तत्वार्थ सुत्र अध्याय १० भाग २
#1

जीव के मोक्ष में रहने वाले भाव-

 अन्यत्रकेवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्य:! ४!
 संधि विच्छेद:-अन्यत्र+ केवल+(सम्यक्त्व+ज्ञान+दर्शन)+सिद्धत्वेभ्य:
शब्दार्थ-अन्यत्र-अतिरिक्त अन्य भावों का मोक्ष में अभाव!केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन, सिद्धत्वेभ्य:-सिद्धत्व के,
अर्थ- मोक्ष में जीव के केवलसम्यक्तव,केवलज्ञान,केवलदर्शन एवं सिद्धत्व के अतिरिक्त समस्त  भावों का अभाव रहता है!
भावार्थ-सिद्ध होने पर मोक्ष में जीव के केवल सम्यक्त्व,केवलज्ञान केवल दर्शन और सिद्धत्व के आलावा कोई अन्य भाव नहीं होता है ! 
विशेष:-
शंका-सिद्ध होने के बाद ९ क्षायिक और १ परिणामिक भाव रह जाता है,यहाँ तो ४ ही  भाव बताये गए है,ऐसा क्यों ? ऐसे तो अन्नंत वीर्य,अनंत सुख आदि भावों का अभाव हो गया-
 समाधान-ऐसा नही है ,क्योकि अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन के साथ ही अनन्तवीर्य होता है,अनन्तवीर्य के अभाव में अनंतज्ञान और अनन्तदर्शन नहीं होता है!अत:जब केवलसम्यक्त्व,केवलज्ञान,केवलदर्शन होगा,अनंतवीर्य साथ में अवश्य होगा!अनन्तसुख तो अनन्तज्ञानमय है क्योकि ज्ञान के अभाव में सुख का अनुभव नहीं होता!केवलज्ञान,केवलदर्शन है तो जीवत्व और क्षायिकभाव भी होगा ही,क्षायिकभाव उत्पत्ति के समय था,वास्तविक गुण तो सम्यक्त्व है!क्षायिकसम्यक्त्व,सम्यक्त्व विरोधी कर्मों का क्षयं होने के कारण,वह क्षायिकभाव है इन चारों भावों में १० भाव समावेशित  है!
अष्ट कर्मो का आत्मा से पृथक होना द्रव्यमोक्ष  और ४ घातिया कर्मों का पृथक होना भावमोक्ष है!
 सिद्धावस्था में द्रव्य और भाव मोक्ष दोनों हो जाते है!
 शंका-मुक्त जीवों निराकार होते है,अत:उनका अभाव ही समझना चाहिए क्योकि निराकार वस्तु ,वस्तु नहीं है !
समाधान-मुक्त जीव का आकार,मुक्ति से पूर्व छोड़े गए अंतिम शरीर जैसा होता है !
शंका-यदि मुक्त जीव का आकार,अंतिम शरीर जैसा होता है ,तो  मुक्त जीव के शरीर के अभाव में ,  आत्मप्रदेश समस्त लोकाकाश में फ़ैल जाने चाहिए ?
समाधान-आत्मा के प्रदेशों में संकोच विस्तार का कारण नाम  कर्म था और उस नाम कर्म के अनुसार जैसे शरीर जीव को मिलता था उसके अनुसार आत्म  प्रदेशों में संकोच विस्तार होता था !मुक्त होने पर जीव में नाम कर्म के अभाव से संकोच विस्तार का अभाव हो गया ,इसलिए मुक्त जीव के आत्म प्रदेश मुक्ति से पूर्व अंतिम शरीर से कुछ कम बने रहते है!
शंका -यदि कारण का अभाव होने से मुक्त जीव में संकोच -विस्तार नही होता तो गमन का भी कोई कारण नहीं होने से,जैसे जीव नीचे,तिरछा नहीं जाता ,ऊपर भी नहीं -ऊपर जाना चाहिए ?
समाधान -अगला सूत्र -५
मोक्ष होने के बाद के कार्य-
 तदन्तरमूर्ध्वंगच्छ्त्यालोकान्तात् !५!
 संधि विच्छेद -तदन्तरं+ऊर्ध्वं +गच्छ्त्या+लोकान्तात्
 शब्दार्थ:तदन्तर-उसके पश्चात(कर्मों के क्षय) के पश्चात,ऊर्ध्वं-ऊपर,गच्छ्त्या-जाते है,,लोकान्तात् -लोक के अंत  तक 
अर्थ:-कर्मों के क्षय के उपरान्त  जीवात्मा  लोक के अंत तक ऊपर की ओर गमन करती है !
 भावार्थ-समस्त द्रव्य,भाव और नोकर्म के नष्ट होने के बाद आत्मा लोक के अंत तक ऊपर  चला जाता है!
है!इसके बाद वे मोक्ष प्राप्त कर लेते है !
मुक्त जीव का ऊर्ध्व-गमन का कारण -
 पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बंधच्छेदात् तथागतिपरिणामाच्च !६!
संधि विच्छेद-पूर्वप्रयोगात्+असङ्गत्वाद्+बंधच्छेदात् तथा+गतिपरिणामाच्च 

 शब्दार्थ-पूर्वप्रयोगात-पूर्व संस्कारवश ,असङ्गत्वाद्-संग का अभाव अर्थात बंधे कर्मों का अभाव होने से, बंधच्छेदात्-बंध का छेद  होने से, तथा-और ,गतिपरिणाम -गमन स्वभावी  होने ,से उच्च -उर्ध्व !
भावार्थ-मुक्तात्मा पूर्व संस्कारवश,कर्मों के अभाव में,कर्मबंध का छेदन/क्षय होने से तथा  ऊर्ध्व गमन स्वभावी होने के कारण,ऊर्ध्व गमन करती है!
विशेष-इस सूत्र में आचर्यश्री बता रहे है कि मुक्त जीवात्मा केवल  उर्ध्व गमन ही, उक्त  चार कारणों से करती है ,सांसारिक आत्माओं के समान तिर्यक गमन नहीं करती! कर्मों से बन्धित संसारिक  आत्मा ,उनके भार के कारण जैसे कोई वजनदार वस्तु नीचे ही आती है ऊपर नहीं जाती  ,कर्मों के भार के कारण उर्ध्व गमन नहीं करती किन्तु मुक्त, सिद्धात्मा बन्धित  कर्मों के क्षय होने से उनके भार से  रहित होती है तथा अपने स्वभाव अनुसार उर्ध्व गमन करती है !
सूत्र ६ का दृष्टांतो से विश्लेषण -
आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालांबुवदरेण्डबीजवदग्निशिखावच्च! ७!
 संधि विच्छेद-आविद्ध+कुलाल+चक्रवद्+व्यपगतलेप+अलांबुवत+अरेण्ड+बीजवत+अग्नि शिखावत्+च  
शब्दार्थ-आविद्ध-घुमाए गए चलते हुए ,कुलाल-कुम्हार के द्वारा,चक्रवद्-चक्र के समान,व्यपगत-जिसका हट गया है,लेप- लेप,अलाम्बुवत -ऐसी तुम्बी की तरह ,ऐरेण्ड-एरंडी के,बीजवत -बीज की तरह, अग्नि-अग्नि की,शिखावत्-शिखा के सामान,च-और 
अर्थ-जीव,कुम्भकार के द्वारा घुमाए हुए चाक के समान,मिटटी के लेप से मुक्त तुम्बी के समान,कर्म बंध से मुक्त होने के कारण एरण्ड बीज के समान,स्वभावत:अग्नि शिखा के समान उर्ध्व गमन करता है !
भावार्थ-इस सूत्र को समझने के लिए हमे सूत्र ६ को क्रमश इस सूत्र से दृष्टांत हेतु अवलोकन करना होगा !
 आविद्धकुलालचक्रवत-पूर्वप्रयोगात्-जिस प्रकार कुम्हार डंडे को  चाक के ऊपर रख कर घुमाता है,वह चाक डंडा हटाने के बाद भी पूर्व प्रयोग वश(संस्कारवश) तब तक घूमता रहता है जब तक उसमे पुराना संस्कार रहता है,ठीक इसी प्रकार अनादिकाल से जीव मुक्ति के लिए बार बार प्रयास करता है,मुक्ति के बाद वह भावना और प्रयास दोनों ही नहीं करता,फिर भी पूर्व संस्कार वश वह जीव गमन करता है!
व्यपगतलेपअलांबुवत-असङ्गत्वाद्-जिस प्रकार मिटटी के भार से लदी हुई  तुम्बी,तालाब के पानी में डाल ने पर उसमें डूबी रहती है,किन्तु जैसे जैसे मिटटी का लेप गल कर हटता जाता है,जल में वह ऊपर आती  जाती है,उसी प्रकार कर्मों के भार से डूबा जीव संसार सागर में डूबा रहता है,कर्म के भार से मुक्त होने पर वह मिटटी से रहित तुम्बी के समान जल में उर्ध्व गमन कर ऊपर आ जाता है,वह लोक में उर्ध्व गमन करता है!कर्म हट जाने से आत्मा ऊर्ध्व गमन करता  है,
उक्त दृष्टान्तों  से स्पष्ट है कि कर्मभाराधीन आत्मा,उनके आदेशानुसार अनियम से संसार में भ्रमण करता है किन्तु उसके संग से मुक्त होने पर उर्ध्व गमन ही करता है !
एरण्ड बीजवत् बन्धच्छेदात्-जैसे एरंड के बीज एरंड के डोढा में बंद रहता है!डोढ़ा के सूखने पर जब वह फटता है तो एरण्ड का बीज उर्ध्व गमन ही करता है इसी प्रकार आत्मा अनादिकाल से जाति,गति,शरीर आदि समस्त कर्मों के बंधन तक संसार में रहता है किन्तु उनसे मुक्त होने पर ही वह भी ऊपर की ऒर उर्ध्व गमन करता है!
अग्निशिखावच्च गतिपरिणामाच्च-तिर्यग् वहन स्वभाव वाली वायु के अभाव में जिस प्रकार दीपक की लौ(अग्नि की शिखा) उर्ध्वगमन स्वभावत: ही होती है उसी प्रकार मुक्त आत्मा/जीव ,अनेक गतियों ,जाति  आदि में लेजाने वाले कर्मों के अभाव में स्वभावत: ऊर्ध्व गमन करती है!अत: अग्नि की शिखा के सामान आत्मा उर्ध्व गमन करता है !
 तत्वार्थ सूत्र अध्याय १०     

मोक्ष तत्व
(विरचित आचार्यश्री उमास्वामी महाराज जी)

 मुक्त जीव का लोकांत से आगे नहीं जाने का कारण-
धर्मास्तिकायाभावात्  !८ !
संधि विच्छेद-धर्म+अस्तिकाय+अभावात् 
शब्दार्थ-धर्म-धर्म,अस्तिकाय-अस्तिकार द्रव्य का,अभावात्-अभाव है ! 
अर्थ-धर्मास्तिकाय द्रव्य के अभाव में जीव/आत्मा अनंत शक्तिवान होने पर भी,लोकाग्रभाग से ऊपर लोक से बहार अनंत अलोकाकाश में  नहीं है !
विशेष-गतिरूप उपकारी धर्मास्तिकाय द्रव्य लोकांत तक ही है उसे आगे अनंत अलोकाकाश में नहीं है,इसलिए अनंत शक्ति सम्पन्न युक्त ,मुक्त जीव लोकांत में तनुवातवलय को स्पर्श करते हुए रुक जाते  है !

सिद्धों में भेद -
क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहानान्तरसंख्याल्पबहुत्वत:साध्या:!९!
 संधि विच्छेद-

क्षेत्र+काल+गति+लिंग+तीर्थ+चारित्र+प्रत्येकबुद्धबोधित+ज्ञान+अवगाहान+अन्तर+संख्या+अल्पबहुत्वत :+साध्या:-जानने योग्य है !
अर्थ-यद्यपि सिद्धों मे आत्मिक गुणों की अपेक्षा रंचमात्र भी अंतर नहीं होता,किन्तु सिद्धों में बाह्य निमित्त की अपेक्षा भेदो की कल्पना करी है!ये जीव जाति ,गति आदि के भेद  के कारणों  के अभाव में,इन भेदो के व्यवहार से रहित होते है, किन्तु  क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध बोधित, ज्ञान, अवगाहान, अन्तर,संख्या और  अल्पबहुत्वत:,इन १२ अनुयोगो की अपेक्षा सिद्धों में  भेद का विचार करना चाहिए!
 भावार्थ- प्रत्युत्पन्न (जो नय केवल वर्तमान पर्याय ग्रहण करता है अथवा यथार्थ वस्तु स्वरुप को ग्रहण करता है) नय जैसे ऋजुनय,निश्चयनय और भूतप्रज्ञापन नय (जो नय अतीत पर्याय को ग्रहण करता है ) जैसे व्यवहारनय की विवक्षा से उक्त १२ अनुयोगों का विवेचन किया जाता है!
सिद्धों में बाह्य निमित्त की अपेक्षा भेदो की कल्पना करी है,आत्मिक गुणों की अपेक्षा उनमे रंचमात्र भी अंतर नहीं है !
निम्न १२ अनुयोगो  की अपेक्षा सिद्धों में  भेद जानने योग्य  है -
१-क्षेत्र-इसमें मुक्ति के क्षेत्र का विचार किया जाता है!वर्तमान नय की अपेक्षा सिद्धि क्षेत्र में अपने आत्म प्रदेशों में अपना आकाश प्रदेश,जिनमे मुक्ति से पूर्व जीव स्थित था या उन आकाश प्रदेशों में मुक्ति होती है!भूतप्रज्ञापन की अपेक्षा १५ कर्मभूमियों से ही जीव मुक्त होता है जैसे जीव भरत,ऐरावत और विदेहक्षेत्रों से मुक्त होते है!कर्मभूमि से अपहरण की अपेक्षा मनुष्य,समस्त मनुष्यलोक से मुक्त होते है!इस प्रकार क्षेत्रों की अपेक्षा सिद्धों में अंतर है !
२-काल-काल की अपेक्षा से किस काल में सिद्धि है?
वर्तमान नय की अपेक्षा एक समय में ही  मुक्ति होती है!भूतप्रज्ञापननय की अपेक्षा,जन्म की अपेक्षा समय रूप से,अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में उत्पन्न जीव सिद्ध होते है विशेष रूप से अवसर्पिणी के सुखमा-दुःखमा,तीसरे काल के अंत और दुःखमा सुखमा चतुर्थकाल में उत्पन्न जीव सिद्ध होते है,!इस काल के अतिरिक्त अन्य काल में सिद्ध नहीं होते !उत्सर्पिणी के तीसरे काल में उत्पन्न , सुखमा-दुःखमा काल में जीव मुक्त होते है ! 
 तीसरे काल में ऋषभदेव भगवान्,चतुर्थ काल में भगवान् महावीर और पंचमकाल में जम्बू स्वामी सिद्ध हुए है !
३-गति-वर्तमाननय की अपेक्षा सिद्धगति में ही सिद्ध होते है!किन्तु भूतप्रज्ञापननय की अपेक्षा मनुष्यगति में ही मुक्ति होती है कोई जीव देवगति से,जैसे ऋषभदेव मनुष्यगति प्राप्त कर सिद्ध हुए और कोई नरक गति से जैसे राजाश्रेणिक का जीव आगामी  उत्सर्पिणी  के तीसरे काल में महापद्म तीर्थंकर,मनुष्यगति प्राप्त कर सिद्ध होंगे!नियम से जीव मनुष्य गति से ही सिद्ध होता है !
 ४-लिंग-प्रत्युपन्न;वर्तमाननय की अपेक्षा वेदरहित अवस्था में मुक्ति होती है!भूतप्रज्ञापननय  की अपेक्षा तीनों ही भाव वेदों से मुक्ति होती है किन्तु द्रव्य से पुल्लिंग होना ही चाहिए!कोई जीव द्रव्यलिंग की  अपेक्षा पिच्छी,कमंडल और कोई पिच्छी सहित तथा कोई दोनों के बिना ही सिद्ध होते है!जैसे तीर्थंकर के पास पिच्छी कमंडल दोनों ही नहीं होते,चक्रवर्ती के पास कमंडलू नहीं होता !
 ५-तीर्थ-तीर्थ सिद्धि दो प्रकार की है तीर्थकरसिद्ध और इतरसिद्ध!अनेकों जीव तीर्थंकर के रहते हुए सिद्ध हो जाते है और कुछ तीर्थंकर के अभाव में,जैसे बाहुबली भगवान ऋषभदेव के तीर्थ में उनके रहते हुए   मुक्त हुए ,कोई भगवान् सीमंधर स्वामी के तीर्थ में और कोई महावीर भगवान् के तीर्थ में!या जम्बू स्वामी, महावीर भगवान तीर्थंकर की अनुपस्थित में सिद्ध हुए!इस प्रकार तीर्थ की अपेक्षा सिद्धों में भेद है !
 ६-चारित्र-प्रत्युपन्न(वर्तमान)नय की अपेक्षा जिस भाव से मुक्ति होती है उसे चारित्र भी नहीं कहा जा सकता और अचारित्र भी नहीं,अत: नाम रहित चारित्र से मुक्ति होती है!भूतप्रज्ञापननय से अव्यवहित रूप से यथाख्यात चारित्र से मुक्ति होती है!व्यवहित रूप से सामायिकी, छेदोपस्थापना, सूक्ष्मसाम्पराय , यथाख्यात चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है!जिन्हे परिहार विशुद्धि चारित्र  होता  है उन्हें पांचों चारित्र से मुक्ति होती है !अर्थात सामायिक,छेदोपस्थापना,यथाख्यातचरित्र ,या  पांचों चारित्र धारण कर मुक्त होते है !
 ७-प्रत्येकबुद्धबोधित--अपने शक्ति रूप निमित्त से होने वाले ज्ञान के भेद से प्रत्येक बुद्ध होते है और परोपदेश रूप निमित्त से होने वाले ज्ञान के भेद से बोधितबुद्ध होते है!अर्थात  किसी मुक्त जीव को स्वयं  वैराग्य होता है और किसी  को किसी के उपदेश द्वारा वैराग्य होता है!
 ८-ज्ञान-प्रत्युपन्न,वर्तमाननय  की अपेक्षा जीव केवलज्ञान से ही सिद्ध होते है किन्तु भूतप्रज्ञापननय की  अपेक्षा कोई मति-श्रुतज्ञानपूर्वक,कोई मति-श्रुत-अवधिज्ञानपूर्वकऔर कोई मति-श्रुत-अवधि-और मन: पर्यय ज्ञान पूर्वक,ज्ञान होता है अर्थात कोई एक ही ज्ञान से और  कोई ३-४ ज्ञान से सिद्ध होते है!
 ९-अवगाहान-आत्मप्रदेश के फैलाव को अवगाहना कहते है!उत्कृष्ट अवगाहना ५२५ धनुष और जघन्य कुछ कम ३.५ हाथ है!प्रत्युपन्न ,वर्तमाननय की अपेक्षा,मुक्त जीव की अवगाहना अंतिम शरीर से कुछ कम होती है!किसी जीव,जैसे बाहुबली भगवान की अवगाहान उत्कृष्ट ५२५ धनुष और कोई जघन्य ३.५ हाथ से  मोक्ष प्राप्त करते है!भगवान महावीर की सात हाथ थी!तीर्थंकरों की उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष होती है(ऋषभ देव भगवान)
 १०-अंतर-एक सिद्ध से दुसरे सिद्ध होने का जघन्य अंतर २ समय और उत्कृष्टता से ८ समय है तथा विरह काल जघन्य से १ समय और उत्कृष्टता से ६ माह  है!अर्थात यदि कोई जीव मुक्त नहीं हो रहा हो तो कम से कम १ समय और अधिक से अधिक ६ माह का अंतर(लगातार मोक्ष होने वाले जीवों में) पड़  सकता है 
 ११-संख्या-जघन्य से १ समय में १ जीव ही सिद्ध  होते है और उत्कृष्टता से १०८ जीव सिद्ध होते है  !
 १२-अल्पबहुत्वत:-वर्तमान नय की अपेक्षा सिद्ध क्षेत्रों में सिद्ध होने वाले जीवों का अल्पबहुत्व नहीं है!
क्षेत्रो आदि की अपेक्षा भेदों को प्राप्त जीवों की संख्या लेकर,परस्पर तुलना करना अल्पबहुत्व है!भूतपूर्व नय की अपेक्षा क्षेत्र सिद्ध के दो भेद जन्मसिद्ध और संहरण सिद्ध! इनमे संहरण सिद्ध न्यूनतम है,इनसे जन्म सिद्ध संख्यातगुणे है!
क्षेत्र का विभाग-कर्मभूमि,अकर्मभूमि,समुद्र,द्वीप,उर्ध्वलोक,मध्यलोक,अधोलोक और तिर्यगलोक है!उर्ध्व लोक से मुक्त थोड़े है,उनसे संख्यातगुणे जीव अधोलोक,इनसे संख्यातब गुणे तिर्यग/मध्य लोकसिद्ध है !
समुद्र से मुक्त जीव सबसे  कम है!उससे संख्यातगुणे जीव द्वीपसिद्ध है यह सामान्य कथन है!
विशेष कथन से लवण समुद्रसिद्ध सबसे कम है इनसे कालोदधिसिद्ध संख्यातगुणे है,इनसे जम्बूद्वीपसिद्ध संख्यात गुणे  है!इनसे धातकीखण्डसिद्ध संख्यातगुणे है!इनसे पुष्कार्द्धद्वीपसिद्ध संख्यातगुणे है!यह क्षेत्र की अपेक्षा अल्प बहुत्व हुआ !विदेह क्षेत्र से, भरत और ऐरावत क्षेत्र से अधिक जीव मुक्त होते है
काल की अपेक्षा अल्पबहुत्व-उत्सर्पिणी काल में न्यूनतम जीव सिद्ध होते है ,उससे अधिक अवसर्पिणी काल में इनसे संख्यात गुणे इन दोनों कालों की अपेक्षा रहित काल में सिद्ध जीव होते है क्योकि विदेह क्षेत्र में ये दोनों ही काल नहीं होते और वहां से जीव निरंतर मुक्त होते रहते है !वर्तमान की अपेक्षा ,एक समय में ही मुक्ति होती है अत:वहां अल्पबहुत्व नहीं है!भूतनय  की अपेक्षा  तिर्यंच से मनुष्यगति से सिद्ध जीव न्यूनतम है मनुष्य से मनुष्यगति प्राप्त मुक्त जीव उससे संख्यात गुणे है!देवगति से मनुष्य गति प्राप्त कर सिद्ध उससे संख्यात गुणे ,है !
वेद की अपेक्षा वर्तमाननय  से वेद रहित जीव मुक्त होते है!भूतनय से नपुंसक से श्रेणी चढ़ कर मुक्त जीव सबसे कम स्त्री वेद से श्रेणी चढ़ कर उससे संख्यात गुणे और पुरुष वेद से श्रेणी चढ़ कर मुक्त जीव उससे संख्यात गुणे  है !
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#2

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तत्वार्थ सूत्र (Tattvartha sutra)
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अध्याय 7
अध्याय 8
अध्याय 9
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