श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली द्वितीय अध्याय भाग २
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श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली द्वितीय अध्याय भाग २


१५१-ॐ ह्रीं अर्हं वृषकेतवे  नमः   -धर्म की पताका रूप  होने से,
१५२ -ॐ ह्रीं अर्हं वृषायुधाय   नमः-कर्मशत्रुओं को नष्ट करने के लिए धर्मरूप शास्त्र को धारण करने से 

१५३-ॐ ह्रीं अर्हं वृषाय   नमः -धर्मरूप  होने से,

१५४-ॐ ह्रीं अर्हं वृषपतये    नमः  -धर्म के स्वामी होने से,

१५५-ॐ ह्रीं अर्हं भर्त्रे    नमः  -समस्त जीवों के पोषक  होने से,,

१५६-ॐ ह्रीं अर्हं वृषभांकाय  नमः  -वृषभ /बैल चिन्ह अंकित  होने से,,,

१५७-ॐ ह्रीं अर्हं वृषोद्भवाय  नमः  - पूर्व पर्यायों में उत्तम धर्म धारण कर ही  तीर्थंकर होकर उत्पन्न  होने से,,

१५८-ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्यनाभये  नमः  -की सुंदर नाभि होने से ,

१५९-ॐ ह्रीं अर्हं भूतात्मने   नमः  -की आत्मा सत्यरूप  होने से,,

१६०- ॐ ह्रीं अर्हं भूतभृते   नमः  -समस्त जीवों के रक्षक  होने से,

६१-ॐ ह्रीं अर्हं भूतवानाय  नमः  -अतिउत्तम  भावनाये हो ने से,,

१६२-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभवाय   नमः  मोक्ष प्राप्ति में कारण अथवा  जन्म प्रशंसनीय होने से,

१६३-ॐ ह्रीं अर्हं विभवाय   नमः  -संसार से रहित होने से,,

१६४- ॐ ह्रीं अर्हं भास्वते   नमः  -देदीप्यमान होने से,

१६५-ॐ ह्रीं अर्हं भवाय   नमः  -ध्रौव्य रूप से सदा विध्यमान होने  से,

१६६-ॐ ह्रीं अर्हं भावाय  नमः  -अपने चैतन्य रूप भाव में लीन होने से,

१६७-ॐ ह्रीं अर्हं भवान्तकाय  नमः  -संसार भ्रमण का अंत  भावनाये,

१६८-ॐ ह्रीं अर्हं हिरण्य गर्भाय नमः  -के गर्भ में रहते हुए  पृथिवी स्वर्णमय  होने और  आकाश से देवों द्वारा  स्वर्ण की वर्षा करने से,,

१६९-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीगर्भाय   नमः  -अंतरंग में अनंत चतुष्टाय रूपलक्ष्मी देदीप्यमान रहने से,

१७०-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूतविभवाय   नमः  -अत्यंत वैभवशाली होने से,

१७१-ॐ ह्रीं अर्हं अभवाय   नमः -जन्मरहित होने से,

१७२-ॐ ह्रीं अर्हं स्वयंप्रभाय नमः  - स्वयं समर्थ होने से,

७३-ॐ ह्रीं अर्हं प्रभूतात्माने  नमः -केवल ज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्याप्त  होने से,,

१७४-ॐ ह्रीं अर्हं भूतनाथाय नमः  -समस्त जीवों के स्वामी होने से ,

१७५-ॐ ह्रीं अर्हं जगत्प्रभवे    नमः  -तीनो लोक के स्वामी होने से,

१७६-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वादये नमः   -सब से मुख्य होने से,

१७७-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदृशे   नमः  -सभी पदार्थों को देखने वाले होने से ,

१७८-ॐ ह्रीं अर्हं सार्वाय   नमः -सब का हित करने वाले होने से,

१७९-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वज्ञाय  नमः  -सब पदार्थों के ज्ञाता होने से,,

१८०- ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदर्शनाय   नमः  -का सम्यक्त्व/दर्शन /केवलदर्शन पूर्ण अवस्था को प्राप्त होने से,

१८१-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वात्मने नमः  -सब के  हितैषी /सबको अपने समान समझते है /संसार के समस्त पदार्थ उनके आत्मा में प्रतिबिंबितहोने से,

१८२-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकेशाय   नमः  -सभी  लोगो के स्वामी होने से,

८३-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वविदे नमः  -सब पदार्थों के ज्ञाता होने से,

१८४-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकजिताय नमः   -समस्त लोकों के विजेता होने से,

१८५-ॐ ह्रीं अर्हं सुगतये नमः   -की मोक्ष रुपी गति अतिशय सुंदर है,/ज्ञान सर्वोत्तम  होने से,

१८६-ॐ ह्रीं अर्हं सुश्रुताय    नमः  - उत्तम शास्त्रों के धारक  होने से,

१८७-ॐ ह्रीं अर्हं सुश्रुते   नमः   -सभी जीवों की प्रार्थना सुनते है अत:,

१८८-ॐ ह्रीं अर्हं सुवाचे नमः  - वचन अति उत्तम ने से,

१८९-ॐ ह्रीं अर्हं सूरये नमः   -समस्त विद्याओं को प्राप्त करने से,

१९०-ॐ ह्रीं अर्हं बहुश्रुताय   नमः   -सभी शास्त्रों के परिगामी होने से,

१९१-ॐ ह्रीं अर्हं विश्रुताय   नमः   -बहुत प्रसिद्द है अथवा उन्हें  केवलज्ञान प्राप्ति से क्षयोपशमिक श्रुतज्ञान का क्षय होने से,

१९२-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वत:पादाय   नमः   -केवलज्ञान रूपी किरणे संसार में सर्वत्र व्याप्त  होने से,

१९३-ॐ ह्रीं अर्हं विशवशीर्षाय नमः   -लोकशिखर पर विराजमान  होने से,

१९४-ॐ ह्रीं अर्हं शुचिश्रवसे   नमः   -श्रवण शक्ति अत्यंत पवित्र  होने से,

१९५-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्रशीर्षाय  नमः   -अनंत सुख की प्राप्ति से होने से,

१९६-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेत्रज्ञाय  नमः  - क्षेत्र  अर्थात आत्मा को जानने से क्षेत्रज्ञ,

१९७-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्राक्षाय नमः   -अनंत पदार्थों को जानने से ,

९८-ॐ ह्रीं अर्हं सहस्रपादे   नमः  -अनंत बल के धारक होने से ,

१९९-ॐ ह्रीं अर्हं भूतभव्य भवद्  भर्त्रे  नमः   -भूत,भविष्य और वर्तमान काल के स्वामी होने से,

२००-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वविद्यामहेश्वराय नमः   -समस्त विद्याओं के प्रधान स्वामी होने से,
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