जिन सहस्रनाम अर्थसहित दशम् अध्याय भाग १
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जिन सहस्रनाम अर्थसहित दशम् अध्याय भाग १




दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशो निरम्बर:। निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुर मोमुह:॥१॥
९०१. दश दिशाहि आपके वस्त्र है, अर्थात आप कोई भि वस्त्र का उपयोग नही करते इसलिये "दिग्वासा" हो। 
९०२. आप कोई भि करधनी (कमरगोफ) का प्रयोग नही करते मानो वायु हि जो आपकी परिक्रमा करता है, वह आपकी करधनी है, इसलिये "वातरशन" हो। 
९०३. निर्ग्रंथ मुनि जो आपका हि वेष धारण करते है, उनमे श्रेष्ठ होनेसे "निर्ग्रंथेश" हो। 
९०४. आप कोई भि आवरण का प्रयोग ना करनेसे "निरंबर" हो। 
९०५. अकिंचन होनेसे अथवा तुषमात्र भि परिग्रह ना होनेसे "निष्किञ्चन" हो। 
९०६. इच्छा या कांक्षा ना होनेसे "निरांशस" हो। 
९०७. ज्ञान रुपी नेत्रो को धारण करनेसे, आपके ज्ञान मे समस्त जगत कि दृष्टी मे जो पदार्थ है, वह रहनेसे "ज्ञानचक्षुहो। 
९०८. अत्यंत निर्मोही होनेसे अथवा मोहांधकार का नाश करनेसे "अमोमुहभि आपको हि कहा जाता है। 

तेजोराशी रनंतौजा ज्ञानाब्धि: शीलसागर:। तेजोमयोऽ मितज्योति ज्योतिर्मूर्ति स्तमोपह:॥२
९०९. समवशरण मे स्थित आपका तेज अनंतगुणे दृश्य होनेसे अथवा तेज के समूह होनेसे "तेजोराशी" हो। 
९१०. अत्यंत पराक्रमी होनेसे अथवा अनंतशक्त होनेसे "अनंतौजाहो। 
९११. ज्ञान के सागर होनेसे "ज्ञानाब्धिहो। 
९१२. आपके १८००० शील गुण प्रकट होनेसे, शील के सागर होनेसे, स्वभाव मे विशालता होनेसे "शीलसागर" हो। 
९१३. आपका स्वंय का तेज और समवशरण मे देवकृत अतिशय तथा प्रातिहार्य से आप तेज से अंकित अर्थात"तेजोमयहो। 
९१४. आपके ज्ञान ज्योती का प्रकाश अमित है अथवा कोई भि मिती आपके ज्ञान को सीमामे नही बांध सकती, आप ऐसे ज्ञान का उपदेश देते है, जो राह मे प्रकाश के समान सदैव साथ दे इसलिये "अमितज्योतीहो। 
९१५. तेजस्वरुप, प्रकाशरुप, ज्ञानज्योतीरुप होनेसे "ज्योतिर्मूर्ति" हो। 
९१६. अज्ञानांधकार अथवा मोहांधकार का नाश करनेवाले होनेसे "तमोपह" भि आपका हि नाम है। 

जगच्चूडामणि र्दीप्त: शंवान विघ्नविनायक:। कलिघ्न कर्मशत्रुघ्नो लोकालोक प्रकाशक:॥३॥
९१७. तीन लोकोमे मस्तक के रत्न होनेसे अथवा तिन लोक के मस्तक मुकुट अर्थात सिध्दशीला पर विराजमान होनेवाले होनेसे "जगच्चुडामणी" हो। 
९१८. तेजस्वी अथवा प्रकाशमान होनेसे अथवा स्वयंके प्राप्त केवलज्ञानसे बोधित होनेसे "दीप्त" हो। 
९१९. सदैव सुखमे सातामे शांत रहनेसे "शंवानहो। 
९२०. विघ्न अर्थात अंतराय कर्म के नाशक होनेसे "विघ्नविनायकहो। 
९२१. दोषोंको दुर करने अथवा कषायोंका नाश करनेसे "कलिघ्न" हो। 
९२२. कर्मशत्रूओंका नाश करनेसे "कर्मशत्रूघ्नहो। 
९२३. लोक तथा अलोक को प्रकाशित करनेवाले होनेसे "लोकालोकप्रकाशकनामसे भि आपको जाना जाता है। 

अनिद्रालु रतन्द्रालु र्जागरूक: प्रभामय:। लक्ष्मीपति र्जगज्ज्योति र्धर्मराज: प्रजाहित:॥४॥
९२४. आपके कोई परिषह नही होते अर्थात निद्रा भि नही है, इसलिये आपको "अनिद्रालु" हो। 
९२५. निद्रा और जागरुकता के बिचमे जो तंद्रा होती है वह स्थिती भि आपकी नही होती, अर्थात आप सदैव जागरुक होते है, इसलिये "अतंद्रालु" हो। 
९२६. अपने स्वरुप के सिध्दीके लिये आप सदैव तत्पर रहते है, आप "जागरुकहो । 
९२७. ज्ञान स्वरुप होनेसे अथवा भामंडल सहीत होनेसे "प्रभामयहो। 
९२८. मोक्षलक्ष्मी के अधिपती आप"लक्ष्मीपतीभी कहलाते है । 
९२९. जगत को प्रकाशीत करनेवाला ज्ञान धारण करनेसे अथवा जगत मे आप जैसा कोई ना ज्ञानी होनेसे "जगज्ज्योति" हो। 
९३०. धर्म के स्वामी होनेसे अथवा, आपने राज्यत्याग करके धर्म को हि अपना राज्य माना है, इसलिये "धर्मराज"हो। 
९३१. प्रजा के हितैषी होनेसे तथा आप हि प्रजा के लिये उसका हित हो, इसलिये आपको "प्रजाहित" भि कहा है। 

मुमुक्षु र्बन्ध मोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथ:। प्रशान्तरसशैलुषो भव्यपेटकनायक:॥ ५॥
९३२. मोक्ष मे हि रुचि रखनेसे आप"मुमुक्षुहै। 
९३३. बन्ध और मोक्ष का स्वरुप जाननेसे "बन्धमोक्षज्ञ" हो। 
९३४. इन्द्रिय विजयी होनेसे अथवा इन्द्रियेच्छा ना होनेसे या शांत होनेसे "जीताक्ष" हो। 
९३५. काम पर विजय पानेसे "जितमन्मथ" हो। 
९३६. गंधर्व जैसे रस पान करके मस्त होके नृत्य करते है, वैसे हि आप शांतरस मे हि नर्तन करनेसे "प्रशांतरसशैलुषकहे जाते है। 
९३७. समस्त लोक के भव्य जीवोंके नायक होनेसे "भव्यपेटकनायक" भि आप कहलाते है। 

मूलकर्ताऽ खिलज्योति र्मलघ्नो मूलकारण:। आप्तो वागीश्वर: श्रेयान श्रायसुक्ति र्निरुक्तिवाक्॥६॥
९३८. कर्म भुमी के कर्ता होनेसे अथवा धर्म के मूल होनेसे "मूलकर्ताहो। 
९३९. अनंतज्ञानज्योति स्वरुप होनेसे "अखिलज्योती" हो। 
९४०. रागद्वेषादि मल का नाश करनेसे अथवा आत्मा के ऊपर चिपके हुए कर्ममल का नाश करनेसे "मलघ्नहो। 
९४१. मोक्ष के मूल कारण होनेसे अथवा मोक्ष की इच्छा आपको देखकर उत्पन्न होनेसे "मूलकारणहो। 
९४२. समस्त लोक मे आप हि एक विश्वसनीय ( मोक्षमार्गके) होनेसे अथवा आपकी वाणी यथार्थ मोक्षमार्ग प्रकाशक होनेसे "आप्तहो। 
९४३. अमोघ वाणी के वक्ता होनेसे "वागीश्वर" हो। 
९४४. कल्याण स्वरुप अथवा इष्ट रुप होनेसे अथवा मंगल कर्ता होनेसे "श्रेयान्" हो। 
९४५. आपकी वाणी भी कल्याणकारी होनेसे अथवा मंगल होनेसे "श्रायसुक्तिहो। 
९४६. नि:संदेह वाणी होनेसे अथवा आजतक आपके जैसी वाणी किसीने भि नही प्रकट की हुई होनेसे आपको "निरुक्तवाक्इत्यादि नामोंसे भी जाना जाता है। 

प्रवक्ता वचसामीशो मारजित् विश्वभाववित्। सुतनु स्तनुनिर्मुक्त: सुगतो हतदुर्नय:॥ ७॥
९४७. सबसे श्रेष्ठ वक्ता होनेसे "प्रवक्ताहो। 
९४८. आपके वाणी मे सर्व प्रकार के वचन शामील होनेसे "वचसामिश" हो। 
९४९. कामदेव को जितनेसे अथवा मार पर विजयी होनेसे "मारजित्हो। 
९५०. समस्त प्राणीयोंके अभिप्राय जाननेसे अथवा विश्व व्यापक भाव धारण करनेसे "विश्वभाववित्" हो। 
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