श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली अष्टम अध्याय भाग २
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श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली अष्टम अध्याय भाग २



७५१- ॐ ह्रीं अर्हं समाहिताय  नमः  -समाधानरूप होने से,

७५२- ॐ ह्रीं अर्हं सुस्थिताय  नमः  -सुखपूर्वक स्थित होने से,

७५३- ॐ ह्रीं अर्हं स्वास्थ्यभाजे   नमः   -आरोग्य अथवा आत्मस्वरूप की निश्चलता को प्राप्त होने से,

७५४- ॐ ह्रीं अर्हं स्वस्थाय  नमः   -आत्मस्वरूप में स्थित होने से

७५१- ॐ ह्रीं अर्हं समाहिताय  नमः  -समाधानरूप होने से,

७५२- ॐ ह्रीं अर्हं सुस्थिताय  नमः   -सुखपूर्वक स्थित होने से,

७५३- ॐ ह्रीं अर्हं स्वास्थ्यभाजे  नमः   -आरोग्य अथवा आत्मस्वरूप की निश्चलता को प्राप्त होने से,

७५४- ॐ ह्रीं अर्हं स्वस्थाय  नमः   -आत्मस्वरूप में स्थित होने से,

७५५-ॐ ह्रीं अर्हं नीरजस्काय  नमः   - कर्मरूप रज रहित होने से,

७५६- ॐ ह्रीं अर्हं निरुद्धवाय  नमः   -सांसारिक उत्सवों रहित होने से,

७५७- ॐ ह्रीं अर्हं अलेपाय  नमः   -कर्मरूपी लेप रहित होने से,

७५८-ॐ ह्रीं अर्हं निष्कलंकात्माने  नमः   -कलंकरहित आत्मा से युक्त होने से,

७५९-ॐ ह्रीं अर्हं वीतरागाय  नमः   -रागद्वेष रहित होने से,

७६०-ॐ ह्रीं अर्हं गतस्पृहाय   नमः   -विषयों की   इच्छा से रहित होने से

७६१-ॐ ह्रीं अर्हं वश्येन्द्रीयाय  नमः   -इन्द्रियों को वश में होने से,

७६२-ॐ ह्रीं अर्हं विमुक्तात्मने  नमः   - आत्माकर्मबन्धनो से मुक्त  होने से,

७६३-ॐ ह्रीं अर्हं निसप्तनाय  नमः   -कोई शत्रु अथवा प्रतिद्वंदी नही होने से,

७६४-ॐ ह्रीं अर्हं जितेन्द्रियाय  नमः   -इन्द्रियों पर विजयी होने से,
७६५-ॐ ह्रीं अर्हं प्रशांताय   नमः   -शान्त होने से,,

७६६-ॐ ह्रीं अर्हं अनन्तधामर्षये  नमः   -अनन्त तेज के धारक होने से,

७६७-ॐ ह्रीं अर्हं मंगलाय  नमः   -मंगलरूप होने से,

७६८-ॐ ह्रीं अर्हं मलघ्ने  नमः   -मल नष्ट करने से,

७६९-ॐ ह्रीं अर्हं अनपाय  नमः -व्यसनों अथवा दुखो से रहित होने से,

नोट-यद्यपि ६४७ वां नाम भी अनघ है अत: ७६९ वां अनघ नाम पुनरुक्त सा !'अघ' शब्द के 'अघं तु व्यसने दुःखे दुरिते च नपुंसकम्' अनेक अर्थ होने से पुनरुक्ति दोष दूर हो जाता है 

७७०-ॐ ह्रीं अर्हं अनीदृशे  नमः   -के समान अन्य कोई नही है अत:

७७१-ॐ ह्रीं अर्हं उपमाभूताय  नमः   -सबके लिए उपमा देने योग्य होने से,

७७२-ॐ ह्रीं अर्हं दिष्टये  नमः   -सब जीवों के भाग्यस्वरूप होने से ,

७७३-ॐ ह्रीं अर्हं दैवाय नमः  -सब जीवों के भाग्यस्वरूप होने से,

७७४-ॐ ह्रीं अर्हं गोचर नमः   -इन्द्रियों द्वारा जाने नही जा सकते अथवा केवलज्ञान होने  के  बाद  पृथ्वी पर 'गो' अर्थात विहार नही करते अत:

७७५-ॐ ह्रीं अर्हं अमूर्ताय  नमः   -रूप,रस,गंध ,स्पर्श रहित होने से,

७७६-ॐ ह्रीं अर्हं मूर्तिमते  नमः   -संसार में शरीर सहित है इसलिए ,

७७७-ॐ ह्रीं अर्हं एकस्मै  नमः   -अद्वितीय होने से,

७७८-ॐ ह्रीं अर्हं नैकस्मै  नमः -अनेक गुणों सहित होने से,

७७९-ॐ ह्रीं अर्हं नानैकतत्वकदृशे नमः    -आत्मा के अतिरिक्त अन्य अनेक   परपदार्थों को नही देखते उन   में तल्लीन नही होने से,

७८०-ॐ ह्रीं अर्हं अध्यात्मगम्याय  नमः   - अध्यात्म शास्त्रों के द्वारा जानने योग्य होने से

७८१-ॐ ह्रीं अर्हं अगम्यात्मने  नमः   - मिथ्यादृष्टि जीवों द्वारा जानने योग्य नही होने से,

७८२-ॐ ह्रीं अर्हं योगविदे  नमः  -योगों के ज्ञाता होने से,

७८३-ॐ ह्रीं अर्हं योगिवन्दिताय  नमः   -योगियों द्वारा वन्दित होने से,

७८४-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वत्रगाय   नमः  -केवलज्ञान की अपेक्षा सर्वत्र व्याप्त होने से,

७८५-ॐ ह्रीं अर्हं सदभावीने   -सदा विद्यमान रहने से,

७८६-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिकालविषार्थकदृशे  नमः   -समस्त पदार्थों को देखने से ,

७८७-ॐ ह्रीं अर्हं शंकराय  नमः  -सबको सुख प्रदाता होने से,

७८८-ॐ ह्रीं अर्हं शंवदाय  नमः   -सुख बतलाने वाले होने से,

७८९-ॐ ह्रीं अर्हं दान्ताय  नमः  -मन को वश में करने से,

७९०-ॐ ह्रीं अर्हं दमीने नमः   - इन्द्रियों का दमन करने से,

७९१-ॐ ह्रीं अर्हं क्षान्तिपरायणाय नमः    -क्षमा धारण करने में ततपर रहने से,

७९२-ॐ ह्रीं अर्हं अधिपाय नमः  -सबके स्वामी होने से,

७९३-ॐ ह्रीं अर्हं परमानन्दाय  नमः  -उत्कृष्ट आनंद रूप होने से ,

७९४-ॐ ह्रीं अर्हं परात्मज्ञाय नमः   -उत्कृष्ट अथवा पर और निज की आत्मा को जानने से ,

७९५-ॐ ह्रीं अर्हं परात्पराय नमः   -श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होने से,

 ७९६-ॐ ह्रीं अर्हं  त्रिजगद्वल्लभाय नमः  -त्रिलोक के स्वामी अथवा प्रिय होने से,

७९७-ॐ ह्रीं अर्हं अभ्यचर्याय  नमः   -पूजनीय होने से,

७९८-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगन्मंगलोदयाय  नमः    -त्रिलोक में मंगलदाता होने से,

७९९-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिजगत्पतिपूजयाङ्घ्रये  नमः   -तीनोंलोकों के इन्द्रों द्वारा पूजनीय चरणों से युक्त होने से ,

८००-ॐ ह्रीं अर्हं त्रिलोकाग्र शिखामणये  नमः   -कुछ  समय बाद त्रिलोक  अग्रभाग पर चूड़ामणि के समान विराजमान होने से,
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