श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली तृतीय अध्याय भाग १
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श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली तृतीय अध्याय भाग १






२०१-ॐ ह्रीं अर्हं स्थविष्ठ नमः समीचीन गुणों की अपेक्षा अतिशय स्थूल  होने से,',

२०२- ॐ ह्रीं अर्हं स्थविर   नमः ज्ञानादि गुणों द्वारा वृद्ध  होने से,

२०३-ॐ ह्रीं अर्हं ज्येष्ठ नमः तीनोलोकों में अतिशय प्रशस्त होने से ',

२०४-ॐ ह्रीं अर्हं प्रष्ठ नमः सबके अग्रगामी होने से ,

२०५-ॐ ह्रीं अर्हं प्रेष्ठ' नमः सबको अतिशय प्रिय  होने से,

२०६-ॐ ह्रीं अर्हं वरिष्ठधी नमः बुद्धि अतिशय श्रेष्ठ  होने से,

२०७-ॐ ह्रीं अर्हं स्थेष्ठ   नमःस्थिर अर्थात नित्यहोने से,

२०८-ॐ ह्रीं अर्हं गरिष्ठ नमः अत्यंत गुरु होने से,

२०९-ॐ ह्रीं अर्हं बंहिष्ठ नमःगुणों की अपेक्षा अनेक रूप धारण करने से

२१०-ॐ ह्रीं अर्हं श्रेष्ठ नमःअतिशय प्रशस्त  होने से,

२११-ॐ ह्रीं अर्हं अनिष्ठ नमःअतिशय सूक्ष्म होने से ,

२१२-ॐ ह्रीं अर्हं गरिष्ठगी  नमः वाणी अतिशय से गौरवपूर्ण  होने से,,

२१३-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वमुट नमःचतुर्गतिरूप संसार का क्षय   होने से, ,

२१४-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वसृट नमः समस्त  संसार  की व्यवस्थापक होने से ,

२१५-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वेट नमः सर्व लोक के  ईश्वर  होने से,

२१६-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वमुक नमःसमस्त संसार के रक्षक होने से ,

२१७-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वनायक   नमःअखिल लोक के स्वामी होने से,,

२१८-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वासी  नमः समस्त संसार में व्याप्त(केवलज्ञान की अपेक्षाहोने से,,

२१९-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वरूपात्म नमः केवलज्ञान स्वरुप ह/आत्मा अनेक रूप है अत:

२२०-ॐ ह्रीं अर्हं विश्वजित नमः सबको जीतने वाले है अत:

२२१-ॐ ह्रीं अर्हं विजितान्तक नमःमृत्यु   पर  विजयी होने से,

२२२-ॐ ह्रीं अर्हं विभव नमः संसार भ्रमण समाप्त होने से ,

२२३-ॐ ह्रीं अर्हं विभय    नमः भय रहि त  होने से,,

२२४-ॐ ह्रीं अर्हं वीर नमः अनंत बलशाली होने से,

२२५-ॐ ह्रीं अर्हं विशोक नमः शोक रहित   होने से,

२२६-ॐ ह्रीं अर्हं विजर नमः वृद्धावस्था से रहित  होने से,,

२२७-ॐ ह्रीं अर्हं जरन नमः सबसे प्राचीन होने से ,

२२८-ॐ ह्रीं अर्हं विराग नमः रागरहित होने से ,

२२९-ॐ ह्रीं अर्हं विरत नमः समस्त पापों से विरत होने से,

२३०-ॐ ह्रीं अर्हं असंग नमः परिग्रह रहित  होने से,',

२३१-ॐ ह्रीं अर्हं विवक्त   नमः पवित्र  होने से',

२३२-ॐ ह्रीं अर्हं वीतमत्सर नमः मात्सर्य रहित   होने से

२३३-ॐ ह्रीं अर्हं विनेयजनता  नमःबंधु-अपने शिष्य जनों  हितैषी होने से'

२३४-ॐ ह्रीं अर्हं विलीनाशेषकल्मष नमः समस्त कर्मों  के क्षय  होने से

२३५-ॐ ह्रीं अर्हं वियोग नमः मन   ,वचन, काय के निमित्त से होने वाले आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द   हित होने से,

२३६-ॐ ह्रीं अर्हं योगविद् नमः योग/ध्यान के स्वरुप के ज्ञाता होने से योगविद',

२३७-ॐ ह्रीं अर्हं विद्वान नमः समस्त पदाथों के ज्ञाता होने से,

२३८-ॐ ह्रीं अर्हं विधाता नमः धर्म रूप सृष्टि के कर्ता होने से,

२३९-ॐ ह्रीं अर्हं सुविधि नमः के कार्य अति उत्तम  होने से,

२४०-ॐ ह्रीं अर्हं सुधि नमः उत्तम  बुद्धि के धारक होने से ,

२४१-ॐ ह्रीं अर्हं क्षान्तिभाक्  नमः उत्तम क्षमा धारण करने से ,

२४२-ॐ ह्रीं अर्हं पृथ्वीमूर्ती  नमः पृथिवी के समान सहनशील  होने से,

२४३-ॐ ह्रीं अर्हं शांतिभाव नमः शांति के उपासक होने से ,

२४४-ॐ ह्रीं अर्हं सलिलात्मक    नमः जल के समान शीतलता प्रदायक  होने से,

२४५-ॐ ह्रीं अर्हं वायुमूर्ती  नमः वायु के समान पर पदार्थों के संसर्ग रहित होने से',

२४६-ॐ ह्रीं अर्हं असंगात्मा नमः परिग्रह रहित होने से 

२४७-ॐ ह्रीं अर्हं वहग्निमूर्ती नमः अग्नि के समान कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाले होने से,

२४८-ॐ ह्रीं अर्हं अधर्मधक   नमः अधर्म को जलाने वाले होने से ',

२४९-ॐ ह्रीं अर्हं सुयज्वा  नमः कर्मरूपी सामग्री को भली प्रकार   होम करने से ,


२५०-ॐ ह्रीं अर्हं यजमानात्मा- नमःनिज  स्वभाव के आराधक होने से,
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