श्रावक के व्रत और प्रतिमायें भाग २
#1

प्रतिमाये -

श्रावक १२ व्रतों को लेकर, अपने क्रम से बढते हुए, चारित्रिक उत्थान के लिए प्रतिमाये धारण करते है तथा क्षुल्लक,ऐलक/क्षुल्लिका,आर्यिकामाता जी बनता है! श्रावक के इस  धीरे धीरे बढ़ते हुए चारित्रिक उत्थान की भिन्न भिन्न अवस्थाओं -(stages) के क्रम को प्रितामाये कहते है!
-दर्शन प्रतिमा- दर्शन प्रतिमा धारक जीव, सम्यगदृष्टि, अन्याय, अनीति और अभक्ष्य का त्यागी होता है! वह अपने व्यापार में अन्याय नहीं करता,नीति पूर्वक कार्य करता है,कोई मिलावट,हिंसक वस्तु आदि का व्यापार नहीं करता,स्वयम अभक्ष्य का त्यागी होता है! जो जीव यह प्रतिमा लेता है वह सप्तव्यसन का निर्दोष रूप से त्यागी होता है!
2 व्रत प्रतिमा-
पहली प्रतिमा धारण कर खाना-पीना ठीक होने के पश्चात्
दूसरी व्रत प्रतिमा -में,श्रावक अणुव्रत-अहिंसा अणुव्रत,सत्याणुव्रत,अचौर्य अणुव्रत,ब्रह्मचर्य अणुव्रत,परिमाणपरिग्रह अणुव्रत, गुणव्रत-दिगव्रत,देशव्रत,अनर्थदंड व्रत और चार शिक्षा व्रत-सामयिकी,प्रोषधोपवास,भोगोपभोग परिमाण और अतिथि संविभाग,१२ व्रतों को जीवन पर्यन्त के लिए धारण करता है! इन १२ व्रतों के धारण करने से श्रावककी दूसरी व्रत प्रतिमा पूर्ण होती है!
इस प्रतिमा में लिए गए नियमों को संकुचित तो किया जा सकता है किन्तु बढाया नहीं किया जा सकता अन्यथा व्रत भंग का दोष लग जाता है!
-सामायिक प्रतिमा- इसमें नियम से तीन बार,प्रात: सूर्योदय के समय,मध्यनाह-१२ बजे और सांय सूर्यास्त के समय प्रतिमा धारी जघन्य से घड़ी.मध्यम से घड़ी और उत्कृष्टता से घड़ी नियम से सामयिकी विधिपूर्वक करने का नियम लेता है! सर्व प्रथम चारों दिशाओं मे आवर्त ,नवकार मन्त्र का पाठ खड़े होकर करता है,वंदना और नमोस्तु करता है फिर  किसी उत्तर अथवा पूर्व दिशा की ऒर मुह कर, बैठ स्व आत्म चिंतन करता है,अपने दोषों का चिंतन करता है,अपनी आलोचना करता है,भावनाए आदि सामयिकी के निश्चित समय तक भाता है यह सामायिक प्रतिमा का स्वरुप है!
- प्रोषध प्रतिमा- तीनों प्रतिमाओं के बाद यह प्रतिमा ली जाती है! जब दूसरी प्रतिमा ली गयी थी तब वह प्रोषध उपवास अर्थात माह मे दो अष्टमी और दो चतुर्दशी को, इनसे पूर्व और पश्चात दो दिन एकासन और उसी दिन उपवास करता था! वहां वह इस व्रत का अभ्यास करता है अर्थात कभी नहीं भी कर पाए तो चल जाता था किन्तु चौथी प्रोषध प्रतिमा धारी को तो नियम से ये प्रोषध उपवास करने ही है! सप्तमी /तेरस और नवमी/अमावस्या-पूर्णिमा को एकसन्न और अष्टमी/चतुर्दशी को उपवास करना ही होगा! यदि उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं हो तो अष्टमी/चतुर्दशी को तो उपवास अवश्य ही रखेगा!
-सचित्त त्याग प्रतिमा-
  चित्त=जीव,सचित्त=जीव सहित! पांचवी प्रतिमा में श्रावक जीव रहित वस्तुओं के सेवन का नियम लेता है! अभी तक वह सेव को तराश सेवन करता था! जिसमे असंख्यात सूक्ष्म जीव,सुई की नोक से भी छोटे,जो की माइक्रोस्कोप से भी दिखाई नहीं पड़ते, होते है! ऐसा जिनेन्द्र देव ने अपनी दिव्य-ध्वनि मे कहा,जिसे गंधरदेव ने द्वादशांग में गुथित किया और आचार्यों ने शास्त्रों में लिपिबद्ध किया,जिनके स्वाध्याय से हमें ज्ञान हुआ कि,वनस्पति में सुई की नोक से भी सूक्ष्म असंख्यात जीव होते है!पाचवी सचित्त त्याग प्रतिमाधारी सेव,अमरुद,केले,पानी आदि को अचित्त कर सेवन करेगा!पानी को छानने से,त्रस जीवों को हटाकर अभी तक वह पीता था, किन्तु पांचवी प्रतिमा धारण करने के बाद वह छने जल को उबाल कर,एकेंद्रिया जलकायिक जीवों रहित कर अर्थात अचित्त करके पीएगा!
-छट्ठी रात्रि भोजन दिव्या मैथुन त्याग प्रतिमा-
छट्ठी प्रतिमा धरी मन, वचन,काय,कृत ,कारित,अनुमोदन से रात्रि भोजन का त्यागी होता है!वह रात्रि भोजन का स्वयं तो त्यागी होता ही है,किन्तु अन्य किसी को रात्रि में भोजन कराता भी नही है!
इसी प्रतिमा का दूसरा नाम दिव्या मैथुन त्याग प्रतिमा भी है अर्थात प्रतिमाधारी दिन में मैथुन का सर्वथा त्याग करता है!
-ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी-
व्रती,दूसरी प्रतिमा मे, ब्रह्मचर्य अणुव्रत लेते है,जिसमे वह अपनी पत्नी/पति के अतिरिक्त सभी को मां/पिता,बेटी/पुत्र,बहन/भाई तुल्य समझूंगा/समझूंगी! सातवी प्रतिमा मे वह प्रतिमाधारी अपनी पत्नी/पति सहित, समस्त स्त्रियों/पुरषों के साथ काम सेवन का त्याग करता/करती है! अब वह पत्नी/पति के साथ एक कमरे में भी नहीं रहेगा!सोने की बात तो बहुत दूर की है!
-आरम्भ त्याग प्रतिमा-
आरम्भ का अर्थ है जिन व्यापार/नौकरी और घर गृहस्थी के कार्यों के करने से हिंसा होती है वे कार्य आरम्भ कहलाते है! इस प्रतिमा में,प्रतिमाधारी ऐसे समस्त कार्यों का त्याग करता है!वह नौकरी नहीं करता,व्यापार नहीं करता,मकान नहीं बनवा सकता !महिलाए घर का भोजन भी नहीं बनाती !वह केवल अपने लिए भोजन बना सकती है और उसी में से महाराज को आहार भी दे सकती है वह स्वयं के कपडे धोती  है, किन्तु अन्यो के कपडे नहीं धोएगी !
-परिग्रह परित्याग प्रतिमा का स्वरुप -
अपना चारित्रिक विकास करता हुआ, नौवी प्रतिमाधारी श्रावक, समस्त परिग्रहों का त्याग कर, केवल थोड़े से अत्यंत आवश्यकों का नियम से भोगोपभोग करता है,जैसे कपडे में , धोती,3दुपट्टे, बनियान, तकिया, रुमाल आदि का ही भोगोपभोग करता है क्योकि उसको आठवीं प्रतिमा तक के परिग्रह पाप के कारण होने से बॊझ लगने लगते है इसलिए वह इनसे अपना पीछा छुड़ाना चाहता है!
१०- दसवीं अनुमति त्याग प्रतिमा का स्वरुप -
दसवीं प्रतिमाधारी घर मे रह सकते है,किन्तु वे घर के समस्त कार्यों मे सलाह/अनुमति देने के त्यागी होते है क्योकि वह धीरे धीरे क्षुल्लक और मुनि बनने की ऒर अग्रसर हो रहे होते है! उनसे बच्चे मकान बनाने,व्यापारिक गति विधियों, बच्चों की विवाह के विषयआदि में सलाह भी मांगते है तो वह कहते है की मैंने अनुमति देने का भी त्याग कर दिया है,जैसे आपको उचित लगे वैसा करो!
११-११वीं उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाधारी का स्वरुप -
उद्दिष्ट का अर्थ है उद्देश्य से, अर्थात उद्दिष्ट त्याग- अपने उद्देश्य से बनाये गए भोजन का त्याग करना! ग्यारवीं प्रतिमाधारी,अपने लिए किसी भी तरह का भोजन बनाने के लिए नहीं कहते! यदि कोई उनसे कह भी दे,कि "मैंने यह आपके लिए भोजन बनाया है" तो उसको वह ग्रहण नहीं करते क्योकि अपने उद्देश्य से बनायी गयी वस्तु के ग्रहण करने  के वे त्यागी होते है! शास्त्रों के अनुसार,वे अपने लिए लाये गए दुपट्टे-धोती आदि को भी नहीं ग्रहण करते! इसीलिए यदि क्षुल्लक महाराज या क्षुल्लिका बहन जी को वस्त्र देने हो तो हमेशा अपने घर में पहले से लाकर रखने चाहिए, जिससे आप उनके आगमन पर उन्हें दे सके! उनके उद्देश्य से खरीदे हुए धोती-दुपट्टे नहीं होने चाहिए अन्यथा वे उद्दिष्ट हो जायेंगे जिनके ग्रहण करने के क्षुल्लक-क्षुल्लिका ,ऐलक महाराज,आर्यिका माता जी त्यागी होते है!
 
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