यह धर्म क्या चीज है ?
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जीवन में हम कई बार धर्म शब्द का इस्तमाल करते है ! लेकिन यह धर्म किसे कहते है यह बताना हमें मुश्किल होता है !

आज हम शास्त्रों में धर्म के बारे में क्या कहा ये जानेगे !
# जो प्राणियोंको संसार के दुखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुख प्राप्त करता है उसे धर्म
कहते है !
# व्यवहार के आश्रय से जीवदयाको -प्राणियोंके ऊपर दयाभाव रखना और उसके दुःखमे स्वयं दुःख का अनुभव करने को धर्म कहा है!
# " अहिंसा परमो धर्म " - अहिसा का पालन करना परम धर्म कहा है ! जीव प्राणोंका घात करना व्यवहार से अहिंसा धर्म कहा है तो निश्चय से आत्मा में रागादिक भावोंकी उत्पत्ति होना अहिंसा कहा है ! इसे तो जिनागम का सार कहा है !
# " धरतीति धर्मः " - जो संसार के दुखोंसे निकाल कर स्वर्ग और मोक्षदिक के उत्तम सुख को प्राप्त करता है उसे धर्म कहा है !
# " वस्तु स्वभावो धमः " - वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है !
# रत्नत्रय धर्म - सम्यकदर्शन , सम्यक ज्ञान , सम्यक चारित्र्य को धर्म कहते है !
रत्नत्रय युक्त आत्मा को ही स्थायी धर्म कहा है और वही " धर्म " इस सार्थक नाम से शोभित है क्यों की वह समुद्र रूपी संसार में डूबे हुए प्राणियोंको उससे निकाल कर मोक्ष प्राप्त करता है ! - " भव्यजन कंठभरणं " कविवर्य अर्हद्दास
# निर्मल सम्यक्दर्शन ( सम्यक्त्व ) , अणुव्रत , गुणव्रत , शिक्षाव्रत और मृत्युसमयी
विधिपूर्वक सल्लेखना यह सम्पूर्ण श्रावक धर्म कहलाता है - " सागाधर्मामृत " पंडित आशाधर
# नव देवातओंमे भी धर्म को एक देवता के रूप में स्थान प्रदान किया है
# जैन धर्म - जिनेद्र भगवंत द्वारा प्रतिपादित धर्म को जैन धर्म कहा है !
# श्रमण धर्म - श्रमण शब्द श्रम धातु से बना है ! इसका अर्थ है आत्मा के विकास के लिए श्रम अर्थात तप , ध्यान आदि करके मोक्ष प्राप्त होनेवालोंकी उपासना करनेवाले लोगोंके धर्म को श्रमण धर्म कहते है !
# वीतराग धर्म / आर्हत धर्म - वीतराग भगवंत ( अरिहंत ) की उपासना करनेवाले लोगोंके धर्म को वीतराग धर्म ( आर्हत धर्म ) कहते है !
# निर्ग्रन्थ धर्म - ग्रन्थ याने परिग्रह , अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह रहित मुनियोंको निर्ग्रन्थ कहते है ! और उनके धर्म को निर्ग्रन्थ धर्म कहते है !
# धर्म . श्रावक धर्म .मुनि धर्म के अपेक्षा दो भेद कहे है !
हिंसा , असत्य , चोरी , मैथून , परिग्रह इन पापोंका परीत्याग जहाँ श्रावक एकदेश रूपसेकरता है ! वहां मुनि इसका पूर्ण रूपसे त्याग करते है !
इसलिए गृहस्थ के धर्म को देशचारित्र्य ,और मुनिके धर्म को सकल चारित्र्य कहते है !
इस सकल चारित्र्य को धारण करने वाले मुनि सम्यक दर्शन , सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र्य रूप रत्नत्रयके साधन में तत्पर होकर मूलगुण , उत्तरगुण पांच आचार और दस धर्मोंका परिपालन करते रहते है !
# आत्मस्वभाव को धर्म कहा है ! वस्तुतः वह एक ही ! किन्तु उसके दस रूप बताये है ! जिसे दसलक्षण धर्म कहते है ! उत्तम - क्षमा, मार्दव , आर्जव , शौच , सत्य , संयम , तप ,त्याग ,आकिंचन्य , ब्रम्हचार्य ऐसे दसलक्षण धर्म कहे है ! इन दशलक्षण रूपी धर्म के चिंतन और पालन से जीव की प्रवृति आत्माभिमुख होती है और इससे आत्मा शुद्ध होता है ! इनमे मूलगुण की परिपालनकी प्रमुखता है ! " पद्मनंदी पंचविंशति " - आचार्य पद्मनंदी
# धर्मका स्वरुप व्यवहार और निश्चय की दृष्टिसे बतलाया गया है !
धर्म के दो मूल भेद है ! . व्यवहार धर्म .निश्चय धर्म
. व्यवहार धर्म का स्वरुप - शुभोपयोग
उनमे प्रथमतः व्यवहार के आश्रय से जीवदयाको -प्राणियोंके ऊपर दयाभाव
रखना और उसके दुःखमे स्वयं दुःख का अनुभव करने को व्यवहार धर्म कहा है!
उसके गृहस्थ धर्म और मुनिधर्म की अपेक्षा दो भेद कहे है
रत्नत्रय- सम्यक दर्शन , सम्यक ज्ञान , सम्यक चारित्र्य के अपेक्षा भेद
तथा उत्तम क्षमादि अपेक्षासे दस भेद निर्दिष्ट किये गए है !
यह सब धर्म व्यवहारोपयोगी है और इसे शुभ उपयोग नामसे कहा है !
इससे जीव दुर्गति से नरक और तिर्यंच योनिओंके दुःख से बचाकर उसे मनुष्य
और देवगतिके सुखको प्राप्त करता है ! इसलिए वह अपेक्षाकृत उपादेय है !
जो निश्चय धर्म का कारण है उसे व्यवहार धर्म कहते है !
पंचपरमेष्ठीयोंकि की भक्ति , आहार दान , षट आवश्यक क्रिया गृहस्थोंका परम
धर्म है ! गृहस्थो द्वारा किया जानेवाला यह व्यवहार धर्म परंपरा से मुक्ति का कारण है !
. निश्चय अपेक्षासे धर्म का स्वरुप - शुद्धोपयोग
चारित्र्य ही धर्म है , रागादी समस्त दोषोंसे रहित होकर आत्मा का जो भाव है
वह निश्चय से धर्म है !
सर्वतः उपादेय तो वही धर्म है जो जीवको चतुर्गतिके दुःख से छुटकारा दिलाकर उसे अजर-
अमर बना देता है !
तब जीव शाश्वत पद में स्थित होकर सदा निर्बाध सुखका अनुभव किया करता है !
इस धर्म को शुद्धोपयोग या निश्चय धर्म के नामसे कहा गया है !
इसके स्वरुप का निर्देश करते हुए यहाँ यह बतलाया है की, मोहके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाला
समस्त संकल्प -विकल्पोंसे रहित होकर जो शुद्ध आनंदमय आत्माकी परिणीति होती है उसे ही
यथार्थ धर्म समझना चाहिए !
# व्यवहार धर्म की उपादेयता और हेयता
. पूर्वोक्त व्यवहार धर्मको जो यहाँ उपादेय बतलाया है वह इस निश्चय धर्म का साधक होनेस
के दृष्टी से कहा है !
. किन्तु जो प्राणी सांसारिक सुखको - अभीष्ट विषयोपभोग जनित क्षणिक सबाध
इंद्रियतृप्तिको ही अंतिम सुख मानकर उक्त व्यवहार धर्म को उसीका ( सांसारिक सुखका )
ही साधन समझता है और यथार्थ धर्मसे विमुख रहता है ,
. उन अज्ञानी जनोंको लक्ष्यबिन्दु बनाकर उस व्यवहार धर्म को भी हेय बतलाया है !
. क्यूंकि वो मोक्ष का साधन नहीं होता है !
# जैन धर्म - जैन धर्म को अनादी निधन कहा है क्यों की वह प्राकृतिक धर्म है ! जैन धर्म किसी के द्वारा निर्मित नहीं है ! क्यों की वस्तु स्वभाव को या गुणोंको कोई निर्माण नहीं कर सकता है ! जैसे जल की शीतलता और अग्नि की उष्णता तो प्राकृतिक रहती है ! तीर्थंकर , आचार्य ये सब धर्म के संस्थापक नहीं है इन्होने इस धर्म के वस्तु स्थिति को लोगोंके सामने उपस्थित करने का कार्य किया इसलिए उन्हें धर्म प्रवर्तक कहते है !
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