तत्वार्थ सुत्र अध्याय ८ भाग ८
#1


ततश्चनिर्जरा-!!२३!!


संधि विच्छेद-ततश्च +निर्जरा
शब्दार्थ-ततश्च -उन कर्मों की ,निर्जरा-आत्मा से पृथक हो जाते है 
अर्थ-  इसके बाद (फल देने के बाद), वे कर्म आत्मा से पृथक हो जाते है! कर्म उदय में आकर फल देने के पश्चात आत्मा से पृथक हो जाते है अर्थात उनकी निर्जरा हो जाती है!

निर्जरा दो तरह की है!
सविपाक-समय पर कर्म उदय में आकर,फल देकर आत्मा से पृथक हो गया,यह सविपाक निर्जरा है!सविपाक निर्जरा संसार के समस्त जीवों,निगोदिया के भी होती है!
अविपाक निर्जरा-कर्म के फल देने के समय से पूर्व ही,तपश्चरण के द्वारा, उसे उदय में लाकर,फल लेकर,उसे आत्मा से पृथक करना,अविपाक निर्जरा है!अविपाक निर्जरा सम्यकत्व के सम्मुख जीव के होती है,सम्यकत्व और व्रतों के धारण करने वाले जीवों की होती है!
अविपाक निर्जरा का प्रारंभ पहले गुणस्थान से होता है!मिथ्यादृष्टि जीव जो सम्यक्त्व प्राप्त करने की ऒर अग्रसर हो रहा है, सम्यकत्व प्राप्ति के सम्मुख है,पञ्च लाब्धियों में से करणलब्धि में आ गया है,उसे अध:करण में नहीं,अपूर्वकरण के प्रारम्भ से पहले ही,प्रथम गुणस्थान से अविपाक निर्जरा शुरू हो जाती है!अविपाक निर्जरा का प्रारंभ प्रथम गुणस्थान के उस जीव के हो जाता है,जो सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए अपूर्वकरण में प्रवेश कर चुका है!पूरे अपूर्वकरणकाल और अनिवृतिकरणकाल में मिथ्यादृष्टि की असंख्यात-असंख्यात गुणी निर्जरा होती है!फिर वह चौथे गुणस्थान में पहुँचता है,वहा से अलग-अलग प्रकार से निर्जरा होती रहती है!दूसरे-तीसरे गुणस्थान में कोई अविपाक निर्जरा नहीं होती,मात्र सविपाक निर्जरा होती है!पहले गुणस्थान में भी यदि सम्यक्त्व के सम्मुख जीव करण लब्धि में नहीं है,उसने अपूर्वकरण में प्रवेश नहीं किया तब भी अविपाक निर्जरा नहीं होगी !
अकाम निर्जरा क्या होती है-अकाम निर्जरा-अकस्मात् कोई कष्ट आने पर उसे शांति पूर्वक सहना,अकाम निर्जरा है!संसार के सभी सम्यगदृष्टि,मिथ्यादृष्टि जीवों के यह हो सकती है!किन्तु यह अविपाकनिर्जरा नहीं है,अकामनिर्जरा है!
हमारे कितने कर्मों की अविपाक निर्जरा प्रति समय होती है?
प्रत्येक जीव,चाहे वह एकेन्द्रि ही हो,समयप्रबद्ध कार्मण वर्गणाओ (अनंत कार्मण वर्गणाओ को) प्रति समय ग्रहण करता है,कर्म बंधते है तथा अनंत कार्मण वर्गणाये फल देकर झरती है!कर्मो का अनुभाग तीव्र या मंद किस प्रकार होता है?
इसके लिए १४८ कर्म प्रकृतियों को पृथक-पृथक पुण्य और पाप प्रकृतियों में विभक्त करना होगा !घातियाकर्मों की ४७ प्रकृतिय पापरूप ही है,अघातियाकर्मों की पाप और पुण्य ,दोनो तरह की प्रकृतियाँ है!पुण्यप्रकृतियों का कषाय कम होने पर अनुभाग अधिक होगा किन्तु कषाय अधिक है तो इन पुण्य प्रकृति का अनुभाग कम बंधेगा, अगर कषाय की मंदता से सातावेदनीय बंधी है तो फलदान अधिक होगा,यदि तीव्रकषाय से बंधी है तो सातावेदनीय का फलदान कम होगा!पापकर्म  बंध के समय कषायों की तीव्रता होने पर पापकर्म में फलदान शक्ति अधिक होगी,यदि मंदता है तो उनकी फलदान शक्ति मंद होगी !
बंधे कर्मों का अनुभाग बदला जा सकता है-
किसी कर्म को कोई जीव तीव्र कषाय में बंधता है तो उसका पापबंध तीव्र फलदान वाला होगा किन्तु यदि वह क्षमा याचना कर लेता है अथवा प्रायश्चित ले लेता है तो उससे बंधेकर्म की फलदान शक्ति, मंद हो जाती हैइ सी कारण मुनिमहाराज दिन में तीन बार प्रतिक्रमण करते है जिसके फलस्वरूप उनके बंधेकर्मों का अनुभाग कम कर लेते है!इसीलिए प्रायश्चित करने का विधान है!बंधे कर्म का अनुभाग उदय के समय बढ़- घट सकता है!यदि पाप बंध मंद कषाय में बंधा है तो उसका अनुभाग मंद बंधेगा जो की बाद में परिणामों में तीव्र कषाय आने से बढ़ जाता है!कर्मों कर्मों के अनुभाग का बढना उत्कर्ष और घटना अपकर्ष कहलाता

प्रदेश बंध के लक्षण (कितनी कर्माणवर्गणाये आत्मा के साथ बंधती है)

नामप्रत्यया:सर्वतोयोगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावागाहस्थिता:सर्वात्म-प्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः !!२४!!
संधि विच्छेद-
नामप्रत्यया:+सर्वत:+योगविशेषात्+सूक्ष्म+ऐकक्षेत्रावागाह+स्थिता:+सर्वात्मप्रदेशेषु+अनन्तानन्त

प्रदेशाः!
शब्दार्थ -
नामप्रत्यया:-अपने २ नाम में कारण रूप अर्थात जैसे दर्शनावरण/ज्ञानावरण प्रकृति के कारण , जो कर्माण वर्गणाय़े परिणमन करने की योग्यता रखती है वे दर्शनावरण/ज्ञानावरनादि कर्म रूप बंधती है! यह नाम प्रत्यय से सूचित होता है कि  कर्म प्रदेश ज्ञानवरणीयादि अष्ट कर्म प्रकृतियों के कारण है !

सर्वत:- कर्माणवर्गणाये प्रति समय सभी भवों में  बंधती है !अर्थात कर्म प्रदेश सब भवो में बंधते है !
योगविशेषात् - योग-मन,वचन,काय की क्रिया द्वारा आत्म प्रदेशों के परिस्पंदन अधिक है तो अधिक  कर्म रूप पुद्गल ग्रहण किये जाते है अर्थात अधिक कर्मों प्रदेश बंध होता है ,कम परिस्पंदन है तो कम बंधेंगे !
सूक्ष्म-किसी से नहीं रुकने वाली और किसी को नहीं रोक ने वाली सूक्ष्म कर्माणवर्गणाय़े  ही कर्म रूप परिणमन करती है स्थूल नहीं !अर्थात  बंध सूक्ष्म ही  स्थूल नहीं !
ऐकक्षेत्रावागाह-आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह रूप,अर्थात पहले से न वर्गणाए मोजूद  होती है! क्षेत्र के अंतर के  निराकरण के लिए   एक क्षेत्रावगाह कहा है,अर्थात जिस आकाश प्रदेश में आत्म प्रदेश रहते है उसी आकाश प्रदेश में कर्म योग्य पुद्गल भी ठहर जाते है !
स्थिता:- रुकी हुई होती है! क्रियान्तर की निवृति के लिए स्थित: कहा  है अर्थात ग्रहण करने योग्य पुद्गल स्थिर  होते है गमन नहीं करते !
सर्वात्म-प्रदेशेषु -कर्माणवर्गणाये, कर्म रूप हो कर, सभी आत्मप्रदेशों में बंधती है! कर्म प्रदेश आत्मा के एक प्रदेश में नहीं वरन  समस्त दिशाओं के प्रदेशों में व्याप्त होकर स्थिर रहते है ! जैसे हमने एक हाथ से सामग्री चढ़ाई तो सातावेदनीय का बंध मात्र उसी हाथ में ही नहीं होता बल्कि शरीर के समस्त आत्म प्रदेशों में प्रदेश बंध होता है!
अनन्तानन्त प्रदेशाः-अनंतानंत प्रदेश परमाणु प्रति समय बंधते है!
भावार्थ -संसार में आठ प्रकार के कर्माणवर्गणाये है,जो ज्ञानावरण योग्यता वाली आयेगी वे  ज्ञानावरणकर्म रूप, दर्शनावरण योग्यता वाली आयेगी वे दर्शनावरणकर्म रूप,आयु कर्म योग्यता वाली आयेगी वे आयुकर्म रूप परिणमन करेगी इसी प्रकार अन्य पञ्च कर्मों की योग्यता वाली  कर्माणवर्गणाये अपने अपने नामानुसार कर्म रूप परिणमन करेगी!अननतनतप्रति  वाले  पुद्गल कर्मो का विभाजन आयुकर्म  अपकर्ष कालों  को छोड़कर  प्रति समय सातों कर्मों में होता है और अपकर्ष कालों में आठों कर्मों में होता है !


कर्माणवर्गणाओ का अष्ट कर्मों में विभाजन-सबसे अधिक कर्माणवर्गणाये वेदनीय कर्म के हिस्से में आती है क्योकि सबसे अधिक काम में सुख-दुःख रूप यही आता है! उससे कम मोहनीय कर्म को मिलती है क्योकि ओह्नीय कर्म का स्थिति बंध सर्वाधिक ७० कोड़ाकोडी सागर है,उस से कम ज्ञानावरण,दर्शनावरण और अन्तरायकर्म को  बराबर मिलता है क्योकि इनका स्थितिबंध ३० कोड़ाकोडी सागर है!मिलता है,इस से कम नामकर्म और गोत्रकर्म को एक बराबर मिलता है क्योकि उनका स्थितिबंध २०-कोड़ाकोडी सागर है! सबसे कम आयु कर्म को केवल अपकर्ष काल में मिलता है!
कर्माणवर्गणाये प्रति समय आती है!योग की विशेषता अर्थात मन,वचन ,काय की क्रिया द्वारा यदि आत्म प्रदेशो में परिस्पंदन अधिक होता है तो अधिक आयेगी और यदि कम होता है तो कम आयेगी!अत: योग की विशेषता से कर्म-प्रदेश बंध होता है !ये कर्माणवर्गणाये सूक्ष्म होती है,किसी वस्तु से बाधित नहीं होती और नहीं किसी वस्तु को बाधित करती है! आत्मप्रदेशो के साथ एक क्षेत्रावागाह(एक में एक) होकर स्थित ,रुकी  हुई रहती है!ये समस्त आत्मप्रदेशों से बंधती है!

विशेष-उक्त सूत्र में  प्रदेश बंध का विचार किया गया है जो पुद्गल परमाणु कर्म रूप जीव द्वारा सभी भवों में  ग्रहण  किये जाते है  वे योग के निमित्त से ,आयुकर्म के आठ अपकर्ष कालों के अतिरिक्त  ज्ञानवारणीयादि सात कर्मों में  प्रति समय परिणमन  करते  है तथा अपकर्ष कालों में आठों करमोन में परिणमन करते है !जिस क्षेत्र में आत्मा स्थित  होती है उसी क्षेत्र के कर्म परमाणु को ग्रहण करती है अन्य के नहीं !ग्रहण किये गए अनन्तानन्त कर्म परमाणु आत्मा के सभी प्रदेशों में व्याप्त होते है !



पुण्य प्रकृतियाँ-
सद्वेद्य -शुभायुर्नाम गोत्रणि पुण्यं !!२५!!
 संधि विच्छेद -सद्वेद्य+शुभ( आयु:+नाम)+गोत्रणि+पुण्यं
शब्दार्थ -सद्वेद्य-साता वेदनीय,शुभआयु:,शुभनाम,गोत्रणि-शुभ/उच्च गोत्र कर्म,प्रकृतियाँ ,पुण्य प्रकृतियां है !
अर्थ-साता वेदनीय,शुभ आयु-अर्थात तिर्यंच,देव और मनुष्य आयु ,उच्च गोत्र, और शुभ नामकर्म  की   पुण्य प्रकृतियाँ  है!

भावार्थ-
साता वेदनीय-१ ,शुभ ३-आयु कर्म अर्थात तिर्यंच,देव और मनुष्य आयु ,शुभनाम-३७  और उच्च गोत्र -१ पुण्य प्रकृतियाँ है! शुभ नाम कर्म की ३७ प्रकृतियाँ- 
गति-मनुष्य और देव-२,जाति पंचेन्द्रिय-१,शरीर-५,अंगोपांग-३,समचतुरसंस्थान-१,वज्रऋषभनारांचसहनन-१, प्रशस्त (शुभ )रस,गंध,वर्ण,स्पर्श-४,मनुष्य और देवगत्यानुपूर्वी-२,अगुरुलघु-१,परघात-१,उच्छवास-१,आतप-१ उद्योत-१,प्रशस्त विहायोगति-१,त्रस-१,बादर-१,पर्याप्ति-१,प्रत्येकशरीर-१, स्थिर-१,शुभ-१, सुभग-१,सुस्वर-१, आदेय-१, यशकीर्ति -१,निर्माण-१,तीर्थंकर -१,ये ४२-पुण्य प्रकृतियाँ   है !   


पाप प्रकृतियाँ-
अतोऽन्यत्पापम्   !!२६ !!
संधि विच्छेद- अतो अन्यत् +पापम्  

शब्दार्थ-अतो अन्यत् -इसके अलावा सब ,पापम् -पाप प्रकृतियाँ है! 
अर्थ-पुण्य प्रकृतियों के अतिरिक्त सभी पाप प्रकृतियाँ हैं !

भावार्थ-
घातिया कर्मो की सभी(ज्ञानावरण की ५,दर्शनावरण-९,मोहनीय -२६,अंतराय-५,)४५ प्रकृतियाँ पापरूप प्रकृतियाँ है!वेदनीय में असाता वेदनीय,गोत्र में नीच गोत्र, आयु में नरकायु,नाम कर्म की गति-नरक और तिर्यंच-२,जाति;एकेन्द्रिय से चतुरिंद्रिय-४,संस्थान-५,सहनन-५,अपर्याप्तक,अप्रशस्त(रस,गंध,वर्ण, -
Reply
#2

क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन

ततश्च निर्जरा ।।8-23।।

साधारण निर्जरा का वर्णन―पहले बँधी हुई कर्म प्रकृतियों के परित्याग का नाम निर्जरा है, जिन कर्म प्रकृतियों का बंध हुआ था वे अंत में निकलते समय आत्मा को पीड़ा अथवा अनुग्रह देकर आत्मा से झड़ जाती है अर्थात् वे कर्मरूप नहीं रहतीं । जैसे कि जो भी भोजन किया वह भोजन अपनी स्थिति तक पेट में रहता है, पीछे निकलकर नि:सार हो जाता है, मलरूप में अलग हो जाता है इसी तरह कर्मप्रकृतियां स्थिति को पूर्ण करने पर फल दे करके नि:सार हो जाती हैं । वह निर्जरा दो प्रकार की कही गई―(1) विपाकजा और (2) अविपाकजा । इस संसार मोहसमुद्र में जहाँ चारों गतियों में जीव भ्रमण कर रहा है उस परिभ्रमण करने वाले जीव के शुभ और अशुभ कर्म का विपाक होने पर या उदीरणा होने पर वह फल दे करके झड़ जाये इसको कहते हैं विपाकजा निर्जरा । जैसी भी उन कर्मों में फलदान शक्ति है, सातारूप हो, असातारूप हो उसके उस प्रकार से अनुभाग किये जाने पर स्थिति के क्षय से वे सब कर्म झड़ जाते हैं । सो यह विपाकजा निर्जरा संसारी जीवों के अनादिकाल से चल रही है । इस निर्जरा से तो इस जीव ने कष्ट ही पाया, इससे इसको मुक्ति का मार्ग नहीं मिल पाता । दूसरा है अविपाकजा निर्जरा । किसी कर्मप्रकृति की स्थिति तो पूरी नहीं हो रही, परस्थिति पूरी होने से पहले ही ज्ञानबल से, पुरुषार्थ से, तपश्चरण से उस प्रकृति को ही उदीरणा में लेकर उदयावलि में प्रवेश कराकर उसका फल जब भोगा जाता है तो वह अविपाकजा निर्जरा कहलाती है । जैसे आम का फल अपनी स्थिति पर स्वयं डाल में पक जाता है किंतु किसी आम्रफल को पकने से पहले ही गिरा दिया जाये और उसे भूसा, मसाला आदि में रखकर पका लिया जाये तो पहले ही पका दिया, इसी प्रकार कर्मप्रकृतियाँ पहले ही खिरा दी गई, इसे अविपाक निर्जरा कहते हैं ।

प्रकृतसूत्रसंबंधित कुछ शब्दानुशासित तथ्यों पर प्रकाश―इस सूत्र में च शब्द दिया है जिससे दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि निर्जरा स्थिति पूर्ण होने पर भी होती है और तपश्चरण आदिक के बल से भी होती है । यहाँ शंकाकार कहता है कि 9वें अध्याय में संवर के प्रकरण में सूत्र आयेगा निर्जरा बताने वाला । सूत्र में यह भी जोड़ दिया जाये अथवा संवर यह शब्द जोड़ दिया जाये तो एक सूत्र न बनाना पड़ेगा । इसके उत्तर में कहते हैं कि यहाँ इस सूत्र में लिखने से लाघव होता है । अगर आगे इस निर्जरा शब्द में ग्रहण करते तो वहाँ फिर से विपाकोनुभव: इतना शब्द और लिखना पड़ता । यहाँ शंकाकार का एक अभिप्राय यह है कि जैसे पुण्य और पाप को पृथक् ग्रहण नहीं किया, क्योंकि पुण्य और पाप का बंध में अंतर्भाव कर लिया, उसी प्रकार निर्जरा का भी बंध में अंतर्भाव कर लिया जाये अर्थात् अनुभवबंध में निर्जरा का अंतर्भाव कर लिया जाये तो निर्जरा का फिर पृथक् ग्रहण न करना पड़ेगा । इसका समाधान यह है कि यहाँ अनुभव का अभी शंकाकार ने अर्थ नहीं समझा । फल देने की सामर्थ्य का नाम अनुभव है, और फिर अनुभव किया गया पुद्गल का जिनमें कि शक्ति पड़ी थी, उनकी निवृत्ति हो जाना निर्जरा है । अनुभव में और निर्जरा में अर्थभेद है, इसी कारण सूत्र में ततः शब्द दिया है पंचमी अर्थ में, अर्थात् अनुभव से फिर निर्जरा होती है । यही शंकाकार कहता है कि लाघव के लिए इस ही सूत्र में तपसा शब्द और डाल दिया जाये तो सूत्र बन जायेगा ततोनिर्जरा तपसा च और फिर आगे सूत्र न कहना पड़ेगा । समाधान―सूत्र दोनों जगह कहना आवश्यक है । यहाँ तो विपाक भोगने की मुख्यता से वर्णन चल रहा है । कर्म उदय में आये, स्थिति पाकर झड़े, फल देकर निकले, इसका नाम निर्जरा है । साथ ही तप से भी निर्जरा होती है, ऐसा बताने के लिए च शब्द जोड़ दिया और 9वें अध्याय के संवर के प्रकरण में जो तपसा निर्जरा च सूत्र आया है उसकी मुख्यता संवर में है । तो तप से संवर होता है और निर्जरा भी होती है । तो संवर की प्रधानता बताने के लिए वहां भी सूत्र कहना आवश्यक है ।

नवम अध्याय के संवर प्रकरण में निर्जरासंबंधित सूत्र को पृथक् कहने के तथ्यों पर प्रकाश―यहां फिर शंका होती है कि आगे क्षमा, मार्दव आदिक दस लक्षण धर्म कहे गए हैं, उनमें तप भी आया है । उत्तम तप भी तो धर्म का अंग है और तप में ध्यान आता है सो यह उत्तम तप संवर का कारण हो गया, सो आगे खुद कहेंगे । तो तप से संवर होता है यह बात अपने आप उससे ही सिद्ध हो जायेगी । और यही जो सूत्र बनाया है सो निर्जरा का कारण बताया है कि निर्जरा सविपाक निर्जरा अविपाक निर्जरा दो प्रकार की होती है―फल देकर झड़े वह भी निर्जरा है । तो वह सब बात युक्ति से ठीक हो जाती है । शंका―तब आगे 9वें अध्याय में तप को ग्रहण करना निरर्थक है । उत्तर―कहते हैं कि वहां पुन: तप को ग्रहण करके पृथक् सूत्र बनाया सो प्रधानता बताने के लिए बनाया गया । जितने संवर और निर्जरा के कारण हैं उन सब कारणों में तप प्रधान कारण है । क्षमा, मार्दव आदिक सभी कारण बताये गए । गुप्ति, समिति आदिक सभी बताये गए हैं मगर संवर के कारणों में तप की प्रधानता है और तब ही रूढ़ि में भी यही बात है कि तपश्चरण करने से मोक्ष होता है । संवर होता है, निर्जरा होती है इसी कारण इस प्रकृत सूत्र में तप का शब्द रखने से गारव हो जाता है याने शब्द अधिक बढ़ जाते हैं । जरूरत नहीं होती इसलिए इस सूत्र में तप शब्द को ग्रहण नहीं किया किंतु च शब्द से तप को गौणरूप में लिया, क्योंकि यह अनुभाग बंध का प्रकरण है ।

घातिया कर्म की प्रकृतियों की मूल विशेषतावों का वर्णन―वे कर्मप्रकृतियां दो प्रकार की होती हैं―(1) घातिया कर्म, (2) अघातिया कर्म । जो आत्मा के गुणों को पूरी तरह से घात दे सो तो घातियाकर्म है और जो गुणों को तो न घाते किंतु गुणों के घातने वाले कर्म के सहायक बनें, नोकर्म सत् बनें उन्हें अघातिया कर्म कहते हैं । घातिया कर्म 4 हैं―(1) ज्ञानावरण, (2) दर्शनावरण, (3) मोहनीय और (4) अंतराय । ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञानगुण को घातता है । दर्शनावरण आत्मा के दर्शन गुण को घातता है । मोहनीय कर्म आत्मा के सम्यक्त्व गुण व सम्यक्चारित्र व आनंद गुण को घातता है । अंतरायकर्म आत्मा की दान आदिक शक्तियों का उपघात करता है । घातियाकर्म भी दो प्रकार के हैं―( 1) सर्वघाती और (2) देशघाती । सर्वघाती प्रकृतियाँ उन्हें कहते हैं जिनके उदय से उस गुण का पूरा घात हो जिस गुण का आवरण करने वाला सर्वघाती है । ये सर्वघाती प्रकृतियाँ 20 होती हैं―केवलज्ञानावरण―यह प्रकृति केवलज्ञान का घात करती है । निद्रानिद्रा―इस प्रकृति के उदय से दर्शनगुण का घात होता है । प्रचलाप्रचला―स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, केवलदर्शनावरण―इन प्रकृतियों के उदय से आत्मा के दर्शनगुण का घात होता है । 12 कषायें― अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, ये 12 प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं । अनंतानुबंधी के उदय से सम्यक्त्व गुण का घात होता है और पूरा ही घात होता है तब ही सर्वघाती हैं याने रंच भी सम्यक्त्व प्रकट नहीं हो सकता । अप्रत्याख्यानावरण के उदय में अणुव्रत का घात होता है । रंच भी अणुव्रत नहीं हो सकता । प्रत्याख्यानावरण के उदय में महाव्रत का घात होता है अर्थात् रंच भी महाव्रत नहीं हो सकता, और दर्शनमोहनीय भी सर्वघाती प्रकृति है, इससे सम्यक्त्व गुण प्रकट नहीं होता । इस प्रकार सर्वघाती प्रकृतियां 20 हैं―देशघाती प्रकृति इस प्रकार है । ज्ञानावरण की 4, मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरण, इनका क्षयोपशम होता है और क्षयोपशम के समय वह ज्ञान व्यक्त होने से रह जाता है, परंतु कुछ रहता है, क्योंकि यह सर्वघाती प्रकृति नहीं है । दर्शनावरण की तीन प्रकृतियां―चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण, इनके क्षयोपशम में कुछ ज्ञान होता है कुछ नहीं रहता । अंतराय की 5 प्रकृतियाँ इनका क्षयोपशम होता है । कुछ दानशक्ति प्रकट है कुछ नहीं प्रकट है, कुछ लाभ शक्ति प्रकट है कुछ नहीं, इस कारण वे देशघाती संज्वलन की चार कषायें, इनके रहते हुए संयम नहीं बिगड़ता, फिर भी संयम में कमी रहती है जिससे यथाख्यातचारित्र नहीं बनता । 9 नो कषाय ये भी देशघाती प्रकृति हैं । इनके काल में भी कुछ ज्ञान रहता, कुछ नहीं रहता । ये घातियाकर्म की प्रकृतियां हैं ।

अघातिया कर्मों की प्रकृतियों की मूल विशेषतायें―घातिया प्रकृतियों के सिवाय शेष बची सब अघातिया कर्म की प्रकृतियां हैं । वहां यह विभाग जानना चाहिए कि कुछ नामकर्म की प्रकृतियां पुद्गल में फल देती हैं और उनको पुद्गल विपाकी प्रकृति कहते हैं । ऐसी प्रकृति शरीर नामकर्म से लेकर स्पर्श पर्यंत तो पिंड प्रकृतियां हैं । शरीर, बंधन, संघात, संस्थान, संहनन, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श ये नामकर्म की प्रकृतियाँ पुद्गल विपाकी हैं याने इनके उदय में फल पुद्गल पर पड़ता है याने कुछ प्रभाव पुद्गल पर आता है । शरीरनामकर्म के उदय से शरीर की ही तो रचना हुई, पुद्गल में ही तो फल मिला । ऐसे ही सबका अर्थ समझिये―और उनके अतिरिक्त अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, प्रत्येक वनस्पति, साधारण वनस्पति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ निर्माणनामकर्म, ये सब पुद्गल विपाकी प्रकृतियाँ हैं, इनका असर पुद्गल में होता है । कर्मप्रकृतियों में क्षेत्रविपाकी प्रकृतियां चार हैं―(1) आनुपूर्वी वाली, क्योंकि आनुपूर्वी के उदय में विग्रहगति में पूर्ण आकार रहता है । तो मरण के बाद जन्म लेने के पहले जो विग्रहगति का क्षेत्र है उस क्षेत्र में इसका फल मिला कि पूर्व शरीर के आकार रहे । आयुकर्म भवविपाकी प्रकृति है । नरकायु के उदय में नरकभव में उत्पन्न होता, तिर्यक् आयु के उदय में तिर्यंच भव में उत्पन्न होता, ऐसे ही सबकी बात जानना । चूंकि भव पर प्रभाव करने वाली हैं ये प्रकृतियां, इस कारण चारों आयुकर्म भवविपाकी प्रकृति हैं । कुछ प्रकृतियाँ जीवविपाकी हैं याने जीव में फल देने के कारणभूत हैं । जैसे गति, जाति इनमें उत्पन्न होने से जीव अपने आपमें ही कमजोरी महसूस करता और अपने में ही अपना अनुरूप भाव करता है । सो ये जीवविपाकी प्रकृतियां हैं । इस तरह अनुभाग बंध का वर्णन किया ।


 सम्यक्त्वरहित गुणस्थानों में उदययोग्य प्रकृतियों का निर्देश―अनुभागबंध से बंधी हुई प्रकृतियां अपनी स्थिति पूर्ण करनेपर या कदाचित् पहले उदय में आने पर इसका फल मिलता है, जिसे कहते हैं कर्म उदय में आयेंगे और फल मिलेगा । सो इन 148 प्रकृतियों का भी उदय हो सकता है, एक साथ सबका उदय नहीं होता, क्योंकि अनेक प्रकृतियां सप्रतिपक्ष हैं । अब उन 148 प्रकृतियों में 10 तो बंधन और संघात के गर्भित किया और 20 स्पर्शादिक प्रकृतियों में 4 मूल रखकर 16 ये कम किया तो यों 26 कम हो जाने से उदय योग्य प्रकृतियों की गणना, चर्चा 122 प्रकृतियों में की जाती है । इन 122 उदययोग्य प्रकृतियों में इस प्रथम गुणस्थान में 117 प्रकृतियों का उदय रहता है । जब मिथ्यादृष्टि कहा तो सभी प्रकार के मिथ्यादृष्टि ग्रहण कर लेते, चाहे वे यथासंभव किसी मार्गणा के हों, प्रथम गुणस्थान में तीर्थंकर आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति इन 5 प्रकृतियों का उदय नहीं होता । इसके आगे उदय हो सकेगा, इसलिए इसको अनुदय में शामिल किया । और पहले गुणस्थान में 5 प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति होती है । वे 5 प्रकृतियां हैं―मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण । इनका अब इसके आगे के किसी भी गुणस्थान में उदय न हो सकेगा । अतएव इसका नाम है उदयव्युच्छित्ति । यहाँ एक बात और विशेष समझना कि प्राय: जिस गुणस्थान में जिन प्रकृतियों का बंध नहीं कहा गया तो मरकर वह जिस गति में न जायेगा वैसा उदय न आ पायगा, ऐसा समन्वय होता है । तो प्रथम गुणस्थान के उदययोग्य 117 प्रकृतियों में पहले 5 अनुदय की और 5 उदयव्युच्छित्ति के हटने से तथा नरकगत्यानुपूर्वी का उदय न होने से 11 प्रकृतियाँ कम हो जाती हैं । इस प्रकार दूसरे गुणस्थान में 111 प्रकृतियों का उदय होता है । दूसरे गुणस्थान में 9 प्रकृतियों को उदयव्युच्छित्ति होती है । वे 9 प्रकृतियाँ हैं―अनंतानुबंधी चार, एकेंद्रिय, स्थावर, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय इनका उदय आगे के गुणस्थानों में न आयेगा । इससे सिद्ध है कि इसका उदय दूसरे गुणस्थान से रहता है । तब ही तो एकेंद्रिय जीव के दो गुणस्थान बताये गए । भले ही पंचेंद्रिय जीव दूसरे गुणस्थान में मरकर एकेंद्रिय में जाये तो उसके अपर्याप्त में दूसरा गुणस्थान मिलेगा, पर मिला तो सही । यही बात दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय जीवों में अपर्याप्त अवस्था में इसका दूसरा गुणस्थान हो सकता है । मिश्र में दूसरे गुणस्थान में उदय वाली 111 प्रकृतियों में से 9 प्रकृतियाँ कम हो गई तब 102 बचनी चाहिएँ, लेकिन तीसरे गुणस्थान में किसी भी आनुपूर्वी का उदय नहीं होता, क्योंकि इस गुणस्थान में मरण नहीं है, अतएव आनुपूर्वी तो तीन कम हो गए । नरकगत्यानुपूर्वी अनुदय के कारण दूसरे के गुणस्थान में भी न थी और सम्यग्मिथ्यात्व का उदय बन गया । इस प्रकार 100 प्रकृतियाँ तीसरे गुणस्थान में उदय में रहती हैं ।

 प्रमत्त सम्यग्दृष्टियों में उदययोग्य प्रकृतियों का निर्देश―तीसरे गुणस्थान में उदयव्युच्छित्ति एक सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की होती है तो 100 में एक कम करने से 99 हुए और यहाँ चार आनुपूर्वी व सम्यक्प्रकृति के उदय में आने लगे, इस तरह 5 प्रकृतियां उदय में बढ़ जाने से 104 प्रकृतियाँ हो जाती हैं । 

चौथे गुणस्थान में 17 प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद होता है । वे 17 प्रकृतियाँ ये है―अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, वैक्रियक शरीर, वैक्रियक अंगोपांग, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु, देवायु, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, और अयशकीर्ति । तो चौथे गुणस्थान के उदय वाली उन 104 प्रकृतियों में से 17 कम हो जाने से 87 प्रकृतियों का उदय 5वें गुणस्थान में होता है । 

5वें गुणस्थान में उदय व्युच्छेद 8 प्रकार का है, वह है प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, तिर्यगायु, उद्योत, नीच गोत्र, तिर्यग्गति । यों 5वें गुणस्थान की 87 उदय वाली प्रकृतियों में से 8 प्रकृतियां घट जाने से तथा आहारक की दो उदय होने से 81 प्रकृतियों का उदय होता है ।

 प्रमादरहित गुणस्थानों में उदययोग्य प्रकृतियों का निर्देश―छठे गुणस्थान में उदयव्युच्छेद 5 प्रकृतिका है, वह है आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग, स्त्यानगृद्धि, निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला । यों 81 में से प्रकृतियां घट जाने से 76 प्रकृतियों का उदय 7वें गुणस्थान में होता है । 


7वें गुणस्थान में 4 प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद होता है―सम्यक् प्रकृति, अंत के तीन संहनन । सो 76 में से चार घटाने से 8वें गुणस्थान में 72 प्रकृतियों का उदय है ।

8वें गुणस्थान में उदयव्युच्छेद 6 प्रकृतियों का है । वे हैं 6 नोकषाय हास्यादिक । उनके घटने से 66 प्रकृतियों का उदय 9वें गुणस्थान में रहता है । 

9वें गुणस्थान में 6 प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद है । नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया, ये 6 प्रकृतियां घट जाने से 

10वें गुणस्थान में 60 प्रकृतियों का उदय रहा । 10वें गुणस्थान में एक संज्वलन लोभ का उदयव्युच्छेद है । उसके घटने से 11वें गुणस्थान में 59 प्रकृतियों का उदय रहा । 

11 वें गुणस्थान में दो प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद है । वज्रवृषभनाराचसंहनन व नाराचसंहनन इनके घटने से 12वें गुणस्थान में 57 प्रकृतियों का उदय रहा । 

12वें गुणस्थान में 16 प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद हैं । 5 ज्ञानावरण, 4 दर्शनावरण, 5 अंतराय, निद्रा और प्रचला । इन 16 के घटने से तथा तीर्थंकरप्रकृति का उदय बढ़ जाने से 

13वें गुणस्थान में 42 प्रकृतियों का उदय है । 13वें गुणस्थान में 30 प्रकृतियों का उदयव्युच्छेद है । वे 30 हैं―वेदनीय की एक, पहला संहनन, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर, दुस्वर, प्रशस्त, अप्रशस्त विहायोगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजस शरीर, तैजस अंगोपांग, संस्थान 6, वर्णादिक 4, अगुरुलघुत्व आदिक 4 और प्रत्येक । 

इन 30 के घटने से 14वें गुणस्थान में 12 प्रकृतियों का उदय रहा । यहाँ यह बात जाहिर होती है कि 13वें गुणस्थान में शरीरादिक की उदयव्युच्छित्ति हुई, तो इसके मायने हैं कि 14वें गुणस्थान में इसका उदय न होने से शरीर ही न कुछ की तरह है । अंत में शेष 12 प्रकृतियों का भी उदय खत्म होने से ये सिद्ध भगवान बन जाते हैं । यहाँ तक प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध का वर्णन किया । अब अंतिम प्रदेशबंध कहा जा रहा है । उसमें सर्वप्रथम इतने प्रश्न आयेंगे कि प्रदेशबंध किस कारण से होता है, कब होता है, कैसे होता है, किस प्रभाव वाला है, कहां होता है और कितने परिमाण में होता है? इन सब प्रश्नों का उत्तर देने वाले सूत्र को कहते हैं―
Reply
#3

क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन

नामप्रत्यया: सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिता: सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशा: ।।8-24।।

प्रदेशबंध का निर्देश और प्रदेशबंधनिर्देशकप्रकृत सूत्र में ‘नामप्रत्यया’ पद की सार्थकता―नाम के कारण समस्त भावों में योगविशेष से सूक्ष्म एक क्षेत्रावगाह में स्थित समस्त आत्मप्रदेशों में अनंतानंत प्रदेश हैं । इस अर्थ से यह ध्वनित होता कि जीव के साथ अनंतानंत कार्माणवर्गणायें कर्मरूप होकर स्थित रहती हैं । सर्वप्रथम शब्द आया है―नाम प्रत्यय । इसका अर्थ है कि सर्व कर्म प्रकृतियों के कारणभूत अर्थात् परमाणुवों का बंध होगा, उन्हीं में तो वे प्रकृतियाँ आयेंगी जिनका पहले वर्णन किया, जो यह प्रदेशबंध हुआ, वही ही प्रकृति होगी, स्थिति होगी, अनुभाग होगा । तो उन सब बंधों का आधार उपादान तो ये कार्माणवर्गणायें हैं, यह बात प्रथम पद में भाषित की है । यहाँ शंकाकार कहता है कि नाम प्रत्यय का यह अर्थ किया जाये तो सीधा अर्थ है कि जिन प्रकृतियों का नामकरण है । उत्तर―ऐसा अर्थ ठीक नहीं है, क्योंकि इस अर्थ के किए जाने में केवल नामकर्म का ही ग्रहण होगा और यह आगम विरुद्ध रहेगा । इस पद में तो हेतुभाव को ग्रहण किया गया है अर्थात् जैसे कि पहले सूत्र कहा गया था―‘सत्यथानाम’ जैसा कि कर्मों का नाम दिया गया है उनकी तरह की प्रकृति स्थिति आदिक बनती है, उनके आधारभूत ये कर्मपरमाणु हैं ।

सूत्रोक्त सर्वतः पद की सार्थकता―दूसरा पद है सर्वत:, इसका अर्थ है कि सभी भवों में यह बंध होता रहा, इसमें काल का ग्रहण बताया गया है । एक-एक जीव के अनंत भव गुजर चुके हैं और आगामी काल में किसी के संख्यात, किसी के असंख्यात और किसी के अनंत भव गुजरेंगे, उन सभी भवों में यह प्रदेशबंध होता रहा है । ऐसा नहीं है कि जीव पहले शुद्ध हो, पश्चात् कर्म परमाणुवों का बंधन हुआ । यदि जीव शुद्ध होता तो कर्म परमाणुवों का बंधन हो ही न सकता था, क्योंकि कर्मपरमाणुवों के बंधन का कारण तो जीव के अशुद्ध भाव है । और मान लिया गया जीव को पहले से शुद्ध तो कर्मबंधन कैसे हो सकता? क्योंकि जब कर्मबंध पहले से होता तब उनके उदय में अशुद्धभाव बनता । सो अब अशुद्धभाव तो हो नहीं सक रहा, फिर कर्मबंध कैसे होता? इस कारण जो तथ्य है वह कहा जा रहा है कि इस जीव के सभी भवों में कर्मबंध हुआ है । इससे यह सिद्ध हुआ कि कर्मसंबंध अनादि काल से है।

सूत्रोक्त ‘योगविशेषात्’ पद की सार्थकता―सूत्र में तीसरा पद योगविशेषात् अर्थात् मन, वचन, काय के योग से कर्म का आस्रव होता है योग के कारण । आत्मा के प्रदेशों में परिस्पंद होने से आत्मस्वरूप के क्षेत्र में रहने वाली कार्माणवर्गणायें, विश्रसोपचय वाली वर्गणायें कर्मरूप परिणम जाती हैं, तो उनका कारण योगविशेष है । जहाँ योग नहीं रहता वहाँ कर्म का आस्रव नहीं होता, बंध की बात तो अलग रही । यद्यपि आस्रव और बंध एक साथ होते हैं किंतु कोई जीव ऐसे होते हैं कि जिनके ईर्यापथास्रव होता है याने कर्म आये और गए, उनमें एक क्षण की भी स्थिति नहीं बंधती । वहाँ बंध तो नहीं कहलाया, आस्रव कहलाया फिर भी जो सकषाय जीव की गतियाँ हैं उनमें बंध है । सो जिस समय कर्म आये वह समय भी स्थिति में शामिल हो गया, आगे भी रहेगा । तो यों आस्रव और बंध एक साध हो गए । योगविशेष से आस्रव होता है, यही बंध का ग्रहण कराता है ।

‘‘सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिता’’ इस सूत्रोक्त पद की सार्थकता―चौथे पद में कई बातों का वर्णन है । पहली बात कही गई है कि वे कर्मपरमाणु सूक्ष्म हैं । हैं वे पुद्गल, किंतु शरीरस्कंध की भांति स्थूल नहीं हैं । और ऐसी सूक्ष्म कार्माणवर्गणायें हैं तब ही वे जीव के द्वारा ग्रहण करने योग्य बन पायी हैं । जीव द्वारा ग्रहण योग्य पुद्गल सूक्ष्म हो सकता है, स्थूल नहीं हो सकता । दूसरी बात यह कही गईं है कि ये कर्मपुद्गल एक क्षेत्रावगाह में स्थित हैं अर्थात् जहां आत्मप्रदेश है उस ही क्षेत्र में अवगाहरूप से वे कर्म पुद्गल स्थित हैं । ऐसा नहीं हे कि आत्मा के निकट आत्मा से चिपके हुए कर्मपुद्गल हों, किंतु जितने विस्तार में आत्मा है उतने ही विस्तार में उन्हीं जगहों में ये कार्माण वर्गणायें पड़ी हुई हैं । यहाँ आत्मप्रदेशों का और कर्म पुद्गल का एक अधिकरण बताया गया है, याने व्यवहारनय से जहाँ आत्मप्रदेश हैं उन्हीं के ही साथ वहां ही ये कार्माण वर्गणायें हैं, अन्य क्षेत्र में नहीं हैं । तीसरी बात इस पद में स्थित शब्द देने से यह ध्वनित हुई कि वे ठहरे हुए कर्मपुद्गल हैं जो बंध में आये हैं वे जाने वाले नहीं हैं, डोलने वाले नहीं हैं, अन्य क्रियायें उनमें नहीं हैं, केवल स्थिति क्रिया है । इस प्रकार चौथे पद में बताया गया कि वे कर्म वर्गणायें सूक्ष्म हैं, आत्मा के एक क्षेत्रावगाह में हैं और स्थित हैं ।

 सूत्रोक्त पंचम और षष्ठपद संबंधित तथ्यों पर प्रकाश―पांचवें पद में कहा गया है कि वे कर्मवर्गणायें सर्व आत्मप्रदेशों में है । आत्मा के एक प्रदेश में या कुछ प्रदेशों में कर्मबंध नहीं है, किंतु ऊपर नीचे अगल बगल सर्व आत्मप्रदेशों में व्याप करके ये कर्मवर्गणायें स्थित हैं । छठे पद में बताया है कि यह अनंतानंत प्रदेशी है । यहाँ प्रदेश शब्द का अर्थ परमाणु है, लेकिन जो कर्मवर्गणायें कर्मबंध रूप में होती हैं वे एक दो करोड़ अरब असंख्यात नहीं किंतु अनंतानंत परमाणु एक समय में बंध को प्राप्त होते हैं । ये बंधने वाले कर्मस्कंध न तो संख्यात परमाणुवों का है और न असंख्यात परमाणुवों का है और अनंत का भी नहीं किंतु अनंतानंत परमाणुवों का है । कर्मपरमाणु अभव्य राशि से अनंत गुणे हैं, सिद्धराशि के अनंतभाग प्रमाण हैं । घनांगुल के असंख्येय भाग क्षेत्रों में अवगाही हैं । उनकी स्थितियां अनेक प्रकार की हैं । कोई एक समय कोई दो समय आदिक बढ़ बढ़कर कोई संख्यात समय कोई असंख्यात समय की स्थिति वाले हैं । इनकी स्थितियों का वर्णन पहले किया जा चुका है । इन कर्मवर्गणावों में 5 वर्ण 5 रस, 2 गंध, 4 स्पर्श अवस्थायें हैं । ये कर्मवर्गणा में 8 प्रकार की कर्मप्रकृतियों के योग्य हैं अर्थात् इनमें 8 प्रकार की प्रकृतियां बन जाती हैं । इनका बंध मन, वचन, काय के योग से होता है । होता तो आत्मा के प्रदेश परिस्पंद से पर वह प्रदेशपरिस्पंद मन, वचन काय के वर्गणाओं का आलंबन लेकर होता है उनकी बात बताने के लिए तीन योग की बात कही गई है । कर्मबंध के मायने क्या है? आत्मा के द्वारा वह स्वीकार कर लिया जाता है । इस प्रकार प्रदेश बंध का वर्णन किया और इसी के साथ बंध पदार्थ का भी वर्णन हो चुकता है । अब उन बँधी हुई प्रकृतियों में पुण्य प्रकृति कौन सी है, पाप प्रकृतियों में पुण्य प्रकृति कौन सी है, पाप प्रकृतियां कौन सी हैं, यह बात बताते हैं । और चूंकि पुण्य प्रकृति और पाप प्रकृति दोनों का अंतर्भाव बंध में हो जाता है, इसलिए 7 तत्त्वों में इनका वर्णन नहीं किया गया तो भी चूंकि बंध में ही ये शामिल हैं तो उन पुण्य और पापप्रकृतियों का अलग अलग नाम बतलाने के लिए सूत्र कहेंगे । उनमें सबसे पहले पुण्यप्रकृतियों की गणना वाला सूत्र कहते हैं ।
Reply
#4

क्षु. मनोहर वर्णी - मोक्षशास्त्र प्रवचन

सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ।।8-25।।

(325) पुण्यप्रकृतियों के नाम का निर्देश―सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नामकर्म, शुभगोत्र कर्म ये पुण्य प्रकृतियां कहलाती हैं । शुभ का अर्थ है, जिनका फल संसार में अच्छा माना जाता है । शुभ आयु तीन प्रकार की है―(1) तिर्यंचायु (2) मनुष्यायु और (3) देवायु । यहाँ कुछ संदेह हो सकता है कि मनुष्य और देव इन दो आयु को शुभ कहना तो ठीक था, पर तिर्यंचायु को शुभ क्यों कहा गया? साथ ही गतियों में तिर्यंचगति को अशुभ कहा गया है । तो जब गति अशुभ हैं तो यह आयु भी अशुभ होना चाहिए । पर यह संदेह इसलिए न करना कि आयु का कार्य दूसरा है, गति का कार्य दूसरा है । आयु का कार्य है उस शरीर में जीव को रोके रखना, और गति का कार्य है कि उस भव के अनुरूप परिणामों का होना । तो कोई भी तिर्यंच पशु, पक्षी, कीड़ा मकोड़ा यह नहीं चाहता कि मेरा मरण हो जायें । मरण होता हो तो बचने का भरसक उद्यम करते हैं । इससे सिद्ध है कि तिर्यंच को आयु इष्ट है, किंतु तिर्यंच भव में दुःख विशेष है और वे दुःख सहे नहीं जाते उन्हें दुःख इष्ट नहीं हैं इस कारण तिर्यक् गति अशुभ प्रकृति में शामिल की गई है और तिर्यंचायु शुभ प्रकृति में शामिल की गई है । शुभ नामकर्म में 37 प्रकार की कर्मप्रकृतियां हैं । मनुष्यगति, देवगति, पंचेंद्रियजाति, पाँचों शरीर, तीनों अंगोपांग, पहला संस्थान, पहला संहनन, प्रशस्त वर्ण, प्रशस्त गंध, प्रशस्त रस प्रशस्त स्पर्श, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु परघात । उच्छवास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्ति, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशस्कीर्ति, निर्माण, और तीर्थंकर नामकर्म । शुभगोत्र एक उच्चगोत्र ही है । सातावेदनीय का पूरा नाम अब सूत्र में दिया हुआ ही है । इस प्रकार ये सब 42 प्रकृतियां पुण्य प्रकृति कहलाती हैं । अब पाप प्रकृतियां कौन सी हैं इसके लिए सूत्र कहते हैं ।
Reply
#5

अतोऽन्यत पापम् ।।8-26।।

पापप्रकृतियों के नामों का निर्देशन―पुण्यप्रकृतियों के सिवाय शेष की सब प्रकृतियां पापप्रकृतियां कहलाती हैं । ये पाप प्रकृतियाँ 82 हैं, ज्ञानावरण की प्रकृतियाँ 5, दर्शनावरण की प्रकृतियां 9, मोहनीयकर्म की प्रकृतियाँ 26, अंतराय कर्म की प्रकृतियां 5, ये समस्त घातिया कर्म पाप प्रकृतियां कहलाती हैं । यहां मोहनीयकर्म की 26 प्रकृतियां कही गई हैं । सो बंध की अपेक्षा वर्णन होने से 26 कही गई हैं । मोहनीय की कुल प्रकृतियां 28 होती हैं, जिनमें सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति उन दो प्रकृतियों का बंध नहीं होता । किंतु प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्रथम क्षण में मिथ्यात्व के टुकड़े होकर ये दो प्रकृतियां बनकर सत्ता में आ जाती हैं । इन घातिया कर्मों के अतिरिक्त अघातिया कर्मों में जो पापप्रकृतियां हैं उनके नाम ये हैं । नरकगति, तिर्यंचगति, एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चतुरिंद्रिय जाति, अंत के 5 संस्थान, अंत के 5 संहनन, अप्रशस्त वर्ण, अप्रशस्त गंध, अप्रशस्त रस, अप्रशस्त स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, अपघात, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति ये 34 नामकर्म की प्रकृतियां पापप्रकृतियां हैं । नामकर्म प्रकृतियों के अतिरिक्त असातावेदनीय, नरकायु, और नीचगोत्र ये भी पापप्रकृतियां हैं ।

 प्रथम से सप्तम गुणस्थान तक में सत्त्वयोग्य प्रकृतियों का निर्देशन―सब प्रकृतियों का बंध होकर ये सत्ता में स्थित हो जाते हैं, सिर्फ सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्प्रकृति अन्य विधियों से सत्त्व में 148 प्रकृतियां मानी गई हैं उनमें से पहले गुणस्थान में 148 प्रकृतियों का सत्त्व रह सकता है । यह सब नाना जीवों की अपेक्षा कथन है । दूसरे गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति आहारक शरीर आहारक अंगोपांग इनका सत्त्व नहीं है । जिन जीवों के इनका सत्त्व होता है वे दूसरे गुणस्थान में आते ही नहीं हैं । इस प्रकार दूसरे गुणस्थान में 3 कम होने से 145 प्रकृतियों का सत्त्व है । तीसरे गुणस्थान में 147 प्रकृतियों का सत्त्व है । यहाँ तीर्थंकर का सत्त्व नहीं । चौथे गुणस्थान में 148 प्रकृतियां सत्व में पायी जा सकती है । 5वें गुणस्थान में 147 की सत्ता हैं । एक नरकायु का सत्त्वविच्छेद चौथे गुणस्थान में हो चुकता है । छठे गुणस्थान में 146 की सत्ता है । तिर्यंचायु का सत्त्वविच्छेद 5 वें गुणस्थान में हो जाता है । 7 वें गुणस्थान में स्वस्थान और सातिशय ऐसे दो भेद हैं, जिनमें स्वस्थान में 146 का सत्त्व हो सकता है परंतु सातिशय में यदि क्षपक श्रेणी पर जाने वाला जीव है तो उसके सम्यक्त्व घातक 7 प्रकृतियों का क्षय हो चुका है । इस कारण ये 7 प्रकृतियां एक देवायु, इनका सत्त्व न मिलेगा क्योंकि उसे मोक्ष जाना है । यदि वह उपशम श्रेणी पर चढ़ेगा तो उसके 146 प्रकृतियों का सत्त्व हो सकता है ।

आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक के सत्त्व वाली प्रकृतियों का निर्देशन―अब सप्तम गुणस्थान से ऊपर दो श्रेणियां हो गई । (1) उपशम श्रेणी और (2) क्षपकश्रेणी । उपशम श्रेणी में 146 प्रकृतियों का सत्त्व है, पर जो कोई जीव ऐसे हैं कि जिनके क्षायिक सम्यक्त्व तो है पर उपशम श्रेणी मारी है तो उसके 139 प्रकृतियों का सत्त्व रहेगा । क्षपक श्रेणी में 8 वें गुणस्थान वाले जीव के 138 प्रकृतियों का सत्त्व है । इनके 3 तो आयु नहीं हैं और 7 सम्यक्त्व घातक प्रकृतियां नहीं हैं । 9 वें गुणस्थान के पहले भाग में 138 प्रकृतियों का सत्त्व है । उस भाग में 16 प्रकृतियों क्षय हो जाता है । अत: 9वें के दूसरे भाग में 122 प्रकृतियों का सत्त्व है । 16 प्रकृतियों के नाम ये है―नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, उद्योत आतप, एकेंद्रिय, साधारण, सूक्ष्म व स्थावर । इन 16 प्रकृतियों का सत्त्व विच्छेद होने से नवमें गुणस्थान के दूसरे भाग में 122 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इस दूसरे भाग में 122 प्रकृतियों का सत्व रहता है । इस दूसरे भाग में 8 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है । अत: तीसरे भाग में 114 प्रकृतियों का सत्व रहता है । ये 8 प्रकृतियां अप्रत्याख्यानावरण 4 और प्रत्याख्यानावरण 4 हैं । इस तीसरे भाग में नपुंसकवेद का क्षय हो जाने से चौथे भाग में 113 प्रकृतियों का सत्त्व है । यहां स्त्रीवेद का क्षय हो जाने से 5 वें भाग में 112 प्रकृतियों का सत्त्व है । इस भाग में 6 नोकषायों का क्षय हो जाने से 9वें गुणस्थान के छठे भाग में 106 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इस भाग में पुरुषवेद का क्षय हो जाने से 7 वें भाग में 105 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । यहां संज्वलन क्रोध का क्षय हो जाने से 8वें भाग में 104 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इस भाग में संज्वलन मान का क्षय होने से 9 वें भाग में 103 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । 9वें गुणस्थान के अंतिम भाग में संज्वलन माया का क्षय हो जाने से 10वें गुणस्थान में 102 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । दसवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ का क्षय हो जाने से 12 वें गुणस्थान में 101 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । यहाँ 16 प्रकृतियों का क्षय हो जाने से 13 वे गुणस्थान में 85 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । ये 16 प्रकृतियाँ ये हैं―निद्रा, प्रचला, ज्ञानावरण की 5, अंतराय की 5, दर्शनावरण की 4 याने चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण व केवलदर्शनावरण । 14वें गुणस्थान में भी 85 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । यहाँ उपात्य समय में 72 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है वे 72 प्रकृतियाँ ये है―शरीरनामकर्म से स्पर्शनामकर्म पर्यंत 50, स्थिरिद्विक, शुभद्विक, स्वरद्विक, देवद्विक, विहायोगतिद्विक, दुर्भग, निर्माण, अयशकीर्ति, अनादेय, प्रत्येक अपर्याति, अगुरुचतुष्क, अनुदित वेदनीय 1, तथा नीच गोत्र । अयोगकेवली के अंतिम समय में 13 प्रकृतियों का सत्त्व रहता है । इनके क्षय होने पर ये प्रभु सिद्ध हो जाते हैं । इस प्रकार बद्ध प्रकृतियों की सत्ता का कथन हुआ ।

बंधपदार्थ का परिचयोपाय बताकर समाप्ति की अहम अध्याय की सूचना―यह बंधपदार्थ अवधिज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी व केवलज्ञानी आत्मा के द्वारा प्रत्यक्षगम्य है, वीतराग सर्वज्ञ आप्त द्वारा उपदिष्ट आगम द्वारा गम्य है व विपाकानुभव आदि साधनों से अनुमानगम्य है । इस प्रकार बंधपदार्थ का वर्णन इस अष्टम अध्याय में समाप्त हुआ ।
Reply


Forum Jump:


Users browsing this thread: 1 Guest(s)