तत्वार्थ सुत्र अध्याय ७ भाग १
#1

इस अध्याय में उमास्वामी आचार्यश्री ३९  सूत्रों के माध्यम से तीसरे 'आस्रव' तत्व के शुभ आस्रव  के उपायों;पंच पापो से अपने को सुरक्षित रखने के लिए  व्रतों ,उनकी भावनाओं  और उनमें  लगने वाले अतिचारों पर उपदेश देते हुए प्रथम सूत्र में व्रतों के लक्षण बताते हुए कहते है-
व्रत का लक्षण -


हिंसाऽनृतस्तेयाबृह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् !१!
[b]संधि विच्छेद:-{(हिंसा+अनृत+स्तेय+अबृह्म+परिग्रहे+)भ्य:+विरति:}+व्रतम्[/b]
  -हिंसाभ्य:विरति:+अनृतभ्य:विरति:+स्तेयभ्य:विरति:+अबृह्मभ्य:विरति:+परिग्रहेभ्य:विरति:+र्व्रतम्!
शब्दार्थ-हिंसाभ्य:-हिन्सा का,विरति:-त्याग,अनृतभ्य:-झूठ का,विरति:-त्याग,स्तेयभ्य:-चोरी का,विरति- त्याग,अबृह्मभ्य:-अब्रहम/कुशील का,विरति-त्याग,परिग्रहेभ्य:-परिग्रहों का,विरति-त्याग,व्रतम्-व्रत है! 
अर्थ-हिंसा,झूठ,चोरी,कुशील और परिग्रहो;पंच पापों का जीवनपर्यन्त बुद्धिपूर्वक त्याग व्रत है!इनके त्याग से क्रमशपंचव्रत;अहिंसाव्रत,सत्यव्रत,अचौर्यव्रत बृह्मचर्यव्रत और अपरिग्रहव्रत,५ व्रत होते है!
विशेष-
१-पंचव्रतों में अहिंसाव्रत प्रधान है इसलिए,सूत्र में सर्वप्रथम रखा है क्योकि शेष चारो;अहिंसा की रक्षा के लिए खेत की बाढ़ के समान है!
शंका-व्रत संवर का कारण होते है,यहाँ आस्रव का कारण क्यों लिया?
समाधान-संवर निवृत्ति रूप होता है,जबकि व्रत यहाँ प्रवृत्तिरूप कहा है क्योकि यहाँ हिंसादि त्यागकर, अहिंसा रूप प्रवृत्ति की चर्चा हो रही है,वह शुभआस्रव का कारण है!इन व्रतों का अभ्यास/प्रवृत्ति भली भांति करने वाले ही संवर भी कर पाते है!मात्र निवृत्ति की चर्चा संवर का कारण होता !

व्रतों के भेद -

देशसर्वतोऽणुमहती !२!
संधिविच्छेद-देश+सर्वत:+अणु+महती
शब्दार्थ-देशत:-एकदेश/आंशिक त्याग-अणुव्रत,सर्वत:-सर्वदेश/सकल/पूर्णतया त्याग,महती-महाव्रत है !
अर्थ-व्रतों के दो भेद है!पांच पापों हिंसा,असत्य,चोरी,कुशील और परिग्रह का आंशिक रूप से त्याग अणुव्रत और सकल/पूर्णतया त्याग महाव्रत है!
भावार्थ-पञ्च पापों के एक देश त्याग से अणुव्रत और पूर्णतया त्याग से महाव्रत कहलाते है!
जैसे हिंसा के एक देश त्याग में-मात्र त्रसजीवों की हिंसा का त्याग करने से अहिंसाणु व्रत किन्तु पूर्णतया-स्थावर जीवों की भी हिंसा का त्याग करने से अहिंसामहाव्रत कहलाता है,यह महान कार्य महानपुरषों द्वारा होता है इनका एकदेश पालकजीवों का पंचम देशविरतगुणस्थान,प्रतिमाधरियों से आर्यिका माता जी का और सर्वदेशपालक का,छठा-प्रमत /सातवाँ अप्रमत्त गुणस्थान,महान मुनि राजों का होता है!इन गुणस्थानों में इनका पालन करने से जीव की असंख्यातगुणी निर्जरा,प्रतिसमय होती है अर्थात संसार बंधन शिथिल पड़ता है!इसलिए इनका पालन अत्यंत महत्वपूर्ण है!
विशेष-(अणु-महाव्रत)
१-अहिंसाव्रत-संसारी जीव षट प्रकार,५ स्थावर और एक त्रस के है ,इनमे केवल त्रस जीवों की हिंसा /घात त्याग अणु अहिंसाव्रत है;स्थावर व त्रस दोनों की हिंसा/घात का त्याग महा(अहिंसा) व्रत है!कषायों के वशी भूत दस प्राणों का घात करना हिंसा है !
२-सत्य व्रत-स्थूल असत्य का त्याग सत्य अणु व्रत है जैसे किसी घटना को जस की तस  कहना , बिनाविचार किये की उस सत्य से किसी का घात भी हो सकता है!सूक्ष्म असत्य का त्याग,सत्य महाव्रत है जैसे ऐसे सत्य भी नहीं बोलना जिससे किसी जीव का घात हो जाए!कषायिक भाव पूर्वक अन्यार्थ भाषण करना असत्य है !
३-अचौर्यव्रत-किसी की वस्तु उसकी आज्ञा बिना ले लेना /गिरी हुई वस्तु उठाना आदि चोरी है!स्थूल चोरी का त्याग अचौर्य अणुव्रत है जैसे किसी से पुस्तक/वस्तु उसके पीछे उसके बैग से निकालना ,   इच्छा के विरुद्ध किसी को दान देने के लिए बाध्य करना, सरकारी राजस्व(टैक्सों ) की चोरी करना  आदि!सूक्ष्म चोरी का भी त्याग अचौर्य महाव्रत है,जैसे हाथ धोने के लिए मिटटी भी किसी के द्वारा दिए बिना नहीं लेना!  कषाय के वशीभूत किसी का धन सम्पत्ति हड़पना चोरी है !
४-बृह्मचर्य व्रत-अबृह्म/कुशील का स्थूल रूप से त्याग अणु बृह्मचर्य व्रत है जैसे अपनी विवा हितपत्नी/पति से वासनात्मक संबंध छट्टी प्रतिमाधारी तक रखना!सूक्ष्म रूप त्याग में स्त्री/पुरुष मात्र से संबंध नहीं रखना बृह्मचर्य महाव्रत है !इसमें विपरीत लिंगी एक दुसरे के आसान/चादर पर भी नहीं बैठते,वे अपनी आत्मा में ही रमण करते है! कषाय वश किसी के साथ जबरदस्ती संबंध बनना अब्रह्म/कुशील है!  
५-अपरिग्रह व्रत-किसी वस्तु रुपया पैसे जमीन जयदाद आदि होना [b]परिग्रह नहीं है अपितु उसमे ममत्व बुद्धि होना कि  यह मेरा है 'परिग्रह' है!क्योकि कोई भी वस्तु सदैव हमारे पास नहीं रहेगी/नहीं होगी  वह किसी शुभ/अशुभ कर्म के उदय से है/नहीं है! इसलिए हमारे में [/b]परिग्रह के त्याग का भाव स्वेच्छा से होना चाहिए !परिग्रह का स्थूल त्याग अणु अपरिग्रह व्रत है जैसे अपने लाभ भोगोपभोग की सामग्री की एक सीमा निर्धारित क्र उस सीमा का उल्लंघन नहीं करना!  परिग्रह का सूक्ष्मत: त्यागअपरिग्रह महाव्रत मुनिराज के होता है जिनके पास पिच्छी कमंडल और शस्त्र के अतिरिक्त अन्य कोई षगरह नहीं होता
उक्त पांचों व्रतों को यथाशक्ति पालन करने से ही हमे कल्याणकारी पथ मिलेगा! अत: इनको अपने जीवन में अंगीकार करना चाहिए 
२८-३-१६

आचर्यश्री उमास्वामी जी निम्न सूत्र में मन की चंचलता को रोककर पांच व्रतों की स्थिरता के लिए भावनाओं  भाने का  उपदेश देते है -

व्रतों की स्थिरता के लिए  -

तत्स्थैर्यार्थं भावनाःपञ्च-पञ्च ! ३!
सन्धिविच्छेद-तत्+ स्थैरय:+अर्थं+भावनाः+पञ्च+पञ्च!

अर्थ-तत-उन(अणु/महा)व्रतों;की,[b] स्थैरय:-[/b]स्थिरता,र्थं-के लिए,भावना:-भावनाए,पञ्च-पञ्च-पांच-पांच है!
भावार्थ-अणु/महाव्रतों की पुष्टि/निर्दोष पालन [b]हेतु,प्रत्येक की पञ्च पञ्च भावनाए है![/b]
विशेष-ये पांच-पांच भावनाए मुख्यतःमहाव्रतो तथा गौण रूप से अणुव्रतो की पुष्टि और निर्दोष पालन हेतु उपदेशित है,इन भावनाओं का ध्यान रखने से अणुव्रती अपने व्रतों को उत्कृष्टपालन कर सकेगें !


अहिंसाव्रत की पञ्च भावनाए-वाड्.मनोगुप्तिर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि-पञ्च !!४!!
सन्धिविच्छेद-वाड्.+मनोगुप्ति+ईर्या+आदाननिक्षेपण+समित्य+आलोकित+पान+भोजनानि+पञ्च
शब्दार्थ-
वाड्.गुप्ति-हितमित,पीड़ारहित,न्यूनतमव नियंत्रित वचन बोलना,वाग्गुप्ति है,अन्यथा हिंसा हो ही जायेगी!
मनोगुप्ति-मन में अवांछित चिंतवन होना भाव हिंसा है,अत:मन को भी वश में रखना चाहिए मन में अशुभ विचारों का चिंतवन नही करना मनोगुप्ती है मन से ,नियंत्रित और उचित चिंतवन करने से भाव-हिंसा नही होती!
ईर्या निक्षेपण समिति-चार हाथ जमीन देखकर चलना चाहिए जिससे जीव की हिंसा न हो!आदाननिक्षेपण समिति-किसी वस्तु को एक स्थान से दुसरे स्थान पर रखने/उठाने से पूर्व देख शोध कर उठाना/रखना आदान निक्षेपण समिति है !
आलोकित पान भोजन-सूर्य के प्रकाश में बनाया और उससे प्रकाशित समय में ही भोजन/आहार,जल ग्रहण करना!इसके विपरीत रात्रि /अन्धकार में,(जहा सूर्य का प्रकाश नहीं आ रहा है) बनाये/ग्रहण किये गए भोजन में जीव हिंसा से बचना असंभव है क्योकि वे दिखगे नहींजीव रक्षा का ध्यान रखना अनिवार्य है 
पञ्च-इन पांच भावनाए का निरंतर ध्यान रहने से अहिंसामहाव्रत का दोषरहित पालन होता है,परिणा मों की विशुद्धि के कारण कर्मों की असंख्यात गुणि निर्जरा होगी,महान पुन्यबंध होगा !
विशेष:-,सूर्योदय होने के एक घड़ी पश्चात भोजन बनाने का विधान है,रसोई के समस्त कार्य चक्की की सफाई,आटा,मसाले की पिसाई,पीने का पानी,दुग्धादि गर्म करना सूर्योदय के एक घड़ी बाद ही करने चाहिए अन्यथा सूक्ष्म जीव जंतु देखना असंभव होगा और उनकी हिंसा से बच नहीं पायेगे तथा आलोकित पान भोजन नहीं कहलायेगा! अनेको जीव सूर्योदय होने के एक घड़ी के बाद तथा सूर्यास्त से १ घड़ी पूर्व तक उत्पन्न नहीं होते इसलिए रात्रि में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म जीवों की हिंसा के घात से तो हम दिन में भोजन ग्रहण करने से बच जाते है ! 

 इन भावनाओं के भाने  से व्रतों का निर्दोष पालन होता है,भावों की निरंतर विशुद्धता बढ़ती है !

सत्यव्रत की पांच भावनाये -
"क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च" !!५!!

संधि विच्छेद-(क्रोध+लोभ+भीरुत्व+हास्य)+प्रत्याख्यान+अनुवीचि+भाषणं+च+पञ्च
शब्दार्थ-क्रोधप्रत्याख्यान,लोभप्रत्याख्यान,भीरुत्वप्रत्याख्यान,हास्यप्रत्याख्यान,अनुवीचिभाषणं-आगमनुसार वचन बोलना,च-और,५-५ सत्यव्रत की भावनाये  है ! 

अर्थ-क्रोधप्रत्याख्यान-क्रोध का त्याग;क्रोध में कठोर,कडवे,गाली रूप अभद्र वचन,विवेकहीन होने से   असत्य है!
लोभप्रत्याख्यान-लोभ का त्याग;लोभवश झूठ बोलकर,स्वर्ण में ताम्बा/पीतल मिलाकर बेचना असत्य है
भीरुत्वप्रत्याख्यान-भय का त्याग;डर के कारण असत्य बोला जाता है!जो की असत्य है!   
हास्यप्रत्याख्यान-हास्य का त्याग;हसीं-मजाक में चुभने वाले असत्य वचन बोले जाते है!अनुवीचिभाषणं-आगमानुसार निर्दोष सत्य वचन बोलना!जैसे किसी को अदरक की चाय रोग निवारण के लिए,लेने के लिए नहीं कहना क्योकि अदरक के सेवन से जीवहिंसा होती है या किसी को घस्स पर प्रांत अथवा सायंकालीन सहर के लिए नहीं कहना! 
च पञ्च-ये पांच भावनाए सत्यव्रत की है !
भावार्थ-क्रोध,लोभ,भीरुत्व,हास्य के;प्रत्याख्यान और अनुवीचिभाषण,इन ५ भावनाओं के भाने से निर्दोष सत्यव्रत का पालन हो सकेगा,इसलिए इनका ध्यान रखना नितांत आवष्यक है  
विशेष- क्रोध,हास्य,भीरु,हास्य वश बोले सत्य वचन भी असत्य होते है!वचन किसी को कष्ट देने वाले नहीं हो पर ही सत्य है !
 
अचौर्य व्रत की पञ्च भावनाए -

'शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माऽविसंवादापञ्च!' !!६!!

संधि विच्छेद-शून्यागार+विमोचित+आवास+पर+उपरोधाकरण+भैक्ष्यशुद्धि+सधर्मा+अविसंवादा+पञ्च
शब्दार्थ -शून्यागार-निर्जन स्थान,विमोचित-छोड़े हुए खाली,आवास-स्थान धर्मशालादि,पर उपरोधाकरण-अन्यों को,अपने द्वारा रोके हुए स्थान पर ठहरने से रोकना,भैक्ष्यशुद्धि-४६ दोषो रहित आहार ग्रहण करना,सधर्मा-सहधर्मी से,अविसंवादा- मेरा है./तेरा है जैसे विसंवाद नहीं करना,पञ्च-पांच 

अर्थ-शून्यागारवास-निर्जन स्थान जैसे वृक्ष की कोटर,पर्वतों की गुफाओं,स्कूल में रहना!जिससे,गृहस्थ के साथ रहने से,उसकी किसी वस्तु के चोरी/ग्रहण करने के भाव ही जागृत नहीं हो!
विमोचित आवास-धर्मशालादि,छोड़े हुए खाली स्थानों में निवास करना!जिससे वहां भी,निमित्त के अभाव में विकारी भाव उतपन्न नहीं होवे !
परउपरोधाकरण-अपने ठहरे हुए स्थान पर किसी अन्य के आने पर,उसके ठहरने में बाधा नहीं डालना क्योकि वह स्थान आपका अपना नहीं है,उसे अपना नहीं  माना जा सकता है!
भैक्ष्यशुद्धि-आहार की शुद्धि ४६ दोषों रहित,निर्दोष शुद्ध [b]आहार लेना चाहिए!भोजन अशुद्ध है,अथवा अनुचित व्यवसाय/नौकरी से अर्जित धन से निर्मित है तो उसे ग्रहण करने से परिणाम दूषित होंगे!तपस्या में विघ्न पडेगा![/b]
सधर्मा अविसंवादा-सधर्मियों के साथ यह तेरा/मेरा है,इस प्रकार का विसंवाद नहीं करना! मंदिर के फण्ड को हत्याने की कुचेष्टा/उसका दुरूपयोग करना!इनसे अचौर्यव्रत,व्रती नहीं रह पायेगा ! ]
पञ्च-पञ्च भावनाए अचौर्य व्रत की है!
भावार्थ-शून्यागारवास,विमोचितआवास,परउपरोधाकरण,भैक्ष्यशुद्धि एवं सधर्मी अविसंवाद ,इन  पांच भावनाएं भाने से, निर्दोष सत्य व्रत का पालन हो सकेगा,इसलिए इनका ध्यान रखना नितांत आवष्यक है!
अध्याय ७ - शुभ आस्रव

ब्रह्मचर्यव्रत की पञ्च भावनाए -

स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाःपञ्च !!७!!
संधि विच्छेद -
(स्त्री+रागकथा+श्रवण+तत्+मनोह+अंग+निरीक्षण+पूर्वरत+अनुस्मरण+वृष्य+ईष्ट+रस+स्वशरीर+संस्कार) +त्यागाः पञ्च 
शब्दार्थ-स्त्रीरागकथा-स्त्री राग कथा,श्रवण-सुनने,तत्-उनके,मनोह-मनोहर +अंग- अंगों के,निरीक्षण-निरिक्षण,पूर्वरत-पूर्व में भोगे भोगों,अनुस्मरण-केस्मरण, वृष्य-गरिष्ट,ईष्ट-ईष्ट,रस- रस,स्वशरीर-अपने शरीर का,संस्कार-श्रृंगार करने,त्यागाः-का त्याग करना,पञ्च-पांच ब्रह्मचर्य व्रत की भावनाए है 
भावार्थ:-स्त्री राग कथा श्रवण त्यागाः-स्त्री में राग बढाने वाली कथाओं जैसे,सनीमा,टी.वी,पत्रिकाओं में उत्तेजक विज्ञापनों के सुनने/देखने का त्याग करना! 

तन्मनोहर अंगनिरीक्षण का त्यागाः-उन(स्त्रियों/पुरुषों)के मनोहर अंगों को घूरने,अश्लील चित्रों, वीडि यो आदि के देखने का त्याग करना !
पूर्व रत अनुस्मरण त्यागाः-ग्रहस्थावस्था में भोगे गए भोगों के स्मरण का त्याग करना क्योकि उनके स्मरण करने से परिणाम दूषित होते है!!
वृष्य [b]ईष्ट रस त्यागाः-[/b]वृष्ट-गरिष्ट जैसे;दाल-बाटी,बादाम के हलवे,घेवर आदि, इष्ट रसों -अपने को अच्छे लगने वाले रसों नमक.मीठा  आदि का त्याग करना जिससे भोजन स्वादरहित होने से इन्द्रियां नियंत्रित रहेगी!  
स्वशरीर संस्का रत्यागाः-अपने शरीर का सेंट आदि से श्रृंगारित करने का त्याग करना! व्रती के वस्त्र साधारण होने चाहिए! अन्यथा व्रतों में दोष लगता है
पञ्च-ये ब्रह्मचर्य व्रत की पांच भावनाए है!
विशेष उक्त पंच भावनाएं निरंतर भाने से [b]ब्रह्मचर्यव्रत का निर्दोष पालन होता है [/b]

परिग्रहत्याग  व्रत की पांच भावनाए -
मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानिपञ्च !!८!!
संधिविच्छेद:-{(मनोज्ञ+अमनोज्ञ)+इन्द्रियविषय+राग}-द्वेष+वर्जनानि पञ्च

शब्दार्थ-मनोज्ञ-मन को अच्छे लगने वाले,अमनोज्ञ-मन को अच्छे नहीं वाले, इन्द्रियविषय-इन्द्रिय विषय,राग-द्वेष-राग और द्वेष रूप,वर्जनानि-त्याग करना , पञ्च-पांच 
अर्थ-मनोज्ञ इन्द्रिय विषय राग वर्जनानि -मन को अच्छे लगने वाले इन्द्रिय विषयों में राग होने से परिग्रह आयेगा अतःपंचेन्द्रिय विषयों में राग का त्याग करना !  
अमनोज्ञ इन्द्रिय विषय द्वेष वर्जनानि-मन को बुरे लगने वाले इन्द्रिय विषयों में द्वेष होने से  भी परिग्रह आयेगा!अतः अमनोज्ञ पंचेन्द्रिय विषयों में द्वेष का त्याग करना,ऐसे नहीं करने पर पंचेन्द्रिय विषयों का संग्रह बढता ही जाएगा !

पञ्च -पांच परिग्रह व्रत की भावनाए है!
भावार्थ- इन्द्रिये पांच;स्पर्शन,रसना,घ्राण,चक्षु,कर्ण है! इन पांचो इन्द्रियो,के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग का और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना जैसे -
१-स्पर्शन इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना! किसी वस्तु को राग वश नहीं छोड़ना और अन्य वस्तु को द्वेष व[b] छोड़ना,इन दोनों का ही त्याग करना है ![/b]
२-रसना इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे जीव्हा को अच्छे लगने वाले मीठे रसों से राग होना तथा कड़वे रसों को द्वेष वश अच्छा नहीं लग्न -दोनों का ही त्याग करना है 
३-घ्राण इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे सुगंधित वस्तुओं को राग वष सूघना और दुर्गन्धित वस्तुओं को नहीं सूघना ,दोनों का ही त्याग करना है !
४-चक्षु इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!-जैसे खूबसूरत लोगों को राग वष देखने और कुरूप को नहीं देखा ,दोनों का ही त्याग करना है 
५-कर्ण इन्द्रिय के मन को अच्छे लगने वाले विषयों में, राग और बुरे लगने वाले विषयों में द्वेष का त्याग करना!जैसे मधुर संगीत को सुनने में राग और भोंडे संगीत को द्वेष के वशीभूत न सुनने का त्याग !
उक्त पाँचों भावनाये  भाने  से निर्दोष अपरिग्रहव्रत का पालन होता है!

हिंसादि पंच  पापों से विरक्त होने की भावना 
हिंसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम् !!९!!
संधिविच्छेद:-हिंसादिषु+इह+अमुत्र+अपाय+अवद्य+दर्शनम्।
शब्दार्थ -हिंसादिषु-हिंसादि,इह-इस,अमुत्र-परलोक,अपाय-दुःख,अवद्य-निंदा,दर्शनम्-देखनी/होती है ।
भावार्थ- हिन्सादी पांच पापों से,इस लोक और परलोक दोनों में हमें दुःख और निंदा प्राप्त होते है , ऐसे विचारने से  हिन्सादी पांच पापों में मन लगेगा ही नहीं! पांच भावनाए परिग्रहव्रत की है!

पापों से विरक्ति की भावना 
दु:खमेव वा !!१०!!
संधिविच्छेद -दुखम+इव+वा
शब्दार्थ-दुखम-दुःख,इव-ये,वा-रूप ही है 
अर्थ -ये हिंसादि पाँचों पाप दुःख देने वाले ही है,अत: ये त्याज्य है!
विशेष-  यहां किरण मे कार्य का उपचार है ,क्योकि हिंसादि दुःख के कारण है किन्तु उन्हें कार्य दुःख रूप कहा है !

व्रती सम्यग्दृष्टि की भावनाये -
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानिचसत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनय
ेषु!!११!!संधि विच्छेद-मैत्री+प्रमोद+कारुण्य+माध्यस्थानि+च+सत्त्व+गुणाधिक+क्लिश्यमाना+अविनयेषुशब्दार्थ-मैत्री- प्रमोद-प्रसन्नता,कारुण्य-करुणामय भाव,माध्यस्थानि-मध्यस्थ भाव च सत्त्व-समस्त जीवों ,गुणाधिक-अधिक गुणवानों,क्लिश्यमाना-दुखियों ,/भिन्नमतियों और ,अविनयेषु-अविनय भाव रखना चाहिए अर्थ-और जीव मात्र के,अधिक गुणवानों,दुखियों और अविनयशील जीवों के प्रति क्रमश: मैत्री, प्रसन्ता, करुणा और मध्यस्था का भाव होना चाहिए!भावार्थ-समस्त जीवों के प्रति मैत्री,रत्नत्रय की अपेक्षा अधिक गुणवानों के प्रति प्रमोद-प्रसन्नता का भाव चेहरे पर होना चाहिए जिसे अंतरंग से भक्ति भाव जागृत हो,जैसे; मुनिराज के पधारने से धर्मा- मृत की वर्षा होगी!,असता कर्म के उदय से दुखियों/क्लिष्टों के प्रति करुणा का भाव -अर्थात उनके कष्टों को दूर करने का भाव होना चाहिए तथा अविनयशील-जो तत्वार्थ श्रद्धानन रहित है /अन्य मतियों जिनसे हमारे रहन,सहन,खाने-पीने में तारतम्यता नही है,के प्रति मध्यस्थता;/अर्थात उनके अच्छे/उनकी समृद्धि बढ़ने पर,बुरा न लगे और उनके बुरा होने पर या कोई आपत्ति आने पर अच्छा न लगे,ऐसे विचार की उन्हें सदबुद्धि आये) के भाव होने चाहिए!

संसार व शरीर के स्वभाव का विचार
जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् -!!१२!! संधि विच्छेद-जगत्काय+स्वभावौ+वा+संवेग+वैराग्यार्थम्शब्दार्थ -जगत-संसार,काय-शरीर ,स्वभावौ-स्वाभाव,वा-अथवा ,संवेग-संसार से भय,वैराग्यार्थम्-वैराग्य अर्थात राग-द्वेष के अभाव हेतु, अर्थ-संसार के स्वभाव का चिंतन करने से संवेग अर्थात संसार से भय और शरीर के चितवन से वैराग्य (राग-द्वेष से मुक्ति) होता है!भावार्थ-संवेग के लिए संसार के स्वभाव/स्वरुप और वैराग्य के लिए काय के स्वरुप का चिंतवन करना चाहिए!इससे व्रतों का पालन निर्दोष होगा !
विशेष-१-यदि संवेगभाव,अर्थात संसार में अरुचि भाव है/संसार शरीर भोगों से वैराग्य हो गया/अथवा वैराग्य निरंतर वृद्धिगत है तो व्रतों का भली प्रकार,दोष रहित/उचित पालन के लिए संवेग और वैराग्य परिणाम अत्यंत सहकारी है!संवेग परिणाम के लिए संसार का चिंतवन करना है!यह अनादिनिधन,अनादिकाल से है!वेत्रासन के ऊपर झालर और उसके ऊपर मृदंग के समान लोक का आकार है!इसमें अनंत काल से जीव नाना योनियों में दुःख भोग रहा है!इसमे कोई भी वस्तु नियत नहीं है !जीवन जल के बुलबुले समान नश्वर है!भोग संपदाये बिजली के इन्द्रधनुष के समान भंगुर व् चंचल है यहाँ सभी स्वार्थवश अपने सगे संबंधी होते है,किन्तु कटु सत्य है कि यहाँ कोई किसी का नहीं है अत:संसार असार है इसलिए इसमें रूचि क्यों होनी चाहिए!इस प्रकार चिंतवन करने से संसार से अरुचि होती है वैराग्य के लिए शरीर के स्वभाव का चिंतवन करे,इससे क्या रति करनी,नश्वर है अशुचिता-मल,मूत्र,अस्थि,मांस रुधिर इत्यादि सप्त धातुओं का भंडार है!इसलिए निरंतर संसार और शरीर का चिंतवन करने से क्रमश संवेग और वैराग्य भावना वृद्धिगत होती है जिससे निर्दोष व्रतों का पालन होता है !हिंसापाप का लक्षण-
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क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन

हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ।। 7-1 ।।

(107) पंच व्रत और उनकी शुभास्रवहेतुता―छठे अध्याय तक जीव, अजीव व आस्रव पदार्थ का वर्णन हुआ था, किंतु वह आस्रव का सामान्य वर्णन था और उसमें 108 तरह के सांपरायिक आस्रव बताये गए । जीवाधिकार आस्रव 108 प्रकार के होते हैं और इसी कारण माला में 108 दाने माने गए हैं, उसका आशय यह है कि एक बार भगवान का नाम लिया तो मेरा यह पाप खत्म हो जाये तो वे सब आस्रव दो प्रकार के होते है―(1) पुण्य और (2) पाप । तो पहले जो आस्रव का वर्णन हुआ वह सामान्य वर्णन था तथा कुछ वर्णन पापास्रव की प्रधानता से भी था जैसे चारों घातिया कर्मों का अलग-अलग वर्णन सूत्रों में था । इन घातिया कर्मों में विशेष अधिक पापानुभागी कर्म मोहनीय कर्म है उसके आस्रवों के भी कारण बताये गये थे । उन विवरणों से यह शिक्षा दी गई थी कि ऐसे-ऐसे पापकार्यों से बचने का पूरा ध्यान रखना चाहिये । तीर्थंकरप्रकृति, सातावेदनीय, शुभ नामकर्म, उच्चगोत्र जैसे पुण्यकर्मों के आस्रव के भी कारण बताये गये थे जिनसे सद्भावनाओं की शिक्षा मिली थी । अब व्रत संयम भाव के होने पर होने वाले पुण्य आस्रव का वर्णन किया जा रहा है । पाप से पुण्य प्रधान है, मोक्ष पुण्य पूर्वक होता है, पाप करके कोई मोक्ष नहीं गया, पुण्य करके पुण्य को छोड़कर शुद्ध भाव में आकर मोक्ष हुआ करता है । साक्षात् तो पुण्य से भी मोक्ष नहीं होता, पुण्य करने से तुरंत मोक्ष नहीं होता । पुण्य करने वाले की ऐसी पात्रता रहती है कि वह मोक्ष के मार्ग में लग जायेगा, तो जब मोक्षमार्ग में लगा और बढ़ा तो उसका पुण्य भी छूट गया । पाप तो पहले छूट गया था, अब पुण्य भी छूट गया, अब उसके शुद्धोपयोग आ गया और शुद्धोपयोग से मोक्ष होता है । तो मतलब यह है कि मोक्ष पुण्य पूर्वक होता है इस कारण से पुण्य के आस्रव बताना चाहिए कौन सा हमारा परिणाम है जिससे पुण्य का आस्रव होता है । उसका वर्णन करने के लिए सप्तम अध्याय के प्रारंभ में यह सूत्र कहा है―‘‘हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिर्व्रतम् ।’’

(108) शांतिलाभ के लिये धर्मलाभ की अनिवार्यता―हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इन 5 पापों से विरक्त होना व्रत कहलाता है । कोई नास्तिक लोग ऐसा भी सोच सकते हैं कि मनुष्य जीवन पाया तो मौज से बिताओ । व्रत, तप, कष्ट करके करने से क्या फायदा है? कोई लोग ऐसा सोच सकते हैं और उनकी दृष्टि में धर्म का कोई महत्त्व नहीं है । लेकिन निष्पक्ष रूप से सोचा जाये तो हर एक कोई जीवन में शांति चाहता है, सो यह खूब नजर करके देख लो कि किसी पर पदार्थ में, किसी विषय में किसी के आधीन बनकर रहने में शांति मिलती है या सब बखेड़ों को दूर करके आराम से बैठने में शांति मिलती है, तो अपने अपने अनुभव सभी बतायेंगे कि दूसरे के आधीन रहने में शांति नहीं मिलती और जो विषयों के आधीन रहेंगे वे परतंत्र रहेंगे । तो परतंत्रता में शांति नहीं है, स्वतंत्रता में शांति है और स्वतंत्रता भी कैसी? देखिये हम आप सबका परिणाम धर्म के लिए चाहता तो है पर धर्म का जो मूल स्रोत है, कहां से धर्म निकलता है और किसका सहारा लेने से धर्म निकलता है इसका ज्ञान न होने से धर्म के नाम पर परिश्रम बहुत कर डालते हैं और शांति नहीं मिलती । उसका कारण क्या है कि अभी तक धर्म का स्रोत नहीं जाना कि धर्म धरा कहां है? हम यह ख्याल करते हैं कि धर्म हमें मंदिर से मिल जायेगा, अमुक चीज से मिल जायेगा, केवल इतना ख्याल है । किंतु, ध्यान यह होना चाहिये कि धर्मस्वरूप तो हमारा आत्मा है । आत्मा का स्वभाव ज्ञान है वही धर्मस्वरूप है और इसी धर्मस्वरूप आत्मा का जिन्होंने सहारा लिया है वे अरहंत सिद्ध भगवान हुए हैं ।

(109) धर्मसाधनों की धर्मदृष्टिप्रयोजकता―हम मंदिर इसलिए जाते कि हम अरहंत सिद्ध भगवान के गुण सोचेंगे और उससे हमको अपने आत्मा की खबर मिलेगी और आत्मा का कुछ सहारा लेंगे तो हमें धर्म मिलेगा सो यह दृष्टि तो नहीं है, पर सीधी दृष्टि यह है कि हमको इस मंदिर से धर्म मिलेगा याने मंदिर की भींतों से या मंदिर की मूर्ति से । अरे धर्म तो आत्मा को मिलेगा उस आत्मा के स्वरूप से ही, पर वह मिले कैसे? तो उस आत्मस्वरूप की सुध करने के लिए हम भगवान के मंदिर में जायेंगे और वहाँ भगवान के स्वरूप को विचारेंगे तो हमारे यहाँ वहां के ख्याल सब दूर हो जायेंगे और उस समय जो हमको अपने आत्मा का स्पर्श होगा उससे आनंद जगेगा । आनंद हमेशा अपने आत्मा से ही जगेगा, दूसरे पदार्थ से जगेगा नहीं । भगवान की भक्ति करते समय भी जितना आनंद जग रहा है वह भगवान से निकलकर नहीं जग रहा है किंतु इस आत्मा में से उठ उठकर जग रहा है । तो इसकी जिसको खबर हो जाये उसे अपने आप में आनंद मिलेगा और जिसको अपनी ही खबर नहीं है उसे आनंद कहां से मिलेगा? तो यह तथ्य निकला कि आत्मा इस जीवन में सुख शांति चाहता है । तो परलोक है या नहीं इस, बात को भी छोड़ दो, पर इस समय हमको शांति मिलने का ढंग क्या है यह तो समझ लो।

(110) विषयों से विरति होने में ही सबको लाभ―कोई नास्तिक कहते कि न तो स्वर्ग है, न नरक है, हमें तो ये कहीं दिखते नहीं इसलिए क्यों धर्म करना, क्यों व्रत तप आदि करके कष्ट उठाना ? अच्छा तो चलो थोड़ी देर को उनकी ही बात मान लो स्वर्ग, नरक नहीं हैं, पर इस जीवन में भी तो सुख शांति चाहिए ना? तो निर्णय करो कि संसार के ये पदार्थ जो हमारी इंद्रिय के विषयभूत हैं इनकी गुलामी करने में आकुलता होती कि सुख मिलता? कोई बता देंगे कि आकुलता मिलती है, सुख शांति नहीं मिलती तो इस ही जीवन को शांत बनाने के लिए आवश्यक है कि विषयों का मोह छोड़े । अभी यह हम उसको कह रहे जो कि परलोक नहीं मानते और अगर परलोक आया तो आगे जाकर सुख शांति पायेंगे । अगर मान लो परलोक है नहीं तो इस जीवन में तो सुख शांति से रह लेंगे । हर दृष्टियों से विषयों की प्रीति छोड़ना सुख शांति के लिए आवश्यक है । नहीं तो देखो विषयों में रमते-रमते जिंदगी गुजर जाती ओर जैसे-जैसे जिंदगी गुजरती है वैसे ही वैसे यह अपने को रीता अनुभव करता है कि मेरे को कुछ नहीं मिला, मेरे को कुछ नहीं रखा । तो अगर विषयों से सुख होता तो जिंदगी भर विषय भोगे वे सब जोड़ जोड़कर आज कुछ सुख का भंडार रहता, पर बात तो इससे उल्टी दिख रही । ज्यों-ज्यों जिंदगी बीतती जा रही, वृद्धावस्था में आते हैं त्यों-त्यों और भी दुःखी होते हैं । इससे सिद्ध होता है कि पदार्थों में सुख नहीं भरा है । सुख मिलेगा तो अपने आत्मा में । मिलेगा, आत्मा के आलंबन से मिलेगा ।

(111) माया के प्रति आस्था का कारण व्यामोह स्वप्न―यहां तो अज्ञान छाया है सो यह जीव इस दिखने वाली दुनिया को सच मान रहा । जैसे कि सोते हुए में कोई स्वप्न आ जाये तो स्वप्न में देखी हुई बात सच मालुम होती है ऐसे ही मोह की नींद में जो ये घटनायें दिख रही हैं वे सब सच मालूम हो रही हैं । यह मानता है कि मेरा नाम फैलेगा, यश फैलेगा, कीर्ति चलेगी, मेरा बड़प्पन चलेगा मगर इस मायामयी दुनिया में यश किसका नाम है? अनंते चौबीस तीर्थंकर अब तक हो चुके, समय की कोई आदि तो नहीं है, अब तक कितने ही चौथे काल व्यतीत हो चुके उस काल में 24 तीर्थंकर होते आये, बताओ आज उनके नाम भी कोई जानता है क्या? उनकी तो बात छोड़ो, आज के ही 24 तीर्थंकरों के नाम कोई नहीं जानते, बिरले ही लोग जानते, तो काहे का नाम । अब वे भगवान सिद्ध होते हैं तो हम उन्हें जाने या न जाने, वे तो अपने अनंत आनंद में लीन हैं, उनमें कुछ फर्क नहीं पड़ता । तो बताओ यश नामवरी न रहने से कोई दुःख होता है क्या? बल्कि यश नामवरी जब चलती है तो कष्ट होता है, जिसका नाम बढ़ा है वह हमेशा यह ख्याल रखता है कि मेरे यश में कमी न आये, मेरा यश कहीं मिट न जाये, तो वह उस शल्य के मारे धर्म से दूर हो जाता है ।

(112) शांति का आधार अंतस्तत्त्व―शांति मिलेगी तो अपने आपके आत्मा की दृष्टि करने से मिलेगी, अन्य प्रकार से नहीं, यह बात सुनने को मंदिर में मिलती है, यह बात निरखने को मूर्ति में मिलती है इसलिए हम दर्शन करते हैं । कहीं यहाँ मंदिर के ईंट, भींट, फर्श आदि से धर्म न मिलेगा । कहीं किसी स्थान से धर्म नहीं मिला करता किंतु वह स्थान धर्म का साधन है । उस धर्मस्थान पर रहकर धर्म का काम करगे तो धर्म मिलेगा, उस स्थान पर भी यदि धर्म का कोई काम न करे तो कोई जगह में आने भर से शांति नहीं मिलती । और, कभी थोड़ा मंदिर की जगह में बैठने से भी शांति मिलती है तो वह भी धर्म के प्रताप से ही मिलती है, जगह के प्रताप से नहीं । वहाँ जाकर भी धर्म के भाव थोड़े हुए तो थोड़ी शांति, अधिक हुए तो अधिक शांति मिलती है, तो शांति अपने धर्मभाव से मिलती है ।

(113) धर्मलाभ के लिये पापविरति की अनिवार्यता―धर्म को पाने के लिए पहले यह आवश्यक है कि पापों को छोड़ा जाये । कोई पाप भी करता रहे और धर्म भी चाहता रहे, ये दो बातें नहीं हो सकती । जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं सभा सकती, ऐसे ही धर्म और पाप ये दोनों एक साथ रह नहीं सकते । अगर धर्म करना हो तो पाप छोड़ना ही होगा । चूंकि मोक्ष पुण्यपूर्वक होता, पुण्य से मोक्ष नहीं होता, पर पुण्य होकर भाव शुद्ध हों और वीतराग दशा में आये तो पुण्य छूटकर मोक्ष हो, मगर पुण्य में आये बिना मोक्ष नहीं होता और पुण्य के छोड़े बिना मोक्ष नहीं होता । ये दो बात कैसे कही? अगर कोई पुण्य के मार्ग में न चले तो वह उस मार्ग को पा नहीं सकता कि जिस मार्ग से चलकर वह अपने घर पहुंचे । जैसे मानो कोई एक छोटी गली गई है, और वह एक बड़ी सड़क से मिली है, उस बड़ी सड़क से चलकर मानो आपको किसी नगर पहुंचना है, अब उस नगर में पहुंचने के लिए, वह सड़क तो धीरे-धीरे छूटती ही जायेगी । उस सड़क के छोड़े बिना उस नगर में नहीं पहुंचा जा सकता, तो ऐसे ही समझो कि मुझे पुण्य मार्ग से चलकर मोक्ष प्राप्त करना है तो धीरे-धीरे वह पुण्य छूटता जायेगा, शुद्ध भाव बढ़ता जावेगा तभी तो मोक्ष मिल पायेगा । पुण्य के किये बिना व पुण्य के छोड़े बिना मोक्ष तो न मिल पायेगा । बताओ धर्म नाम है क्या? तो जहाँ रागद्वेष न रहे और केवल ज्ञान में ज्ञान का अनुभव रहे उसका नाम धर्म है, और पुण्य नाम किसका है? तो अरहंत सिद्ध भगवान में भक्ति करना, धर्मानुराग करना, प्रभावना करना यह सब पुण्य कहलाता है । तो पुण्य में जिसको पुण्य न करना आये उसको धर्म करना न आ पायेगा, मगर मोक्ष मिलेगा धर्म से ही, पुण्य से नहीं । इतना अंतर है इस कारण से कि चूंकि मोक्ष पुण्यपूर्वक होता है । यहाँ पूर्वक का अर्थ पहले होता है यह लेना ।

(114) मोक्षमार्ग में व्रतों की परिष्कृतता―जिस पुण्यपूर्वक मोक्ष होता है उस पुण्य भाव को बताने के लिए यह सूत्र कहा गया है, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन 5 पापों से विरक्त होना व्रत है । देखिये―जैसे भोजन का नाम लेने मात्र से पेट नहीं भरता, खाने से पेट भरता ऐसे ही धर्म की बातें करने मात्र से अपना उद्धार नहीं होता, किंतु जो धर्म का स्वरूप है उसे करें तो उद्धार होगा । तो अपने आपमें यह खोज कीजिए कि हम रागद्वेष छोड़कर ज्ञान के सही मार्ग में कितना चल पाते हैं और धन वैभव कुटुंब परिजन आदि में, यहाँ वहाँ की फिजूल की बातों में हम कितना दिल बसाया करते हैं, यह हिसाब जरूर परखना चाहिए । अगर हम राग में, विषयों में ही फँसे रहकर अपना जीवन बिताते हैं तो वह जीवन बेकार समझिये । क्योंकि वे सब बातें तो पशु पक्षी के भव में भी मिल जाती । बताओ एक गाय को अपने बछड़े से कम प्यार होता है क्या? नहीं होता, तब फिर बताओ इस मनुष्य भव में आकर ऐसा कौन सा अपूर्व काम कर लिया जो किसी अन्य भव में नहीं किया? जो आत्मा का स्वरूप जानेगा, पाप उसी के अच्छी तरह कटेंगे । एक बनावटी ढंग से या जबरदस्ती के ढंग से पाप छोड़ने से पाप न छूटेंगे और एक आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने के बाद जो एक सहज वैराग्य जगता है उसके कारण जो पाप छूटते हैं वे मूल से पाप छूटते । जैसे किसी बच्चे से कोई कहे कि रे बच्चे तू क्रोध न करने का नियम ले-ले और वह कहे कि हम यह नियम न निभा पायेंगे, फिर भी कोई जबरदस्ती करे । मानो क्रोध के समय उसके मुख में पानी भर दे, वह कुछ बोल न सके तो भी बताओ उसका क्रोध दूर हो गया क्या? हाँ इतनी बात तो है कि यह अंतर आ जायेगा कि वह अपने क्रोध की बात को मुख से बोल न पायेगा, जिससे लड़ाई न हो पायेगी, मगर भीतर में चाहें कि उसके क्रोध न रहे तो यह बात हो नहीं सकती, क्योंकि उसके मन में संस्कार तो बना ही है । उस संस्कार के कारण क्रोध तो उसे आयेगा ही । और, जिस समय उसको यह ज्ञान होगा कि मेरे आत्मा का स्वरूप कषाय करने का है ही नहीं, अविकार स्वरूप हूँ मैं, ज्ञानमात्र हूँ मैं, तो वह अपने ज्ञान की उपासना के बल से क्रोध को जड़ से उखाड़ फेंकता है । तो जबरदस्ती के त्याग से मूलत: पाप नहीं मिटते, किंतु आत्मा का ज्ञान होने पर फिर त्याग हो तो मूल से पाप मिटते हैं । फिर भी इतना फर्क हो सकता है कि किसी से जबरदस्ती भी मनाई की करें कि तुम छोड़ दो तो कुछ दिन को तो मान लो त्यागे रहा वह चीज, संकोचवश उसका ग्रहण वह न कर सका, मगर बाद में वह उसका ख्याल भूल सकता है और वह फिर उसी मार्ग में लग सकता है । तब भी वह सच मार्ग में तो तब लग सकता है जब कि उसको आत्मा का ज्ञान हो । इसलिए आत्मा का धन ज्ञान है, दूसरा कोई वास्तविक धन आत्मा का नहीं है ।

(115) सुख शांति का आधार विकारपरिहारक ज्ञानबल―सुख शांति से रहना है तो ज्ञान के बल से रहा जा सकता है, कोई दूसरा बल काम न देगा । मोक्ष में भी कोई जायेगा तो वह ज्ञान के बल से ही जायेगा, किसी दूसरे के बल से नहीं । जो बहुत तपश्चरण होते हैं―बैठ गए गर्मी में सर्दी में तो उन तपश्चरणों में आत्मा को ज्ञान में लीन होने का एक उपाय बनता है, मगर देह तपन से मोक्ष हो जाये सो बात नहीं । गर्मी में बैठकर तपश्चरण किया तो उस स्थिति में आत्मा को ज्ञान प्रेरणा मिलती है । विषयों से वैराग्य जगा उससे मोक्ष मार्ग मिला । सो भैया, करना तो सब पड़ेगा बाह्य व्यवहार चारित्र, मगर भीतर में अंतरात्मा में जोर देते हुए जो ज्ञान में चलेगा उसको मोक्ष की प्राप्ति होगी । जब ज्ञान ही नहीं है तो फिर क्या करेगा? इसलिए आत्मा का जैसे ज्ञान मिले, ज्ञान भी वास्तविक वह जो कि विषयविरतिसमृद्ध हो ऐसा ज्ञान मिले उस उपाय में लगना चाहिए और उसका उपाय क्या है? तो मुख्य उपाय उसके हैं दो―1-स्वाध्याय और 2-सत्संग । इन दो साधनों के सहारे से ज्ञान में चलने की प्रेरणा मिलेगी । इन दो साधनों से अपने आपको जीवन में बढ़ावे और ये जो बाहरी संग प्रसंग है घर द्वार, स्त्री पुत्रादिक ये तो मरने पर छूटेंगे ही, ये साथ तो देंगे नहीं आगे । ज्ञान और वैराग्य का जो संस्कार यहाँ बना लेंगे वह अपना साथ देगा । यहाँ के कोई भी बाहरी समागम साथ न देंगे । जब ऐसा तथ्य है तो कुछ अपने आप पर दया करके अपने हित के लिए कुछ सोचना चाहिए कि हम एकदम बाहर के पदार्थों में ही ध्यान लगा लगाकर जो अपना जीवन गुजार रहे हैं इससे मेरे को नुकसान ही होगा, फायदा कुछ नहीं, क्योंकि जिन बाहरी पदार्थों को हम अपना रहे वे कोई साथ न निभायेंगे । तो अपने सहज आत्मतत्त्व को पाने के लिए उन 5 पापों से विरक्त होना जरूरी है सो इन 5 पापों से विरक्त होने की बात इस सूत्र में कही जायेगी । भावहिंसा―किसी का बुरा न विचारें, किसी का बिगाड़ करने का यत्न न करें, किसी की झूठी बात न बोलें, किसी की चीज न चुरायें, किसी परस्त्री अथवा परपुरुष पर गंदे विचार न बनायें, बाह्य परिग्रहों की तृष्णा मत करें, इस प्रकार इन 5 प्रकार के पापों से जो विरक्त होना है उसे व्रत कह लीजिए । चारित्रमोहनीय के उपशम या क्षय या क्षयोपशम के निमित्त से होने वाले औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक चारित्र के आविर्भाव से जो एक विरतिभाव उत्पन्न होता है, विषयों से अत्यंत पृथक्पना होता है उसको विरति कहते हैं । व्रत नाम है संकल्पपूर्वक नियम करना, जैसे कि यह ऐसा ही है, यह ही है, यो ही करना चाहिए इस प्रकार के तीव्र आशय से जो अन्य बातों से निवृत्त होना है उसका नाम नियम है । तो दृढ़ संकल्प से किया हुआ शुभ प्रवर्तन सब जगह व्रत नाम पाता है ।

(116) बुद्धि से अपाय होने पर हिंसादिकों में ध्रुवत्व की विवक्षा के कारण प्रथम पद में अपादानकारकत्व की उपपत्ति―इस सूत्र में 3 पद हैं जिसमें प्रथम पद अपादानकारक में है याने इन पापों से । सो उसके विषय में यहाँ शंका होती है कि अपादान कारक वहाँ लगाया जाता है जहाँ वस्तु ध्रुव हो और उससे कोई चीज अलग होती हो । तो जब हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये पाप ध्रुव तो हैं नहीं, ये तो खोटे परिणाम हैं, अध्रुव हैं, क्षण में होते हैं, विलीन होते हैं, तो जब क्षणिक हैं वे तो उनसे कुछ अपाय न हुआ इस कारण अपादान कारक यहाँ न लगाना चाहिए । यदि कोई इस शंका का समाधान यह करे कि हिंसा आदिक पापों में परिणत आत्मा ही हिंसा आदिक नाम पाता है क्योंकि हिंसा आदिक आत्मा के परिणाम हैं, सो वे कुछ आत्मा से अलग वस्तु नहीं है, तो यों पर्यायदृष्टि करने से हिंसा आदिक में ध्रुवपने की कल्पना कर ली जायेगी और इस प्रकार उनसे विरति करना व्रत है यह अर्थ बन जायेगा । सो कहते हैं कि इस प्रकार भी अपादान कारक नहीं बनता, फिर कैसे बनता है कि बुद्धि में उन्होंने हिंसा आदिक पापों को एक मान लिया कुछ ध्रुव के ढंग का, फिर उससे विरति हुई, यों अपादानकारक हो जायेगा । हिंसा आदिक परिणामों को आत्मा ही मानकर अपादान न बन सकता था क्योंकि आत्मा तो नित्य है, हिंसा आदिक अनित्य हैं मगर बुद्धि में किसी चीज को ध्रुव रूप से कल्पना करके अपादान कारक बन जाता है । जैसे यह कहना कि यह धर्म से विरक्त होता है । कोई पुरुष धर्म को नही मानता तो उसको कहते हैं कि यह तुच्छ बुद्धि वाला मनुष्य धर्म से विरत रहता है, तो ऐसा वाक्य बोलने में धर्म शब्द में पंचमी विभक्ति आ गई है । अपादान बन गया, कैसे कि उसकी बुद्धि में धर्म के प्रति यह भाव जग रहा कि धर्म तो दुष्कर है, कठिनाई से किया जाता है और फल भी इसका श्रद्धा मात्र गम्य है । इस तरह से एक धर्मभाव के प्रति बोलने के मुड़ में ध्रुवत्व की कल्पना करना, उसमें इदं का प्रयोग करके ध्रुव मानकर अपादान कारक बना लिया जाता है, इसी प्रकार इन हिंसा आदिक परिणामों के प्रति ऐसी बुद्धि हुई । यह बुद्धिमान मनुष्य यों देखता है कि ये हिंसा आदिक परिणाम पाप के कारण हैं और पापकर्म में प्रवृत्ति करने वाले पुरुष को यहाँ भी राजा लोग दंड देते हैं और वह परलोक में नाना प्रकार के दुःख प्राप्त करता है । सो अपनी बुद्धि से ऐसा उसे पा करके उसे मानो ध्रुवरूप मानकर उससे बात करके यों ध्रुव समझकर वहाँ से अपादान बन जाता है तो बुद्धि के द्वारा ही इसमें ध्रुवपने की विवक्षा होने से अपादानपना इस सूत्र के प्रथम पद में बन गया ।

(117) अहिंसा व्रत की प्रधानता होने से अहिंसाव्रत का प्रथम निर्देशन एवं विरति की सामान्यैकरूपता―अब इन 5 नामों में सबसे पहले अहिंसा व्रत कहा है । सो सबसे पहले कहने का प्रयोजन यह है कि अहिंसा व्रत प्रधान है । शेष के जो चार व्रत हैं―सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह सो ये भी अहिंसा का पालन करने वाले ही हैं । जैसे कि खेती में मुख्य बात है अनाज पैदा करने की । उसका ही पालन किया जाता है, उसकी ही प्रधानता है, पर बाड़ जो लगायी जाती है वह उस अनाज की रक्षा के लिए लगायी जाती है, ऐसे ही मोक्षमार्ग में चलने के लिए, उसके पालन के लिए, उसको निर्दोष निभाने के लिए सत्य आदिक व्रत कहे गए हैं । इस सूत्र में विरति शब्द दिया गया है, उसका प्रत्येक के साथ योग किया जायेगा । जैसे हिंसा से विरति, झूठ से विरति, चोरी से विरति, अब्रह्मचर्य से विरति और परिग्रह से विरति । यहाँ विरति शब्द सबके साथ लगाया गया, ऐसा सुनकर एक शंकाकार कहता है कि जब विरति अनेक हो गईं, 5 पापों से विरतियां कराई गई तो विरति शब्द में बहुवचन का प्रयोग होना चाहिए था, एकवचन का प्रयोग क्यों कहा गया है? जैसे कि गुड़, तेल, चावल आदिक पकाये जाने योग्य हैं, उनके भेद से विकास के भेद कर दिए जाते हैं । जैसे कहते हैं कि दो पाक हो गये, तीन पाक हो गये, ऐसे ही छोड़ने योग्य जो हिंसा आदिक भेद हैं उनसे जो त्याग कराया गया है सो भेदविवक्षा उत्पन्न हो गई इस कारण विरति शब्द को बहुवचन में प्रयुक्त करना चाहिए? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि ऐसी आशंका न करना, क्योंकि यहाँ पर उन 5 पापों के विषय से विरक्त होना, इससे कोई सामान्य को ही ग्रहण करना है । इस विषय के भेद से विरति में भी भेद है ऐसी विवक्षा नहीं है । यहाँ जैसे कि गुड़, तेल, चावल आदिक का पाक होता है यहाँ सामान्य की जब विवक्षा होती है तो पाक शब्द में भी तो एक वचन कर लिया जाता है, तो ऐसे ही 5 पापों से वैराग्य होता है तो उस वैराग्य सामान्य की विवक्षा है इस कारण विरति शब्द में एकवचन लगाना न्याययुक्त है । इस ही कारण सर्वसावद्यनिवृत्तिरूप सामायिक की अपेक्षा व्रत एक है और जब भेद की विवक्षा करें तो वह व्रत 5 प्रकार का है ।

(118) व्रतों के परिस्पंददर्शन के कारण संवररूपपना न होकर व्रती की संवरपात्रता होने के कारण संवरपरिकर्मपना―यहां शंकाकार कहता है कि इन व्रतों का अर्थात् 5 पापों से निवृत्त होना व्रत है, इस बात का आस्रव के प्रकरण में बोलना अनर्थक है, क्योंकि इसका तो संवर में अंतर्भाव हो जायेगा, सो जब संवर तत्त्व का अध्याय चलेगा तो उसमें यह स्वयं आ ही जाता है और कोई यदि ऐसा समाधान करने की कोशिश करे कि यह तो केवल कहने मात्र की बात है कि व्रतों का अंतर्भाव हो जाता है, तो सुनो―संवर के अध्याय में दस धर्मों का वर्णन आता है उन क्षमा आदिक दस धर्मों में एक संयमधर्म भी है । उस उत्तम संयम में अहिंसा आदिक पांचों व्रतों का अंतर्भाव हो जाता है या सत्य आदिक धर्म हैं उनमें अंतर्भाव हो जाता है । फिर यहाँ आस्रव के प्रकरण में कहना अनर्थक है । यदि कोई ऐसा समाधान दे कि भले ही संयम में अंतर्भाव हो जाता है पर यह व्रत का विस्तार बता दिया, संयम किस प्रकार से होता है उसके विस्तार में यहाँ कथन कर दिया तो यह भी उत्तर उनका ठीक नहीं है, क्योंकि संयम में जिसका अंतर्भाव है उसका यदि विस्तार करना है तो विस्तार वहां ही किया जा सकता है जिसमें कि इसका अंतर्भाव है, पर संवर का प्ररूपण करने वाले अध्याय में ये व्रत बताये जाते, यों संयम में अंतर्भाव माना जा रहा है, सो यहाँ व्रतों का कहना अनर्थक रहा ना । अब उक्त शंका के समाधान में कहते हैं कि ये जो 5 व्रत हैं ये संवर नाम नहीं पा सकते, क्योंकि इन व्रतों में परिस्पंद देखा जाता है, कोई प्रवृत्ति देखी जाती है । अशुभ से हटकर शुभ में प्रवृत्ति हो रही यह बात व्रतों में पायी जाती और संवर में परिस्पंद का भाव रहता है । कोई मनुष्य आरंभ का त्याग करता है तो इसके मायने है सत्य बोलता है, चोरी का त्याग किया, बिना दी हुई चीज का ग्रहण करना छोड़ दिया, मतलब दिया हुआ ही ग्रहण करता है । तो इस तरह इन 5 व्रतों में परिस्पंद पाया जा रहा है इस कारण से इसका संवर में अंतर्भाव नहीं होता । यह आश्रवरूप है, और है शुभ आस्रव, मगर संवररूप नहीं बन पाते हैं । दूसरी बात यह है कि गुप्ति आदिक संवरों का वर्णन आगे किया जायेगा, उससे इन व्रतों को भी संवरार्थ समझ लीजिए । याने व्रत विधान करके ऐसी पात्रता उत्पन्न की गई कि अब वे गुप्ति आदिक संवर को कर सकेंगे इस कारण से इन व्रतों का पृथक वर्णन करना सही है ।

(119) रात्रिभोजनविरति का अहिंसाव्रत में अंतर्भाव―एक शंकाकार कहता है कि रात्रिभोजन से विरति होना यह भी तो एक व्रत है और छठवां अणुव्रत है, इस नाम से कहीं कथन भी किया जाता है सो उस रात्रिभोजनविरति का भी इस सूत्र में नाम दिया जाना चाहिए था । जैसे हिंसा से विरति, झूठ से विरति आदिक कहा गया ऐसे ही रात्रिभोजन से विरति यह भी कहना चाहिए । तो इसके उत्तर में कहते हैं कि रात्रिभोजनविरति का अहिंसा व्रत की भावना में अंतर्भाव हो जाता है । कोई प्रश्न कर सकता है कि भावनाओं में तो रात्रिभोजनविरति का नाम नहीं दिया गया । भावना भी प्रत्येक व्रत की 5-5 कही गईं, किंतु वहाँ किसी भी व्रत की भावना में रात्रिभोजनविरति नहीं दिया गया । तो शंंका यों न करना चाहिए कि अहिंसा व्रत की भावनाओं में आलोकितपानभोजन ये शब्द दिये गए हैं, सो आलोकितपानभोजन का क्या अर्थ है? देख करके भोजन करना । सो इस शब्द से ही रात्रिभोजनविरति की बात आ जाती है, क्योंकि रात्रि में अंधकार रहता है, वहाँ भोजन आदिक साफ दिखाई नहीं दे सकते इसलिए उसका त्याग स्वयं ही बन गया । इस पर एक प्रश्नकर्ता कहता है कि अगर दीपक आदिक जला दिए जाये, प्रकाश किया जाये तो रात्रि में भी देख करके भोजनपान हो जायेगा, जैसे कि देखकर भोजन करने की दृष्टि से दिन में भोजन करना बताया जा रहा है तो दीपक हंडा आदिक का जहाँ अच्छा प्रकाश हो वहाँ भी तो भोजनपान सब दिखता है । तब रात्रि में भोजन कर लिया जाना चाहिए? तो यह प्रश्न भी ठीक नहीं है, क्योंकि दीपक आदिक करने पर अनेक आरंभ के दोष आते हैं । अग्नि आदिक का साधन जुटाना आदिक दोष होते हैं, तो इस पर फिर वही प्रश्नकर्ता कहता है कि यदि दूसरा कोई पुरुष दीपक जला दे और इस तरह उसका आरंभ किए बिना दीपक का उजेला मिल जाये तब तो रात्रिभोजन कर लिया जाना चाहिए वहाँ तो दोष न होता होगा? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि यह भी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ भली प्रकार आना जाना आदिक असंभव हैं । हां सूर्य के प्रकाश से, अपने ज्ञान के प्रकाश से, इंद्रिय के प्रकाश से जो मार्ग अच्छी तरह से परीक्षित है, दूर तक देखा जा सकता है, ऐसे देश और काल में चर्या करके साधु लोग आहार लेवें ऐसे आगम में उपदेश किया गया है, यह विधि रात्रि में तो नहीं बनती है, रात्रि में तो मलिनता बनती है, रात्रि में आने जाने का कार्य भी नहीं बन सकता हे अतएव रात्रि में भोजनपान करना आलोकितभोजनपान में नहीं आता ।

(120) दिन में लाकर रात्रि में भोजन करने पर भी अनेक पापारंभों की विडंबना―अब यहां वही प्रश्नकर्ता कहता है कि दिन में तो भोजन ला दिया जाये और रात्रि में भोजन कर लिया जाये, इसमें तो आरंभ नहीं हुआ । तो इसके उत्तर में भी यही समझना कि प्रदीप आदिक का समारंभ तो हो ही गया और यह संयम का साधन नहीं है कि ला करके भोजन करना । संयमी जीव जो कि परिग्रहरहित है, हस्तपात्र में ही जो आहार लेता है उसको कहीं से भोजन लाना कैसे संभव हो सकता? यदि कुछ पात्र रख लिए जायें तो उसमें अनेक पाप लगते हैं । एक तो दीनता का भाव होता सो दीन चर्या बन जाने से फिर तो निवृत्ति परिणाम संभव ही नहीं हो सकता । जिसके अति दीनवृत्ति आ गई उसके पूर्ण निवृत्ति के परिणाम नहीं हो सकते, क्योंकि सर्व पापों का जहाँ त्याग किया गया वहां उस पात्र को जब ग्रहण कर लिया, बर्तन रख लिया तो पात्र का परिग्रह तो रहा ही रहा, पात्र से लाकर परीक्षा करके भोजन भी करे कोई तो उस साधु को लाना, धरना, अलग करना आदिक से होने वाले गुण दोष भी तो सोचने पड़ते हैं और जो आहार लाया गया उसके लाने में भी और छोड़ने में भी अनेक दोष होते हैं । तो जैसे सूर्य में प्रकाश में सर्व पदार्थ स्पष्ट दिखते हैं दाता, भूमि, जल, भोजन पान, गिरना रखना आदिक, उस तरह से रात्रि को चंद्र के प्रकाश में नहीं दिखते, इस कारण दिन में ही भोजन करना निर्दोष आचरण है । यह रात्रिभोजन का त्याग अहिंसा व्रत की आलोकितपानभोजन नाम की भावना में अंतर्भूत हो जाता है ।

(121) प्रसंगविवरण―उक्त प्रकार व्रत 5 रहे । 5 पापों के त्याग में 5 व्रत हुए । ये पांचों व्रत शुभभाव हैं और शुभभाव होने से शुभास्रव के कारण हैं । 7वें अध्याय में शुभ आस्रव की बात कही जा रही है । जैसे पहले अध्याय में ज्ञान के उपाय बताये गए तो दूसरे तीसरे चौथे अध्याय में जीवतत्त्व का वर्णन हुआ । तो छठवें और 7वें अध्याय में आस्रव तत्त्व का वर्णन है । छठवें अध्याय में तो आस्रव का सामान्य कथन है । उसमें जुदे-जुदे शुभ अशुभ की बात की गई है, उसका मात्र संकेत ही दिया गया है । 7वें अध्याय में शुभ आस्रव की बात कही जा रही है । इस प्रकार 5 पापों से विरक्त होना व्रत है यह इस सूत्र का तात्पर्य हुआ । सप्तम अध्याय के इस प्रथम सूत्र में सामान्यतया 5 प्रकार के विषयों से विरक्ति होनेरूप व्रत का कथन है । सो वे समस्त व्रत विरति के आश्रय की विवक्षा में दो ही प्रकार बन सकते हैं कि या तो वहाँ पूरी विरक्ति है या थोड़ी विरक्ति है । सो उन ही दो प्रकारों को अब सूत्र में बताते हैं ।

Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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