श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली सप्तम अध्याय भाग २
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श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली सप्तम अध्याय भाग २




६५१-ॐ ह्रीं अर्हं क्षमिणे  नमः   -क्षमा से युक्त होने से ,

६५२- ॐ ह्रीं अर्हं अग्राह्याय  नमः   -अल्पज्ञानियों केग्रहण में नही आने से,

६५३-ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञाननिग्राहाय  नमः   -सम्यज्ञान द्वारा ग्रहण करने योग्य होने से,

६५४-ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानगम्याय  नमः   -ध्यान द्वारा जानने योग्य होने से,

६५५-ॐ ह्रीं अर्हं निरुत्तराय  नमः   -उत्कृष्तम होने से,

६५६-ॐ ह्रीं अर्हं सुकृतिने  नमः   -पुण्यवान होने से,

६५७-ॐ ह्रीं अर्हं धातवे  नमः   -शब्दों के उत्पादक होने से

६५८-ॐ ह्रीं अर्हं इज्यार्हाय  नमः   -पूजा योग्य होने से,

६५९-ॐ ह्रीं अर्हं सुनयाय  नमः   -समीचीनी नयों सहित होने से,

६६०-ॐ ह्रीं अर्हं श्रीनिवासाय  नमः   -लक्ष्मी के निवास होनेसे,

६६१-ॐ ह्रीं अर्हं चतुराननाय नमः   -समवशरण में अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में मुख दिखाई देने से,

६६२-ॐ ह्रीं अर्हं चतुर्वक्त्राय  नमः -  समवशरण में अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में मुख दिखाई देने से,

६६३-ॐ ह्रीं अर्हं चतुरास्याय  नमः   -समवशरण में अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में मुख दिखाई देने से,

६६४-ॐ ह्रीं अर्हं चतुर्मुखाय  नमः   -समवशरण में अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में मुख दिखाई देने से,

६६५-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यात्मने  नमः   -सत्यस्वरूप होने से,

६६६-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यविज्ञानाय  नमः   -यथार्थ विज्ञान युक्त होने से,

६६७-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यवाचे  नमः   -सत्यवचन होने से,

६६८-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यशासनाय  नमः   -सत्यधर्म के उपदेशक होने से,

६६९-ॐ ह्रीं अर्हं सत्याशिषे  नमः   -सत्यशीर्वाद होने से,

६७०-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यसन्धानाय  नमः   -सत्यप्रतिज्ञ होने से,

६७१-ॐ ह्रीं अर्हं सत्याय  नमः   -सत्यरूप होने से,

६७२-ॐ ह्रीं अर्हं सत्यपरायणाय  नमः  -सत्य में निरंतर ततपर रहने से,

६७३-ॐ ह्रीं अर्हं स्थेयसे  नमः   -अत्यंत स्थिर होने से,

६७४-ॐ ह्रीं अर्हं स्थवीयसे नमः   -अतिशय स्थूल होने से,

६७५-ॐ ह्रीं अर्हं नेदीयासे  नमः   -भक्तों केसमीपवर्ती होने से,

६७६-ॐ ह्रीं अर्हं द्वीयसे नमः   -पापों से दूर रहने से,

६७७-ॐ ह्रीं अर्हं दूरदर्शनाय  नमः   -दूर से ही दर्शन होने से,

६७८-ॐ ह्रीं अर्हं अणवे   नमः   -अणु रूप होने से,

६७९-ॐ ह्रीं अर्हंअणीयसे  नमः   -परमाणु से भी सूक्ष्म होने से,

६८०-ॐ ह्रीं अर्हं अनणवे नमः   -अणु रूप होने से,

६८१-ॐ ह्रीं अर्हं गरीयसामाद्य गुरुवे  नमः  -गुरुओंमें श्रेष्टतम गुरु होने से,

यहां पर गरीयसामाद्य और गरीयसां दो नाम भी निकलते है किन्तु इस पक्ष में और ६२८ इन दोनों स्थान पर 'जातस्रुवत 'नाम माना जाता है!

६८२-ॐ ह्रीं अर्हं सदायोगाय  नमः   -सदा योग रूप होने से ,

६८३-ॐ ह्रीं अर्हं सदाभोगाय  नमः   -सदा आनंद के भोक्ता होने से ,

६८४-ॐ ह्रीं अर्हं सदातृप्ताय  नमः   सदा संतुष्ट रहने से ,

६८५-ॐ ह्रीं अर्हं सदाशिवाय  नमः   -सदा कल्याणरूप होने से

६८६-ॐ ह्रीं अर्हं सदागतये नमः   -सदा ज्ञान रूप होने से,

६८७-ॐ ह्रीं अर्हं सदासौख्याय  नमः   -सदा सुख रूप रहने से,

६८८-ॐ ह्रीं अर्हं सदाविद्याय  नमः   -सदा केवलज्ञान रूप विद्या से युक्त होने से,

६८९-ॐ ह्रीं अर्हं सदोदयाय नमः   -सदा उदय रूप रहने से,

६९०-ॐ ह्रीं अर्हं सुमुघोषाय  नमः   -उत्तम ध्वनि होने से,,

६९१-ॐ ह्रीं अर्हं सुमुखाय  नमः   -सुंदर मुख के धारक होने से,

६९२-ॐ ह्रीं अर्हं सौम्याय  नमः  -शान्तरूप होने से,

६९३-ॐ ह्रीं अर्हं सुखदाय  नमः    -समस्त जीवों केसुखदाताहोने से,

६९४-ॐ ह्रीं अर्हं सुहिताय  नमः   -सबके हितैषी होने से,

६९५-ॐ ह्रीं अर्हं सुहृदे   नमः   -उत्तम हृदय के धारक होने से,

६९६-ॐ ह्रीं अर्हं सुगुप्ताय  नमः   -सुरक्षित अथवा मिथ्यादृष्टियों के लिए गूढ़ होने से,

६९७-ॐ ह्रीं अर्हं गुप्तिभृते  नमः   -गुप्तियों के धारक होने से,

६९८-ॐ ह्रीं अर्हं गोप्त्रे  नमः   -सब के रक्षक होने से,

६९९-ॐ ह्रीं अर्हं लोकाध्यक्षाय  नमः   -त्रिलोक का साक्षात्कार करने से ,

७००-ॐ ह्रीं अर्हं दमेश्वराय  नमः   -इन्द्रिय विजय रूपी दम के स्वामी होने से ,
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