श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली नवम अध्याय भाग १
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श्री जिन सहस्त्रनाम मन्त्रावली नवम अध्याय भाग १


८०१-ॐ ह्रीं अर्हं  त्रिकाल दर्शिने नमः  - तीनों काल संबंधी समस्त   पदार्थों को देखने  वाले  है इसलिए ,


८०२-ॐ ह्रीं अर्हं  लोकेशाय  नमः - लोकों के स्वामी होने से,

८०३-ॐ ह्रीं अर्हं लोकधात्रे  नमः - जीवों के पोषक एवं  रक्षक होने से ,

८०४-ॐ ह्रीं अर्हं दृढ़व्रताय  नमः -व्रतों को स्थिर रखने से,

८०५-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकातिगाय  नमः  -त्रिलोक में सर्वश्रेष्ठ होने से

८०६-ॐ ह्रीं अर्हं पूज्याय नमः  -पूजा योग्य  होने से,

८०७-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वलोकैकसारथये नमः  -सब  लोगो को मुख्यरूप से अभीष्ट स्थान तक पहुचने में  सामर्थ्यवान होने से,

८०८-ॐ ह्रीं अर्हं पुराणाय  नमः -प्राचीनतम होने से,

८०९-ॐ ह्रीं अर्हं पुरुषाय  नमः -आत्मा के श्रेष्ठ   गुणों को  प्राप्त होने से,

८१०-ॐ ह्रीं अर्हं पूर्वाय नमः  -सर्व प्रथम होने से कहलाते है

८११-ॐ ह्रीं अर्हं कृतपूर्वांगविस्ताराय  नमः  -अंग और पूर्वों का विस्तार करने से,

८१२-ॐ ह्रीं अर्हं आदिदेवाय   नमः  -देवो में मुख्य होने से,

८१३-ॐ ह्रीं अर्हं पुराणाद्याय  नमः -पुराणों में प्रथम होने से ,

८१४ -ॐ ह्रीं अर्हं पुरुदेवाय नमः  -महान अथवा प्रथम तीर्थंकर(ऋषभदेव) होने से ,

८१५-ॐ ह्रीं अर्हंअधिदेवाय नमः -देवो के देव होने से,

८१६-ॐ ह्रीं अर्हं युगमुख्याय  नमः  -इस अवसर्पिणी काल के मुख्य पुरुष होने से ,

८१७-ॐ ह्रीं अर्हं युगज्येष्ठाय  नमः -इसी युग में सबसे बड़े होने से,

८१८-ॐ ह्रीं अर्हं युगादिंस्थितिदेशकाय नमः -कर्मभूमिरूप युग के प्रारम्भ में तत्कालोचित मर्यादा के उपदेशक होने से ,

८१९-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणवर्णाय नमः -कल्याण अथवा सुवर्ण समान कांति धारक होने से,

८२०-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणाय नमः -कल्याण रूप होने से,

८२१-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याय  नमः  -मोक्ष प्राप्ति में सज्ज /तत्पर रहने अथवा निरामय निरोग होने से,

८२२-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याणलक्षणाय  नमः  -कल्याणकारी लक्षणों से युक्त होने से,

८२३-ॐ ह्रीं अर्हं कल्याण प्रकृतये  नमः  -स्वभाव कल्याण रूप होने से ,

८२४-ॐ ह्रीं अर्हं दीप्रकल्याणात्मने नमः  -देदीप्यमान सुवर्ण के समान निर्मल होने से,

८२५-ॐ ह्रीं अर्हं विकल्मषाय   नमः  -कर्म कलिमा से रहित होने से,

८२६-ॐ ह्रीं अर्हं विकलंकाय  नमः  -कलंक रहित होने से,

८२७-ॐ ह्रीं अर्हं कालातीताय  नमः  -शरीर रहित होने से,

८२८-ॐ ह्रीं अर्हं कलिलघ्नाय  नमः  -पापों के क्षय करता होने से,

८२९-ॐ ह्रीं अर्हं कलाधराय  नमः  -अनेक कलाओं के धारक होने से,

८३०-ॐ ह्रीं अर्हं देवदेवाय  नमः  -देवो के देव होने से ,

८३१-ॐ ह्रीं अर्हं जगन्नाथाय  नमः -जगत के स्वामी होने से,

८३२-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्बन्धवे नमः  -जगत के भाई होने से,-

८३३-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्विभवे  नमः -जगत के स्वामी होने से,

८३४-ॐ ह्रीं अर्हं जगद्धितैषिणे  नमः  -जगत के हितैषी होने से,

८३५-ॐ ह्रीं अर्हं लोकज्ञाय  नमः  -लोक के ज्ञाता होने से,

८३६-ॐ ह्रीं अर्हं सर्वांगाय  नमः -सब जगह केवल ज्ञान की अपेक्षा व्याप्त होने से,

८३७-ॐ ह्रीं अर्हं जगदग्रजाय  नमः  -जगत में ज्येष्ठतम होने से,

८३८-ॐ ह्रीं अर्हं चराचरगुरुवे  नमः  -चर और स्थावर के गुरु होने से,

८३९-ॐ ह्रीं अर्हं गोप्याय नमः  -अत्यंत सावधानी पूर्वक हृदय में रखने से ,

८४०-ॐ ह्रीं अर्हं गूढात्मने  नमः  -गूढ स्वरुप के धारक होने से,

८४१-ॐ ह्रीं अर्हं गूढ गोचराय  नमः  -अत्यंत गूढ़ विषयो के ज्ञाता होने से,

८४२-ॐ ह्रीं अर्हं सद्योजाताय  -तत्कालों में उत्पन्न हुए के समान निर्विकार होने से,

८४३-ॐ ह्रीं अर्हं प्रकाशात्मने  नमः  -प्रकाश रूप होने से,

८४४-ॐ ह्रीं अर्हं ज्वलज्ज्वलनसत्प्रभाय   नमः  -जलती अग्नि के समान शरीर की प्रभा के धारक होने से ,

८४५-ॐ ह्रीं अर्हं आदित्यवर्णाय नमः  -सूर्य के समान तेजस्वी होने से,

८४६ -ॐ ह्रीं अर्हं भर्माभाय   नमः  -सुवर्ण समान कांतवान होने से,

८४७ -ॐ ह्रीं अर्हं सुप्रभाय  नमः  -उत्तम प्रभा से युक्त होने से ,

८४८-ॐ ह्रीं अर्हं कनकप्रभाय   नमः -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से,

८४९-ॐ ह्रीं अर्हं सुवर्णवर्णाय   नमः   -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से

८५०-ॐ ह्रीं अर्हं रुक्माभाय  नमः  -सुवर्ण समान आभा से युक्त होने से
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