जिन सहस्रनाम अर्थसहित नवम अध्याय भाग २
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जिन सहस्रनाम अर्थसहित नवम अध्याय भाग २




८५१. करोडो सूर्योंके समान प्रभा होनेसे "सूर्यकोटीसमप्रभयह आपकेहि नाम है। 
तपनीयनिभ स्तुंगो बालार्काभोऽ नलप्रभ:। सन्ध्याभ्रबभ्रु र्हेमाभ स्तप्त चामिकरच्छवि:॥८॥
८५२. तप्त सुवर्णके समान वर्ण होनेसे "तपनियनिभ" हो। 
८५३. उँचे शरीर धारी "तुंगहो। 
८५४. उदय होतेसे हुए सुर्य के समान वर्णसे "बालार्काभ" हो। 
८५५. अग्नीके समान वर्ण होनेसे"अनलप्रभ" हो। 
८५६. संध्याके समय छाये हुए मेघ से दृगोचर सूर्य के सुवर्णरक्तवर्ण के समान होनेसे "संध्याभ्रबभ्रु" हो। 
८५७. सुवर्णवर्ण होनेसे "हेमाभ" हो। 
८५८. तपाये हुए सुवर्णके समान कांतिहोनेसे आप को "तप्तचामीकरप्रभभि कहा जाता है। 

निष्टप्त कनकच्छाय: कनत्कांचन संनिभ:। हिरण्यवर्ण: स्वर्णाभ: शातकुम्भ निभप्रभ:॥९॥
सुवर्ण के समान उज्ज्वल और कांतियुक्त होनेसे .......... 
८५९. आप" निष्टप्तकनकच्छाय" हो। 
८६०. "कनत्कांचनसंनिभ" हो। 
८६१. "हिरण्यवर्ण" हो। 
८६२. " स्वर्णाभ" हो। 
८६३. "शातकुम्भनिभप्रभइन नामसे भि जाना जाता है। 

द्युम्नाभो जातरुपाभ स्तप्तजाम्बुदद्युति: । सुधौतकलधौतश्री: प्रदीप्तो हाटकद्युति:॥१०॥
८६४. स्वर्णके समान उज्ज्वल होनेसे "द्युम्नाभ" तथा 
८६५. "जातरुपाभतथा 
८६६. "तप्तजांबुनद्युति" कहलाते हो। 
८६७. तप्त सुवर्णसे मल निकल जानेके बाद निर्मल हुए स्वर्ण जैसे होनेसे "सुधौतकलधौतश्री" हो। 
८६८. दैदिप्यमान होनेसे "प्रदीप्तभि आपको हि कहा जाता है। 
८६९. आप को “हाटकद्युती” भी कहा जाता है। 

शिष्टेष्ट: पुष्टिद: पुष्ट: स्पष्ट: स्पष्टाक्षर: क्षम:। शत्रुघ्नोऽप्रतिघोऽमोघ: प्रशास्ता शासिता प्रभू:॥११॥
८७०. शिष्ट अर्थात उत्तम पुरुषो के प्रिय अथवा इष्ट होनेसे आपको "शिष्टेष्ट" हो। 
८७१. ऐश्वर्य तथा आरोग्यदायी होनेसे "पुष्टीद" हो। 
८७२. महाबलवान अर्थात अनंतवीर्य होनेसे "पुष्टहो। 
८७३. सबको प्रकट दिखायी देने से, आप सबमे विशेष होनेसे अनंत लोगोंमेभी अलग दिखायी देनेसे "स्पष्टहो। 
८७४. आपकी वाणी शुध्द, स्पष्ट, आनंददायी होनेसे "स्पष्टाक्षर" हो। 
८७५. समर्थ होनेसे अथवा धीर होनेसे अथवा क्षमाशील होनेसे "क्षम" हो। 
८७६. कर्मशत्रूके नाशक"शत्रुघ्नहो। 
८७७. क्रोधरहित क्षमावान रहनेसे "अप्रतिघहो। 
८७८. सफल मार्ग के दर्शक होनेसे "अमोघहो। 
८७९. सन्मार्ग दर्शक होनेसे अथवा प्रशस्त शासन का उपदेश देनेसे "प्रशास्ता" हो। 
८८०. समस्त जनोकें संसारमार्गसे रक्षक होनेसे "शासिता" हो। 
८८१. अपने आप उत्पन्न होनेसे, स्वयं हि स्वयं के स्वामी होनेसे "स्वभूऐसे भि आपके रुप् है, आपके नाम ह। 

शान्तिनिष्ठो मुनिज्येष्ठ: शिवताति: शिवप्रद:। शान्तिद: शान्ति कृच्छान्ति: कान्तिमान् कामितप्रद:॥१२॥
८८२. शान्तिमे हि रुचि रहनेसे अथवा सदैव शांत हि रहनेसे "शांतिनिष्ठ" आप हो । 
८८३. मुनियोंमे श्रेष्ठ होनेसे अथवा आपहि इस काल के प्रथम मुनि होनेसे अथवा इस काल मे मुनिधर्म कि शुरुवात करनेसे "मुनिज्येष्ठभी आप हो। 
८८४. सुख कि परंपरा होनेसे अथवा आनंद का स्रोत होनेसे "शिवतातिहो। 
८८५. कल्याण के, मोक्षके दाता होनेसे "शिवप्रद" हो। 
८८६. शांतिदायक आप"शांतिद" हो। 
८८७. समस्त उपद्रव शामक होनेसे "शांतिकृत" हो। 
८८८. कर्मोका क्षय करके शमन करनेसे "शान्ति" हो। 
८८९. कान्तियुक्त होनेसे "कान्तिमान" हो। 
८९०. मनोवांछित फल देनेवाले वरद होनेसे "कामितप्रदभी आपको हि पुकारा जाता है। 

श्रेयोनिधी रधिष्ठान मप्रतिष्ठ: प्रतिष्ठीत:। सुस्थिर: स्थावर: स्थाणु: प्रथीयान्प्रथित: पृथु:॥१३
८९१. आप, जे भगवन् , कल्याण का सागर हो"श्रेयोनिधी" हो। 
८९२. धर्म का आधार अथवा धर्म का मूल कारण होनेसे "अधिष्ठान " हो। 
८९३. आपको किसीने ईश्वर नही बनाया, आप स्वयं हि स्वयं के पुरुषार्थ से ईश्वर बन गये हो, इसलिये आप"अप्रतिष्ठ" हो। 
८९४. लेकिन ईश्वर बनने के बाद आप सर्वत्र "प्रतिष्ठितहो गये हो । 
८९५. आप अतिशय स्थिर हो, अर्थात स्वयं मे हो, इसलिये आप"सुस्थिरहो। 
८९६. आप ईश्वर होकर विहार रहीत हो, आप पृथ्वी पर चले बगैर हि, सर्वत्र पहुँच जाते हो, इसलिये "स्थावर" हो। 
८९७. निश्चल हो, स्वयं मे स्थिर हो, निज मे रमते हो, इसलिये "स्थाणुहो। 
८९८. आप ज्ञान के द्वारा विस्तृत हो, इसलिये "प्रथीयानहो। 
८९९. प्रसिध्द हो, लोगोंके चर्चा का विषय हो इसलिये "प्रथित" हो । 
९००. आप बहोत बडे हो, ज्येष्ठ हो, श्रेष्ठ हो, विश्ववंद्य हो, इसलिये आपको "पृथु" भि कहा जाता है। 
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