गुण-स्थान
#1

गुण-स्थान -

गुण-स्थान :- अनादिकाल से यह जीव अज्ञान के वश में आकर विषयों और कषायों में प्रवृत्ति करता हुआ इस संसार में भटक रहा हैइस भ्रमण में इस जीव ने अनन्तों बार चौरासी लाख योनियों में जन्म लिया ...
कभी अच्छे कर्मों के उदय से देवों के दिव्य-सुखों को भोग खुश, तो कभी त्रियंच-नरक और मनुष्य गति के दुखों को भोग कर विचलित होता रहा ... 
अपने सच्चे आत्म-स्वरुप का दर्शन हो सकने के कारण अनादि-काल से इस जीव की दृष्टि विपरीत ही रही है ! जीव की इस विपरीत दृष्टि के कारण ही उसे "मिथ्यादृष्टि" कहा जाता है !
मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्या को छोड़कर किस प्रकार से यथार्थ दृष्टि (सम्यग्दृष्टि) वाला बनता है, और किस प्रकार अपने गुणों का विकास करते हुए परमात्मा बनता है, उसके इस क्रमिक विकास में आत्मा के गुणों के जिन-जिन स्थानो पर वो रुकता है, उन्हें गुण-स्थान कहते हैं !!! 
यानेबहिरात्मा(मिथ्यादृष्टि) से अंतरात्मा(सम्यग्दृष्टि) और फिर परमात्मा बनने के लिए इस जीव को आत्मिक गुणों की आगे-आगे प्राप्ति करते हुए, जिन-जिन स्थानो से गुज़रना पड़ता है, उन्हें गुण-स्थान कहते हैं !!!
***
गुण-स्थान को समझने के लिए उससे सम्बंधित कुछ अन्य विषय समझना उचित होगा ... जैसे :- उपशम/क्षय/ क्षयोपशम 
हमने कर्मों की प्रकर्तियाँ पढ़ी थी उनमे से मोहनीय कर्म की प्रकृति फिर से देखेंगे ...
गुणस्थान को समझने हेतु पहले कुछ सम्बंधित विषय जानने आवश्यक हैं ...
भाव :-

- औपशमिक 
- क्षायिक 
- मिश्र (क्षायोपशमिक)
- औदायिक, और
- पारिणामिक भाव
----------------
- *उपशम या औपशमिक भाव* :-
----------------
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निम्मित से "कर्म शक्ति के प्रकट होने को" उपशम कहते हैं, और कर्मों के उपशम से आत्मा का जो भाव होता है उसे "औपशमिक भाव" कहते हैं !!! 
याने कारण मिल जाने पर कर्म कि शक्ति के दब जाने से आत्मा में निर्मलता का होना औपशमिक भाव है
उदाहरण :- गंदे पानी में निर्मली मिला देने से मैल नीचे बैठ जाता है, और ऊपर का जल स्वच्छ हो जाता है !
----------------
- क्षय या क्षायिक भाव :-
----------------

कर्मों के पूरी तरह से नष्ट हो जाने को क्षय कहते हैं, कर्मों का बिलकुल अभाव हो जाने से आत्मा का जो निर्मल स्वभाव बनता है, सो " क्षायिक भाव" है !
उदाहरण :- ऊपर वाले दृष्टांत में जब मैल नीचे बैठ गया, तो ऊपर ऊपर से साफ़ पानी को निकाल कर दूसरे बर्तन में रख लिया, जैसे यह जल निर्मल हो गया, सो ही आत्मा भी निर्मल हो जाती है कर्मों के क्षय से !!!
3.मिश्र(क्षायोपशमिक)भाव* :-
----------------
कुछ कर्मों का क्षय और कुछ का उपशम सो मिश्र (क्षायोपशमिक) भाव है
उदाहरण :- ऊपर वाले दृष्टांत में जब पानी को दूसरे बर्तन में डाला तब भी उसमे कुछ मैल साथ में चला गया और नए बर्तन में नीचे बैठ गया !
यानि, वर्त्तमान में आने वाले सर्वघाती कर्मों उद्धयभावी का क्षय और उन्ही के आगामी काल में आने वाले कर्मों का उपशम होना !
*
ये तीन भाव प्रमुख है, सम्यक्त्व कि प्राप्ति में* ...
हमने जब मोहनीय कर्म और मोहनीय-कर्म की प्रकृतियाँ पढ़ीं ,
तब पढ़ा था कि :-
4 - मोहनीय कर्म :- जिस कर्म के उदय से हम मोह, राग, देष आदि विकार भावों का अनुभव करते हैं, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं !
अर्थात,
जो कर्म आत्मा के सम्यक्त्व चारित्र गुणों का घात करता है वो मोहनीय कर्म है !
मोहनीय कर्म का स्वभाव नशीले पदार्थ के सेवन कि तरह है, इसके उदय से यह जीव अपना विवेक खो देता है, उसे हित-अहित का होश नहीं रहता !
काम-क्रोध-माया-लोभ आदि भी मोहनीय कर्म के उदय से ही होते हैं !
** यह कर्मों का राजा है ! जैसे राजा के होने पर उसकी प्रजा असमर्थ याने बेकार हो जाती है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के अभाव में बाकी सारे कर्म अपने कार्य में असमर्थ हो जाते हैं !
==>
सबसे पहले इस मोहनीय कर्म का ही क्षय होता है, उसके बाद बाकी के घातिया और अघातिया कर्मों का क्षय होता है
मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ :-
मोहनीय कर्म के दो प्रकार का है :-
- दर्शन मोहनीय 
- चारित्र मोहनीय
अब इन दोनों भेदों की उत्तर प्रकृतियाँ मिला कर कुल २८ प्रकृतियाँ होती है मोहनीय कर्म की...
- *दर्शन मोहनीय* :- जिस कर्म के उदय से आप्त,आगम और पदार्थों में विपरीत श्रद्धान होता है, वह दर्शन मोहनीय कर्म है !
दर्शन मोहनीय की 3 प्रकृति हैं :-
- सम्यक्त्व प्रकृति - जिस कर्म के उदय से उस मिथ्यात्व की शक्ति घटा दी जाती है, और दोष सहित ही सही, किन्तु आत्मा और यथार्थ में श्रद्धान होने लगता है, वो सम्यक्त्व प्रकृति है !
- मिथ्यात्व प्रकृति - जिसके उदय से यह जीव भगवान् द्वारा कहे गए मार्ग से विमुख, तत्वार्थ के श्रद्धान के प्रति उदासीन और हित-अहित के विवेक से शून्य हो जाता है !
- सम्यगमिथ्यात्व प्रकृति - जिसके उदय से जीव के श्रद्धान और अश्रद्धान रूप मिले हुए भाव होते हैं !
-------------
- *चारित्र मोहनीय*
-----------
-
चारित्र याने आचरण, सो जो आचरण को मोहित करे अथवा जिसके द्वारा विपरीत आचरण किया जाए, उसे चारित्र मोहनीय कर्म कहते हैं !!!
यह कषाय और अकषाय वेदनीय के भेद से प्रकार का है !
. :- कषाय वेदनीय :- कषाय हमने पढ़ी 4 होती हैं
क्रोध, मान, माया और लोभ
ये चार कषाय 
अनंतानुबंधी, प्रत्यख्यानवरण, अप्रत्यख्यानवरण और संज्वलन से मिलके 
4 x 4 = 16
प्रकृतियाँ होती हैं !
अनंतानुबंधी, अप्रत्यख्यानवरण, प्रत्यख्यानवरण और संज्वलन ===> में क्रोध, मान, माया और लोभ की तीव्रता से मंदता होती है !
अनंतानुबंधी कषाय अनंत काल का कारण है !!!
. :- अकषाय वेदनीय :- इसकी नौ प्रकृतियाँ हैं,
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा !
चारित्र मोहनीय की 16+ 9 = 25 और
दर्शन मोहनीय की 3 मिला कर
मोहनीय कर्म की कुल 28 प्रकृतियाँ होती हैं !
सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए सबसे पहले मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम होना ज़रूरी है !
गुणस्थान की आदर्श/मूल परिभाषा है कि
"
मोह और योग के निमित्त से जीव के श्रद्धा और चरित्र गुण की होने वाली तारतम्यरूप अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं !"
याने,
मोह(मिथ्यात्व) और योग(मन-वचन-काय) के मिलने से आत्मा के श्रद्धा(यथार्थ श्रद्धान) और चारित्र रूप गुणों की अलग-अलग अवस्थाओं को गुण-स्थान कहते हैं !
मोह(मिथ्यात्व) ज्यादा होगा तो श्रद्धान विपरीत ही होगा ! और दृष्टि विपरीत होगी तो आत्मा का दर्शन हो नहीं सकता !
Reply


Forum Jump:


Users browsing this thread: 1 Guest(s)