श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली सप्तम अध्याय भाग १
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श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली सप्तम अध्याय भाग १



६०१-ॐ ह्रीं अर्हं  असंस्कृत सुसंस्काराय  नमः   -किसी के  द्वारा संस्कृत हुए बिना ही  स्वयं उत्तम संस्कारों धारण करने से,

६०२-ॐ ह्रीं अर्हं प्राकृताय  नमः   -स्वाभाविक होने से,

६०३-ॐ ह्रीं अर्हं वैकृतान्तकृताय नमः   -रागादि विकारों के नष्ट होने से,

६०४-ॐ ह्रीं अर्हं अन्तकृते  नमः   -अंत अर्थात धर्म अथवा जन्म-मरण रूप संसार  अवसान करने वाले होने से

६०५-ॐ ह्रीं अर्हं कान्तगवे  नमः   -सुंदर कांति ,वचन/ इन्द्रियों के  धारक होने से ,

६०६-ॐ ह्रीं अर्हं कान्ताय  नमः   -अत्यंत सुंदर होने से,

६०७-ॐ ह्रीं अर्हं चिंतामणये  नमः   -इच्छित पदार्थों देने से,

६०८-ॐ ह्रीं अर्हं अभीष्टदाय   नमः   -भव्य जीवों के लिए अभीष्ट -स्वर्ग मोक्ष को देने से,

६०९-ॐ ह्रीं अर्हं अजिताय  नमः   -किसी के  द्वारा जीते नही जाने से,

६१०-ॐ ह्रीं अर्हं जितकामरये  नमः   -कामरूप शत्रुओं को जीतने से कहलाते  है

६११-ॐ ह्रीं अर्हं अमिताय  नमः   -अवधिरहित होने से,

६१२-ॐ ह्रीं अर्हं अमितशासनाय  नमः   -अनुपम धर्म उपदेशक होने से,

६१३-ॐ ह्रीं अर्हं जितक्रोधाय  नमः   -क्रोधको जीतने से,

६१४-ॐ ह्रीं अर्हं जितमित्राय  नमः   -शत्रुओं पर जीत पाने से,

६१५-ॐ ह्रीं अर्हं जित क्लेशाय  नमः   -क्लेशों पर विजयी होने से,

६१६-ॐ ह्रीं अर्हं जितान्तकाय  नमः   -यमराज पर विजयी होने से,

६१७-ॐ ह्रीं अर्हं जिनेन्द्राय  नमः   -कर्मरूप शत्रुओं पर विजेताओं में सर्वश्रेष्ठ होने से,


६१८-ॐ ह्रीं अर्हं परमानन्दाय  नमः   -उत्कृष्ट आनन्द के धारक होने से,

६१९-ॐ ह्रीं अर्हं मुनीन्द्राय  नमः    -मुनियों के साथ होने से ,

६२०-ॐ ह्रीं अर्हं दुन्दुभिस्वनाय  नमः   -दुन्दुभि के समान गंभीर होने से,

६२१-ॐ ह्रीं अर्हं महेन्द्रवन्द्याय   नमः   -बड़े बड़े इन्द्रों द्वारा बंदनीय होने से,

६२२-ॐ ह्रीं अर्हं योगीन्द्राय  नमः   -योगियों के स्वामी होने से,

६२३-ॐ ह्रीं अर्हं यतीन्द्राय  नमः   -यतियों के स्वामी होने से,

६२४-ॐ ह्रीं अर्हं नाभिनन्दनाय  नमः   -नाभिमहाराज के पुत्र होने से,

६२५-ॐ ह्रीं अर्हं नाभेयाय  नमः   -नाभिराज महाराज की संतान होने से,

६२६-ॐ ह्रीं अर्हं नाभिजाय  नमः   -नाभिमहाराज से उत्पन्न होने से,

६२७-ॐ ह्रीं अर्हं जातसुव्रताय   नमः -द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा जन्म रहित होने से,

६२८ - ॐ ह्रीं अर्हं मनवे नमः   -कर्मभूमि की समस्त व्यवस्था बताने अथवा मनन-ज्ञानरूप रूप होने से

६२९-,ॐ ह्रीं अर्हं उत्तमाय  नमः   -उत्कृष्ट होने से,

६३०-ॐ ह्रीं अर्हं अभेद्याय  नमः   -किसी के भी द्वारा भेद्न करने नही होने से,

६३१-ॐ ह्रीं अर्हं अनत्ययाय  नमः   -विनाशरहित होने से,

६३२-ॐ ह्रीं अर्हं अनाश्वासे नमः   -तपश्चरण करने से ,

६३३-ॐ ह्रीं अर्हं अधिकाय  नमः   -सर्वश्रेष्ठ होने वास्तविक सुख प्राप्त करने से,

६३४-ॐ ह्रीं अर्हं अधिगुरुवे  नमः   -श्रेष्ठ गुरु होने से,

६३५-ॐ ह्रीं अर्हं सुगिरे  नमः   -उत्तम वचन के धारक होने से,

६३६-ॐ ह्रीं अर्हं सुमेधसे  नमः   -उत्तम बुद्धि के धारक होने से,

६३७-ॐ ह्रीं अर्हं स्वामिने  नमः   -पराक्रमी होने से,

६३८-ॐ ह्रीं अर्हं अधिपति नमः   -सबके स्वामीहोने से,

६३९-ॐ ह्रीं अर्हं दुरधर्षाय  नमः   -किसी के द्वारा अनादर ,हिंसा/निवारण आदि नही किये जाने से,

६४०-ॐ ह्रीं अर्हं निरुत्सकाय  नमः  -सांसारिक विषयकोंकी उतकंठा से रहित होने से,

६४१-ॐ ह्रीं अर्हं विशिष्टाय  नमः    -विशेष रूप होने से,

६४२-ॐ ह्रीं अर्हं शिष्टभुजे  नमः   -शिष्ट पुरुषों का पालन करने से ,

६४३-ॐ ह्रीं अर्हं शिष्टाय  नमः   -सदाचारपूर्ण होने से,

६४४-ॐ ह्रीं अर्हं प्रत्ययाय  नमः  -ज्ञानरूप होने से,

६४५-ॐ ह्रीं अर्हं कॉमनाय  नमः   -मनोहर होने से

६४६-ॐ ह्रीं अर्हं अनघाय  नमः   -पाप से रहित होने से

६४७-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमीणे  नमः   -कल्याण से युक्त होने से,

६४८-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमंकराय  नमः   -भव्य जीवों का कल्याण करने से,

६४९-ॐ ह्रीं अर्हं अक्षय्याय  नमः   -क्षय रहित होने से,

६५०-ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमधर्मपतये  नमः   -कल्याणकारी धर्म के स्वामी होने से,
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