारण मानते है!
उनका मानना है कि यह प्राणी अज्ञानी है अत:अपने सुख दुःख का स्वामी नही है,ईश्वर की प्रेरणा वश स्वर्ग/नरक जाता है,यह तो स्वीकार किया गया है कि जीव को स्वर्ग / नरक गतियों की प्राप्ति ईश्वर के द्वारा ही होती है !यदि ईश्वर चाहे तो गतियों में जाने से बचा सकते है !इस अभिप्राय से एक द्रव्य पर अन्य द्रव्य का उपकार माना है!तब तो ईश्वरवाद का निषेध करना,न करने के बराबर है !और यदि इस उपकार प्रकरण का भिन्न अभिप्राय है तब उसका दार्शनिक विश्लेषण होना अत्यंत आवश्यक है !
  लोक में सभी द्रव्य अपने अपने गुणों और पर्यायों को लिये (धारण किये है )हुए है !द्रव्यदृष्टि से वे अनंतकाल से जैसे है आज भी है,भविष्य में भी वैसे ही बने रहेंगे!किन्तु पर्याय दृष्टि से द्रव्य की मर्यादा के अंतर्गत सदैव वे परिवर्तनशील है!यह प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है!इसलिए प्रत्येक द्रव्य में जो भी परिणाम होता है अपनी योग्यतानुसार ही होता है! संसारी जीव कर्मो से बंधा है तो अपनी योग्यतानुसार बंधा है और यदि कालान्तर में मुक्त होगा तब भी अपनी योग्यतानुसार ही होगा,तथा प्रत्येक द्रव्य की इस योग्यतानुसार कार्य होने में बाह्य पदार्थ निमित्त माना जाता है!जैसे किसी विद्यार्थी में पढ़ने की योग्यता यदि है तभी वह पुस्तके, शिक्षक, विद्यालय आदि बाह्य निमित्त मिलने पर पढ़ कर वह विद्वान बन जाता है!परन्तु तत्वत:विचार करने पर ज्ञात होता है की पुस्तकों,शिक्षक अथवा विद्यालय ने उस की आत्मा में बुद्धि नही उत्पन्न कर दी !यदि इन  बाह्य निमित्तों में बुद्धि उत्पन्न करने की शक्ति होती तो कक्षा में पढ़ने वाले प्रत्येक विद्यार्थी की बुद्धि एक समान उतपन्न होकर सभी एक समान विद्वान बन जाते ,किन्तु अनुभव इसके विपरीत ही है !एक ही कक्षा में अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों में कोई विद्यार्थी अल्प ज्ञानी ही रह जाता है ,कोई महान ज्ञानी हो जाता है!यदि विद्यार्थी में योग्यता नहीं होगी तो शिक्षक की लाख चेष्टा पर भी वह विद्यार्थी मूर्ख ही रह जाता है !दूसरी ओर हम ऐसे दृष्टान्तों से भी अवगत है जहाँ गुरु/पुस्तकों,विद्यालयों के अभाव मे भी विद्यार्थी पढ़े है!जैसे एक- लव्य को गुरु द्रोणाचार्य ने धनुर्विद्या की शिक्षा देने से इंकार कर दिया था किन्तु फिर भी वह, इस विद्या का प्रकांड,मात्र गुरु द्रोण के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने में विध्यमान योग्यता के कारण हो गया था !इससे सिद्ध होता है कि शिक्षक कार्य की उत्पत्ति में निमित्त मात्र तो है किन्तु प्रेरक नहीं !ईश्वरवाद में ईश्वर की प्रेरकता पर बल दिया है और उपकार प्रकरण में बाह्य निमित्त स्वीकार किया है किन्तु उसे परमार्थ से प्रेरक नहीं हुआ !
काल द्रव्य का उपकार -
वर्तनापरिणामक्रिया:परत्वापरत्वेचकालस्य !!२२!!
संधि विच्छेद-वर्तना+परिणाम+क्रिया:+परत्व+अपरत्वे+च+कालस्य
शब्दार्थ-वर्तना-परिणाम-क्रिया:-परत्व-अपरत्वे च कालस्य
अर्थ-वर्तना,परिणाम,क्रिया,परत्व और अपरत्व काल द्रव्य के उपकार है !


वर्तना-जो स्वयं परिणमन करते हुए,द्रव्यों के परिणमन में सहकारी है वह वर्तना लक्षण वाला निश्चयकाल द्रव्य है,वह लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक एक कालणु के रूप में स्थित है!जो प्रति समय प्रत्येक द्रव्य में  उत्पाद ध्रौव्य व्यय स्वभावत होता रहता है,उसे वर्तना कहते है!सभी द्रव्य प्रति समय अपनी अपनी पर्याय में परिणमन करते है किन्तु इस परिणमन के लिए वाह्य निमित्त भी आवश्यक होता है जिसके अभाव में परिणमन सम्भव नहीं है,इस बाह्य निमित्त द्रव्य कहते है !उस परिणमन को कहने वाले सैकंड,मिनट,घंटा,दिन,रात,आदि व्यवहा र काल द्रव्य है जो की निश्चय काल के अस्तित्व की पुष्टि करता है !
परिणाम-अपने स्वभाव को छोड़े बिना द्रव्यों की पर्याय को बदलने को परिणाम कहते है !जैसे जीव परिणाम क्रोधादि और पुद्गल के रूप आदि है!धर्म अधर्म आकाश द्रव्यों में भी अगुरुलघु गुणों के अविभागी प्रतिच्छेद होने के कारण षटगुण हानिवृद्धि रूप परिणमन होता है!यह भी काल द्रव्य का उपकार है!
क्रिया-एक स्थान से दुसरे स्थान गमन करने को  क्रिया कहते  है,और पुद्गल में पायी जाती है!यद्यपि गमन करती वस्तुओं जैसे अंगुली ऊपर नीचे करना, धर्मद्रव्य का उपकार है किन्तु यह काल द्रव्य का भी उपकार है !
परत्व-बडेपन का अहसास परत्व है जैसे २० वर्ष का बालक १६ वर्ष से बड़ा है!व्यवहार काल का  उपकार है
अपरत्व-छोटेपन का अहसास,जैसे १६ वर्ष का बालक २० वर्ष के बालक से छोटा है व्यवहार काल का उपकार है
वर्तना निश्चित काल द्रव्य का और परिणाम,क्रिया ,परत्व ,अपरत्व  व्यवहार काल द्रव्य के उपकार है !
विशेष-
१-अपनी आत्मा में,राग-द्वेष रुप परिणाम होना,एक परिणमन से दुसरे परिणमन में जाना,ये परिणाम होना अथवा स्थिर वस्तु जैसे दीवार का  प्रति समय परिणमन होने के कारण पुराना होते रहना,चलती वस्तु में क्रिया दि होना व्यवहारकाल द्रव्य का उपकार है !
२-हमारे शरीर के प्रदेशों में स्थित सभी कालाणु हमारे परिणमन में सहकारी है!एक पूरे अखंडित द्रव्य में एक कालाणु भी परिणमन कर सकता है!अखंडित लोकाकाश द्रव्य में कही परिणमन हो रहा है तो वह समस्त लोका-काश में परिणमन कहा जाएगा जैसे लोहे की छड़ के एक कोने पर हथौड़ा मारने पर पूरी छड़ में परिणमन माना जाता है!या जैसे किसी देश के किसी गाव में कोई घटना घटित होती है तो उस से समस्त देश प्रभावित होता है !
१-३-१६


पुद्गल द्रव्य के लक्षण/गुण  -
स्पर्शरसगंधवर्णवन्त:-पुद्गला: !!२३!!
सधी विच्छेद -स्पर्श+रस+गंध+वर्ण+वन्त:+पुद्गला:
शब्दार्थ-स्पर्श-स्पर्श,रस-रस,गंध-गंध,वर्ण-वर्ण,वन्त:-सहित को,पुद्गला:-पुद्गल कहते है !=
अर्थ-जिस द्रव्य में  स्पर्श,रस,गंध और वर्ण होते है उसे पुद्गल कहते है !
विशेष-१-ये स्पर्श,रस,गंध और वर्ण गुण प्रत्येक पुद्गल में युगपत् अवश्य होंते है,यह सम्भव है कि सूक्ष्मता के कारण वे हमें आभासित नहीं हो!
२-इन पुद्गल के गुणों के उत्तर भेद २० है!
१-स्पर्श-स्निग्ध-रूक्ष,शीत-उष्ण,हल्का-भारी और कठोर-नरम-८ 
२-रस-खट्टा,मीठा,कसैला,कड़वा और चरपरा -५ 
३-गंध-सुगंध और दुर्गन्ध-२ 
४-वर्ण-काल,पीला,नीला,लाल,सफ़ेद-५
पुद्गल का गुण रूपवान होना है!जैसे कच्चे आम का रंग हरा होता है,पक्के का पीला,ये रंग पुद्गल  की पर्याय है! जैसे ज्ञान आत्मा का गुण है,मति,श्रुत आदि ज्ञान,ज्ञान की पर्याय है!प्रत्येक पुद्गल में रूप,गंध,रस;स्पर्श अवश्य होता है!जैसे आम पकने पर खट्टे से मीठा होता है,उसमें रस अवश्य रहता है,खट्टा मीठा,पर्याय है जो की बदलती है!वायु को स्पर्श से महसूस करते है किन्तु रस,गंध,वर्ण को हम अपनी लर्मश: रसना ,घ्राण और चक्षु  इन्द्रियों की सीमित क्षमता के कारण महसूस नहीं कर पाते है!

३-हमारे शास्त्रों के तथ्यों की वैज्ञानिक पुष्टि-भगवान महावीर ने लगभग २६०० वर्ष पूर्व उक्त सूत्र के माध्य म से प्रतिपादित कर दिया था कि अधिकतम परमाणु के गुण पर्याय की अपेक्षा २०० हो सकते है ,जिनका आधुनिक विज्ञान अभी  तक अन्वेषण ही कर रहा है ! १९४२ तक वैज्ञानिको ने ९२,१९५५ तक ९३,२००४ तक ununpentium  element की खोज कर इनकी संख्या ११५ ,!ununseptium २०१० में ११८ elements खोज लिये  है !जैन दर्शनानुसार इनकी संख्या २०० से अधिक कभी नही होगी!शास्त्रों के इन तथ्यों से उनकी प्रमाणकता को बल मिलता है !अत: किसी को भी इन में प्रतिपादित तथ्यों पर संदेह नही करना चाहिए ! 
पुद्गल के सूक्ष्मत: अविभाज्य भाग परमाणु के भेद- परमाणु व्यंजन पर्याय की अपेक्षा एक ही है किन्तु गुण पर्याय की अपेक्षा २०० प्रकार के होते है!
रूप की ५ पर्यायों में से कोई एक ,रस की ५ पर्यायों में से कोई एक ,गंध के २ पर्यायों में से कोई १ तथा स्पर्श की स्निग्ध-रुक्ष में से १ और शीत -उष्ण में से कोई एक ,इस प्रकार कुल ५ x ५ x २ x ४ =२०० प्रकार की परमाणु (गुणपर्याय) होते है !


पुद्गल की पर्याय-
 शब्द्बन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमछायातपोद्योतवन्तश्च !!२४!!
संधि विच्छेद-शब्द+बंध+सौक्ष्म्य+स्थौल्य+संस्थान+भेद+तम+छाया+आतप+उद्योतवन्त:+च

शब्दार्थ-शब्द-शब्द,बंध-बंध,सौक्ष्म्य-सूक्ष्मता,स्थौल्य-स्थूलता,संस्थान-आकार,भेद-टुकड़े,तम-अन्धकार, छाया-छाया,आतप-आतप,उद्योत-उद्योत,वन्त:-जो है पुद्गल की पर्याय है +च-और  जैसे अन्य पुद्गल की पर्याय कही  है  !
अर्थ-शब्द,बंध,सूक्ष्मता,स्थूलता,आकार,भेद,अन्धकार,छाया,आतप और उद्योत पुद्गल की पर्याय है !इसके अतिरिक्त आगम में कही गई पर्याय का संघ्रह कर ले !
भावार्थ-
शब्द -शब्द भाषा और अभाषा रूप से दो प्रकार के है !
भाषा रूप के भी दो भेद  है;
१-अक्षररूप भाषात्मकशब्द मनुष्यों की  व्यवहारिक  बोलिया, अक्षर रूप भाषात्मक शब्द है और
२-अनक्षररूप भाषात्मकशब्द-चिड़िया,पक्षियों,पशु आदि   की बोलिया अनक्षररूप भाषात्मक शब्द है !
अभाषा रूप शब्दों के दो भेद है
१-प्रायोगिकशब्द-जो मनुष्यों की सहयता से उत्पन्न किये जाते है इसके ४ भेद है
१-तत-चमड़े को मढ़ कर ढोल नगाड़ों द्वार किये गए शब्द तत शब्द है !
२-वितत-सीतारादि के शब्द वितत शब्द है !
३-घन-घंटादि के बजाने से उतपन्न शब्द घन शब्द है
-सुषिर-बाँसुरी आदि द्वारा किये गए शब्द सुषिर शब्द है !
२-वैस्रसिक अभाषा रूप शब्द-जो बिना मनुष्यों की सहायता से ,स्वाभाविक रूप से होते है जैसे मेघ की गर्जन !
२-बंध-
१-प्रायोगिक बंध-जो मनुष्यों की सहायता से अजीव लकड़ी,लाख आदि का बंध, किया जाता है और
२-वैस्रसिक बंध-जो स्वभावत:,बिना किसी सहयता बंध होता है जैसे जीवात्मा के साथ पुद्गल कर्मबंध, इसमें पुद्गलों के स्निग्ध-रुक्ष गुणों के निमित्त से स्वयं बंध होता है जैसे मेघ,बिजली,इंद्र धनुषादि!बंध के दो भेद है !
३-सूक्ष्मता के २ भेद है
१-अन्त्य सूक्ष्म-जैसे परमाणु पुद्गल असूक्ष्मत: अविभाज्य खंड है !
२-आपेक्षिक सूक्ष्मता -जैसे बेर आवले से सूक्ष्म है !
४-स्थूलता-के भी दो भेद है !
१-अन्त्यस्थूल-जैसे जग व्यापी महास्कंध स्थूलतम,अन्त्य स्थूल  है !
२-आपेक्षिक स्थूल-आँवला ,बेर से स्थूल है !
५-संस्थान-आकृति के दो भेद-
१-इथंलक्षण-जिन आकारो जैसे गोल,लम्बा,चौकोर,त्रिकोणादि ,व्यक्त किया जा सके इथं लक्षण संस्थान है
२-अनित्यथंलक्षण-जिन का आकार बदलता रहता हो,निश्चित नहीं हो जैसे मेघ,वे अनित्यथं संस्थान है !
६-भेद-अर्थात टुकड़े -इनके निम्न ६ भेद है-
क-उत्कर-लकडी को आरे से चीरने पर निकला बुरादा उत्कर है 
ख-चूर्ण-गेहूं का पीसा आटा चूर्ण है !
ग-चूर्णिका-दाल के छिलके चूर्णिका है !
घ-प्रतर-मेघ के पटलों को प्रतर कहते है 
ङ -अणु चटन-जो लोहे को पीटने पर फुल्लिंग निकलते है ,उन्हें अणु चटन कहते है !
च-खंड-घड़े के टुकड़ों को खंड कहते है !
७-तम-अंधकार को कहते है!
८-छाया-प्रकाश को रोकने वाले पदार्थ के निमित्त से जो होता है उसे छाया कहते है!इसके दो भेद है
१-दर्पण के समक्ष रखी वस्तु का बिम्ब जस का तस आ जाता है!
२-धुप में खड़े होने पर मात्र छाया द्वारा प्रतिबिम्ब पड़ना !
९-आतप-सूर्य के प्रकाश को आतप कहते है !
१०-चन्द्रमा,जुगने आदि के शीतल प्रकाश को उद्योत कहते है !
 ये पुद्गल की पर्याय है च शब्द से सूचित होता है कि आगम से प्रसिद्द पुद्गल की पर्यायों (अभिघात आदि )का संघ्रह करना चाहिए !

पुद्गल के भेद 
अणवःस्कंधाश्च -२५
संधि विच्छेद-अणवः+स्कंध:श्च =
शब्दार्थ-अणवः-अणु,स्कंध:-स्कंध,च-और पुद्गल के भेद है  
अर्थ-पुदगल द्रव्य के;अणु और स्कंध दो भेद है।
भावार्थ-अणु-पुद्गलद्रव्य का सूक्षमतःअविभाज्य एक परदेशी खंड परमाणु/अणु है!जैनदर्शन में अणु/पर माणु परायवाची है!दो,तीन,संख्यात  या असंख्यात अणुओं के संघात (मिलने) से स्कन्ध बनता है,इस के अनेक भेद है!संसार की समस्त वस्तुए अणुओं से मिलकर ही बनी है
विशेष-१-सूत्र २७ से स्पष्टहै-अणु कभी भी स्वतंत्र अवस्था में नहीं पाया जाता क्योकि इसकी उत्पत्ति भेद से ही होती है!  
२-हमारे प्रयोग में केवल अनन्त संख्या वाली पुद्गल वर्गणाये ही आती है,संख्यात या असंख्यात संख्या वाली नहीं!जैसे मैदे के सूक्ष्मत: कण में भी अनंत परमाणु होते है!
३-एक अणु/परमाणु में एक रूप,एक रस.,एक गंध और दो स्पर्श;रुक्ष-स्निग्ध में से एक और शीत -उष्ण में से एक अवश्य होते है!किसी स्कंध में पहिले ३ के साथ  चार स्पर्श भी होते है!क्योकि हल्का-भारी और कठोर-नरम स्कंध में ही होते है,परमाणु में नहीं !
४-पुद्गल की कुल २३ वर्गणाओं मे से केवल ५ निम्न अदृश्य वर्गणाये हमारे लिए उपयोगी है!
१-आहार वर्गणाये/नोकर्मवर्गणाये -इनसे आहार,शरीर,इन्द्रियां,श्वासोच्छ्वास,की पर्याप्तियां प्राप्त होती है !जिससे आत्मा में आहार वर्गणाओं को खल,रस विभाग में परिणमित करने की शक्ति आ जाती है और   शरीर,इन्द्रियों और श्वासोच्छ्वास का निर्माण अंतर्मूर्हत में होता है !ये शरीर के रूप में हमें दिखती है !
२-तेजसवर्गणाये-इनसे शरीर को कांति प्रदान करने वाले और उसके तापमान को नियत्रित करने वाले तेजस शरीर का निर्माण होता है!ये हमे दिखती नहीं है 
३-भाषा वर्गणाये -भाषा/शब्दों का निर्माण होता है,ये हमे दिखती नहीं 
४-मनोवर्गणाये-इनसे द्रव्य मन की रचना होती है!ये भी नहीं दिखती ,
५-कर्माण वर्गणाये -इनसे कार्मण शरीर का निर्माण होता है ,ये भी हमें  दिखती !
 जैन दर्शन अनुसार परमाणु और आधुनिक विज्ञान के परमाणु में भेद-
१-विज्ञान में परिभाषित द्रव्य का सूक्ष्मत भाग परमाणु,जैन दर्शनानुसार परिभाषित अविभाज्य  परमाणुओं/अणुओं का स्कन्ध है क्योकि उसके इलेक्ट्रान,प्रोटोन,न्यूट्रॉन आदि उसके विभाज्य अवयव है!
२-अनंत परमाणुओं से निर्मित वर्गणाये हमारे ग्रहण में नहीं आती,ये आधुनिक उपलब्द्ध यंत्रों की पकड़ में नहीं आती!
जैन दर्शन अनुसार वैज्ञानिक परमाणु तक नहीं पहुँच पायेगे क्योकि यह 'केवली' absolute knowledgeable का विषय है! 
पद्गल स्कंधों की उत्पत्ति - 
Reply


Forum Jump:


Users browsing this thread: 1 Guest(s)