श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली चतुर्थ अध्याय भाग २
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श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली चतुर्थ अध्याय भाग २


३५१-ॐ ह्रीं अर्हं निर्मदाय  नमः   -शंकर रहित   होने से,

३५२-ॐ ह्रीं अर्हं  शान्ताय   नमः   -शांति प्राप्त करने से',

३५३-ॐ ह्रीं अर्हं निर्मोहाय  नमः   -मोह  रहित  होने से,

३५४ -ॐ ह्रीं अर्हं निरुपद्रवाय  नमः   -उपसर्ग आदि रहित  होने से,

३५५-ॐ ह्रीं अर्हं निनिर्मेषाय नमः   - पलको के नही झपकने से,

३५६-ॐ ह्रीं अर्हं निराहाराय  नमः   -कवलाहार ग्रहण नही करने से ,

३५७ -ॐ ह्रीं अर्हं निष्क्रियाय   नमः  -सांसारिक क्रियाओं रहित  होने से,

३५८-ॐ ह्रीं अर्हं निरुपप्लवाय नमः  -बाधारहित  होने से,

३५९-ॐ ह्रीं अर्हं निष्कलंकाय नमः   -कलंक  रहित होने से

३६०-ॐ ह्रीं अर्हं निरस्तैनसे  नमः    -समस्त एनस अर्थात पापो को दूर करने से ,

३६१-ॐ ह्रीं अर्हं निर्धूतागसे  नमः    -समस्त अपराधों को दूर करने से ,

३६२-ॐ ह्रीं अर्हं निरास्रव नमः   -कर्मों के आस्रव रहित  होने से,

३६३-ॐ ह्रीं अर्हं विशालाय नमः   -विशालतम होने से ,

३६४-ॐ ह्रीं अर्हं विपुलज्योतिषे नमः   -केवलज्ञानरूपी विशाल ज्योति के  धारक होने से',

३६५-ॐ ह्रीं अर्हं अतुलाय नमः   -उपमा रहित होने से,

३६६-ॐ ह्रीं अर्हं अचिंत्यवैभवाय नमः   - अचिन्त्यवैभव  होने से',

३६७-ॐ ह्रीं अर्हं सुसंवृताय नमः   -नवीन कर्मों  आस्रव को रोककर पूर्ण संवर होने  से,

३६८-ॐ ह्रीं अर्हं सुगुप्तात्मने  नमः   -की आत्मा अतिशय सुरक्षित  होने  से अथवा  गुप्तियों युक्त होने से

३६९-ॐ ह्रीं अर्हं सुभुते   नमः  -समस्त पदार्थों के  भली प्रकार ज्ञाता  होने से,

३७०-ॐ ह्रीं अर्हं सुनयतत्वविदे  नमः   -समीचीन नयों के यथार्थ रहस्यों के ज्ञाता होने से,

३७१ॐ ह्रीं अर्हं एकविद्याय नमः   -केवलज्ञानरूपी एक विद्या के धारक होने से,

३७२-ॐ ह्रीं अर्हं महाविद्याय  नमः   -बड़ी बड़ी विद्याओं के  धारक होने से

३७३ -ॐ ह्रीं अर्हं मुनये  नमः   -प्रत्यक्षज्ञानी होने से,

३७४-ॐ ह्रीं अर्हं परिवृढाय   नमः  -सबके स्वामी होने से,

३७५-ॐ ह्रीं अर्हं पतये   नमः   -संसार के समस्त जीवों के रक्षक  होने  से,

३७६-ॐ ह्रीं अर्हं धीशाय  नमः   -बुद्धि के स्वामी  होने से ,

३७७-ॐ ह्रीं अर्हं विद्यानिधये  नमः   -विद्याओं  के भंडार  होने  से,

३७८-ॐ ह्रीं अर्हं साक्षिणे नमः   -समस्त पदार्थों के प्रत्यक्ष ज्ञाता होने  से ;

३७९- ॐ ह्रीं अर्हं विनेत्रे  नमः   -मोक्षमार्ग  को प्रकट करने वाले होने  से,

३८०-ॐ ह्रीं अर्हं विहतान्तकाय  नमः    -मृत्यु को नष्ट करनेवाले  होने  से,

३८१-ॐ ह्रीं अर्हं पित्रे  नमः   -चतुर्गति के समस्त   जीवों  रक्षक  होने  से

३८२- ॐ ह्रीं अर्हं पितामहाय  नमः   -समस्त जीवों के गुरु होने से,

३८३ -ॐ ह्रीं अर्हं पात्रे  नमः   -समस्त जीवों के पालन करने  से ,

३८४-ॐ ह्रीं अर्हं पवित्राय  नमः   -अतिशय शुद्  होने  से

३८५- ॐ ह्रीं अर्हं पावनाय  नमः   -सबको शुद्ध  करने  से

३८६- ॐ ह्रीं अर्हं गतये  नमः   -के अनुरूप सभी भव्यजीव तपश्चरण द्वारा होने से ,

३८७-ॐ ह्रीं अर्हं त्रात्रे  नमः   -खंडाकार छेद निकाल कर गतिरहित होने से

३८८-ॐ ह्रीं अर्हं भिषग्वराय नमः   -जन्म-जरा-मृत्यु रूप रोगो को नष्ट करने के लिए उत्तम वैद्य होने ,

३८९-ॐ ह्रीं अर्हं वर्याय  नमः   -श्रेष्ठ होने से,

३९०-ॐ ह्रीं अर्हं वरदाय  नमः   - इच्छानुकूल पदार्थों को प्रदान करने वाले होने से

३९१ -ॐ ह्रीं अर्हं परमाय  नमः   - ज्ञानादि लक्ष्मी अतिशय श्रेष्ठ  होने से

३९२ -ॐ ह्रीं अर्हं पून्से नमः   -आत्मा और परपुरुषों को पवित्र करने के कारण  होने से,

३९३-ॐ ह्रीं अर्हं कवये  नमः   -द्वादशांग का वर्णन करने वाले होने से

३९४-ॐ ह्रीं अर्हं पुराणपुरुषाय नमः    -अनादिकाल से होनेसे 

३९५-ॐ ह्रीं अर्हं वर्षीयसे  नमः    -गुणों की अपेक्षा अतिशय वृद्ध होने से,

३९६-ॐ ह्रीं अर्हं वृषभाय  नमः   -श्रेष्ठ होने से,

३९७-ॐ ह्रीं अर्हं पुरवे  नमः   -आदिपुरुष होने से,

३९८-ॐ ह्रीं अर्हं प्रतिष्ठाप्रभवाय    नमः   -सम्मान अथवा स्थिरता  के कारण,

३९९-ॐ ह्रीं अर्हं हेतवे  नमः   -समस्त उत्तम   कार्यों के कारण  होने से

४००-ॐ ह्रीं अर्हं भुवनैकपितामहाय नमः   -संसार के  एकमात्र गुरु होने से,
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