तत्वार्थ सुत्र अध्याय १० भाग १
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तत्वार्थ सूत्र जी के दशम अध्याय में आचार्यश्री उमास्वामी जी ने ९ सूत्रों के माध्यम से हमारे लिएउपा देय और लक्षित  सातवें  मोक्ष तत्व को ९ सूत्रों के माध्याम से उपदेशित किया है !प्रथम सूत्र मे उन्होंने केवलज्ञानकी उत्पत्ति के क्रम ,दुसरे सूत्र में मोक्ष तत्व को परिभाषा,तीसरे सूत्र में जीव के मोक्ष में भावों का अभाव ,चौथे मे जीवों के भाव ,सूत्र ५ में मुक्त होते समय कार्य ,सूत्र ६ में जीव के उर्ध्व गमन के कारण,सूत्र ७ में सूत्र छ का दृष्टांत पूर्वक ,सूत्र ८ में जीव का लोकांत से आगे गमन  नहीं होने के कारण और सूत्र ९ में सिद्धात्मोंके भेद उपदेशित किये है! हमें इन सूत्रों के अर्थः,भावो को समझकर श्रद्धान करते हुए कंठस्थ कर स्वात्म कल्याण हेतु पुरुषार्थ करना चाहिए 



केवल ज्ञान प्राप्त  होने का क्रम -
मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्चकेवलनम् ! १!

संधि विच्छेद-मोह+क्षयात् +ज्ञानावरण +दर्शनावरण+अन्तराय+क्षयात् +च  +केवलनम्
 शब्दार्थ-मोहक्षयात्-मोहनीयकर्म  के क्षय होने  पर,ज्ञानावरण-ज्ञानावरण ,दर्शनावरण-दर्शनावरण, अन्तराय-  अंतराय कर्म, क्षयात्-क्षय,च-और , केवलनम्-केवल ज्ञान उत्पन्न होता है !
 अर्थ-मोहनीयकर्म के क्षय होने के बाद,ज्ञानावरण ,दर्शनावरण, अन्तराय कर्म के क्षय से   केवल ज्ञान उत्पन्न होता है!

भावार्थ-मोहनीय  के दर्शनमोहनीयकर्म  का क्षय,४थे अविरतगुणस्थान से ७वे अप्रमत्तगुणस्थान तक और चारित्र मोहनीयकर्म का सर्वथा क्षय क्षपकश्रेणी आरोहित  जीव १०वे गुणस्थान के उपांत/अंतिम समय में  करने के बाद;१२वे क्षीणकषाय गुणस्थान,केउपांत समय में,मुनिराज अंतर्मूर्हतकाल रहकर (लगभग १/१२ सैकंड) में ज्ञानावरण,दर्शनावरण और अन्तराय,तीनों घातिया कर्मों  का युगपत क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त कर,१३वे गुणस्थान में केवली हो जाते है!
विशेष-१ -सूत्र में मोह क्षयात् ,शेष तीनों घातिया कर्मों से पहिले अलग से रखने का कारण,मोहनीयकर्म का क्षय सबसे पहिले १०वे गुणस्थान में होकर तत्पश्चात मुनिराज बारहवे  क्षीणकषाय गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त काल (लगभग १/१२ सैकंड) रहकर शेष तीनों घातियाकर्मों ज्ञानावरण,दर्शनावरणऔर का क्षय युगपत  कर केवलज्ञान प्राप्त कर,अनन्तचतुष्क;अनन्तदर्शन,अनन्तज्ञान,अनन्तसुख और अनन्तवीर्य गुणों  से सुशो भित  होकर पृथ्वी से ५००० धनुष उप्र आकाश में विराजमान १३वे गुणस्थानवर्ती योगकेवली हो जाते  है !
आयु कर्म की स्थिति रहने तक केवली अरिहंत अवस्था में रहते है !इस अवस्था तक उनका भाव मोक्ष होता है ,आयु कर्म तथा नाम,गोत्र और वेदनीय अघातिया कर्मों के क्षय करने पर अरिहंत भगवान् मुक्त होकर द्रव्य मोक्ष प्राप्तकर सिद्ध होकर  सिद्धालय में लोकांत पर स्थित तनु वातवलय के अंत को शीर्ष स्पर्श करते हुए अनंतकाल तक रहते है! 
३-अरिहंत ७ प्रकार के होते है!केवलज्ञान होने पर तीर्थंकर अरिहंतो की वाह्यविभूति;समवशरण की रचना इंद्र की आज्ञा से कुबेर करते है!शेष अरिहंतों की गंधकुटी ही होती है  
मोक्ष  की परिभाषा-
बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यांकृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ! २!
 संधि विच्छेद-बंध+हेत्वभाव+ निर्जराभ्यां+कृत्स्न+कर्म+वि+प्र+मोक्षो+मोक्षः 
शब्दार्थ-बंध-बंध,हेत्वभाव-कारणों का अभाव होने से,निर्जराभ्यां-निर्जरा होने से,कृत्स्न-सम्पूर्ण रूप से , कर्म+,कर्मों ,वि-विशेष,प्र-प्रकृष्ट रूप से ,मोक्षो-छूट जाएणा, मोक्षः -मोक्ष है !
अर्थ -बंध हेत्वभाव-बंध के कारणों का अभाव,निर्जराभ्यां-निर्जरा होने से,कृत्स्न-सम्पूर्ण रूप से ,वि प्र मोक्ष-विशेष और प्रकृष्ट रूप से छूट जाना ,मोक्षः-मोक्ष है!
 भावार्थ-बंध के कारणों;मिथ्यादर्शन,अविरति,प्रमाद,कषाय और योगों का अभाव होने से आस्रव बंध के रुकने से और आत्मा के साथ लगे कर्मों का तपश्चर्ण आदि  से निर्जरा के द्वारा,विशेष और प्रकृष्ट रूप से पूर्णतया पृथक होने से,आत्मा के परम शुद्ध होने से मोक्ष होता है!अर्थात आत्मा का समस्त कर्मों  बंधनो से मुक्त हो जाती है उसकी यह  शुद्ध अवस्था ही मोक्ष है!
विशेष-कर्मों का अभाव दो प्रकार से होता है-कुछ कर्मों तिर्यंचायु,नरकायु,देवायु का अभाव तो चर्मशरीरी के स्वयं हो जाता है क्योकि इनका उनमे सत्व नहीं होता है! शेष प्रकृतियों के अभाव के लिए उन्हें पुरुषार्थ करना पड़ता है!अत:चौथे से सातवे,किसीभी एक गुणस्थान में मोहनीयकर्म की सात प्रकृतियों का क्षय कर जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो जाते है!तदुपरांत क्षपकश्रेणी आरोहण कर ९वे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ३६ कर्म प्रकृतियों का क्षय कर दसवे सूक्ष्मसम्प्राय गुणस्थान में प्रवेश कर संज्वलन लोभकषाय को क्षय कर क्षीणकषाय १२वे गुणस्थान में ज्ञानावरण की-५,दर्शनावरण की-६ और अंतराय कर्म की ५ प्रकृतियों कुल १६ प्रकृतियों का क्षय करते है इस प्रकार ३+७+३६+१+१६ =६३ कर्म प्रकृतियों का जिसमे ४७ घातिकर्मों की १ ३ नामकर्म की और ३ आयु कर्म की प्रकृतियों का  क्षय कर केवल ज्ञान प्राप्त कर वे  १३वे गुणस्थान,योग केवली में प्रवेश करते है!शेष ८५ प्रकृतियों का क्षय आयोगकेवली नामक १४वे गुणस्थान में होता है ,उसके काल के  अंतिम समय में १३ और उससे पहिले  समय में ७२ प्रकृतियों का क्षय होता


मोक्ष में जीव में भावों का  अभाव-
 औपशमिकादिभव्यत्वानां च । ३!
संधि विच्छेद-औपशमिकादि+भव्यत्वानां+च
अर्थ -औपशमिकादि+भव्यत्वानां +च
 औपशमिकादि-औपशमिक,क्षयोपशमिक,औदायिक भावों,भव्यत्वानां-भव्यत्व भाव से,च-और जीव मुक्त हो जाता है!
भावार्थ-मोक्ष अवस्था में जीव;औपशमिक,क्षयोपशमिक,औदायिक और भव्यत्व भाव से मुक्त हो जाता है!विशेष-जीव के औपशमिक,आदि भावों और पारिणामिक भावों में से भव्यत्व भाव के अभाव में मोक्ष होता है!आशय है कि औपशमिक,क्षयोपशमिक,औदायिक तीनों भाव पूर्णतया नष्ट हो जाते है पारिणामिक भावों में से मोक्षगामी जीव के अभव्यत्व भाव पहिले से ही नहीं होता है,जीवत्व् नामक पारिणामिक भाव मोक्ष में भी रहता है अत: भव्यत्व पारिणामिकभाव तथा औपशमिक,क्षयोपशमिक और औदायिक भावों का अभाव मोक्ष में हो जाता है!
जीव के मोक्ष होने पर भव्यत्व भाव समाप्त होने का कारण-
  भव्यत्व भाव  का तात्पर्य सम्यग्दर्शन और रत्नत्र्य प्राप्त करने की योग्यता से है,मोक्ष होने पर इस योग्यता कीआवश्यकता नहीं रहती इसलिए जीव के मोक्ष प्राप्त करने के बाद भव्यत्व भाव नहीं रहता! उद्धारहण के लिए जैसे रेल से यात्रा करते हुए गंतव्यस्थान पर पहुँचने के बाद टिकट की उपयोगिता नहीं रहती , टिकट केवल हमें यात्रा करने की योग्यता देता है उसके बाद बेकार हो जाता है !
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#2

अधिक जानकारी के लिए.... 
तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
अध्याय 1 
अध्याय 2
अध्याय 3
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अध्याय 7
अध्याय 8
अध्याय 9
अध्याय 10
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