तीर्थंकरों के अदभुत गुण जो सामान्य मनुष्यों में नहीं पाए जाते-
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तीर्थंकरों के अदभुत गुण जो सामान्य मनुष्यों में नहीं पाए जाते-

विश्व कल्याण के भाव के साथ दर्शन विशुद्धि, विनय सम्पन्नता आदि 16कारण भावनाओं के चिंतवन से, केवली श्रुतकेवली के पादमूल में कर्म भूमि के मनुष्य को ही सर्वश्रेष्ठ पुण्य प्रकृति तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है।
तीर्थंकर नामकर्म एक निरंतर बंधने वाला कर्म है।
तीर्थंकर 2,3,या 5 कल्याणक वाले होते हैं। भरत ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों के 5कल्याणक होते हैं।
तीर्थंकर नर्क से निकल कर या स्वर्ग से च्युत होकर मनुष्य के रूप में मनुष्य लोक में जन्म लेते हैं।
तीर्थंकर के गर्भ में आने के 6माह पहले से ही देवता उनकी भावी जन्म नगरी में दिव्य रत्नों की बर्षा 15माह तक लगातार रोज करते हैं।
तीर्थंकर को जन्म देने वाली माँ को 16स्वप्न दिखाई देते हैं।
तीर्थंकर के जन्म से इन्द्र का आसन कांपता है व अन्य चारों निकाय के देवों के महलों में भी विचित्र संकेत होते हैं व नरक के जीवों को भी कुछ क्षण की शांति मिलती है।
तीर्थंकर के जन्म के बाद इन्द्र बालक को ऐरावत हाथी पर बिठाकर सुमेरु पर्वत पर ले जा कर अभिषेक कर असंख्य देवों के साथ तीर्थंकर का जन्म कल्याणक मनाता है।
तीर्थंकर का जन्म राजाओं के यहाँ ही होता है, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण के यहाँ नहीं।
तीर्थंकर अपनी माँ की इकलौती संतान होते हैं उनका सगा भाई नहीं होता, सोतेला बड़ा भाई हो सकता है।
तीर्थंकर के जन्म के बाद उनके माता पिता सदेव के लिए ब्रह्मचर्य धारण कर लेते हैं।
जन्म से ही तीर्थंकर मति, श्रुत, अवधि इन तीन दिव्य ज्ञान से सम्पन्न होते हैं।
तीर्थंकर के शरीर में 108शुभ लक्षण व 900व्यंजन शुभ चिन्ह होते हैं।
तीर्थंकर का शरीर अत्याधिक सुंदर (समचतुरस्थ संस्थान) व उत्तम सहनन से युक्त होता है।
जन्म से ही इनके शरीर में अतुल्य बल होता है।
तीर्थंकर के शरीर के खून का रंग दूध के समान सफेद होता है व इनके शरीर में दाढ़ी मूछें मल मूत्र पसीना नहीं होते।
तीर्थंकरों का भोजन स्वर्ग से आता है व पाचन शक्ति तीक्ष्ण होने से इनके द्वारा खाया भोजन सीधे रक्त मांस धातु के रूप में बदल जाता है इनके शरीर में मल मूत्र नहीं बनता।
तीर्थंकर हित मित प्रिय वचन बोलते है व सिद्ध परमेश्वर को ही नमन करते हैं उन्हें मोक्ष पद ही पसंद होता है
जन्म के 8साल बाद ये अणुव्रती (5 वा गुणस्थान) हो जाते हैं।
प्रायः सभी तीर्थंकर विवाह कराके राज्य संचालन करतें हैं इस युग में 5तीर्थंकरों ने विवाह नहीं किया।
तीर्थंकर जब तक घर में रहते हैं उनके किसी भी परिजन की मृत्यु नहीं होती क्योंकि प्रबल पुण्य होने से तीर्थंकर को वियोग जन्य दुख नहीं होता व उन्हें कभी बुढ़ापा भी नहीं आता वो सदैव 16साल के कुमार के समान सुंदर रहते हैं
तीर्थंकर का कभी भी अकाल मरण नहीं होता है.
तीर्थंकरों का जन्म सदैव अयोध्या में व मोक्ष सम्मेद शिखर से होता है पर होण्डावसर्पिणी काल के दोष से इस युग में ऐसा नहीं हुआ।
तीर्थंकर मोक्षगामी होतें है व नियम से विरक्त होकर दिगम्बरी दीक्षा धारण करते हैं व धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं,
तीर्थंकर स्वयं दीक्षा धारण करते हैं उनका कोई गुरु नहीं होता।
दीक्षा के साथ ही उन्हें एक साथ आकाश गामी आदि 63ऋद्धियां प्राप्त हो जाती है, साधु दशा में इन्हें पीछी कमण्डल की जरूरत नहीं होती,
साधु दशा में इनका तप व विशुद्धि सदेव बड़ती रहती है घटती कभी नहीं।
साधु दशा में तीर्थंकरों पर उपसर्ग नहीं होता पर होण्डावसर्पिणी काल के दोष से इस युग में तीन तीर्थंकरों पर उपसर्ग (तप में विघ्न की कोशिश) हुआ।
केवल ज्ञान प्राप्ति के बाद इनका शरीर परमौदारिक हो जाता है। व कुबेर धर्म सभा (समवशरण) की रचना करता है व तीर्थंकर का शरीर अधर में 500धनुष ऊचा उठ जाता है।
समवशरण में मनुष्य देव त्रियंच जानवर आदि सभी को शरण प्राप्त होती है व वो उपदेश सुनते हैं।
प्रत्येक तीर्थंकर का कम से कम तीन साल तक धर्मोपदेश अनिवार्य रूप से होता है।
जब तक सत्य का स्वयं अनुभव नहीं कर लेते तब तक तीर्थंकर किसी को भी धर्मोपदेश नहीं देते व वो साधु दशा में मोन पूर्वक साधना करते हैं।
समवशरण में गणधर पद के योग्य मनुष्य होने पर ही तीर्थंकर का उपदेश होता है अन्यथा नहीं होता
तीर्थंकर कोई नया उपदेश नहीं देते सर्वज्ञ होने के बाद उनकी दिव्य ध्वनि से सनातन रुप से प्रवाह मान द्वादशांग श्रुत की उत्पत्ति होती है।
केवली दशा में उनका विहार उठना बैठना उपदेश सब कुछ अपने आप इच्छा बिना ही जीवों के भाग्य अनुसार होता है।
केवली दशा में तीर्थंकर जन्म जरा रोग शोक, भय भूख प्यास चिंता विस्मय, राग द्वेष आदि 18दोषों से रहित वीतरागी, ज्ञायकस्वभावी व इच्छा रहित हो जातें हैं।
केवली दशा में तीर्थंकर की पलकें नहीं झपकती, पद्मासन मुद्रा में सिंहासन पर चार अंगुल ऊपर अधर में विराजमान रहते हैं।
समवशरण में तीर्थंकर के चार मुख दिखाई देते हैं विशुद्ध वातावरण होने से समोशरण में जाने वाले जीवों को अपने आगे पीछे के 3,3जन्म स्मृति में आ जातें हैं।
जहाँ समवशरण होता है उसके 100योजन के क्षेत्र में अतिवृष्टि अनावृष्टि महामारी आदि आपदायें नहीं होती।
तीर्थंकर के आभामंडल के प्रभाव से गाय शेर हिरण जैसे जन्म जात बैरी जीव भी समवशरण में स्नेह पूर्वक रहते हैं।
आयु का अंत निकट आने पर स्वत: ही तीर्थंकर का योग निरोध होता है व वो अंतिम शुक्ल ध्यान से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं व फिर देवों द्वारा उनका मोक्ष कल्याणक महोत्सव मनाया जाता है।
तीर्थंकरों का गर्भ कल्याणक, जन्म के समय जन्म कल्याणक, दीक्षा के समय तप कल्याणक, केवल ज्ञान प्राप्त होने पर ज्ञान कल्याणक व मोक्ष प्राप्त होने पर मोक्ष कल्याणक महोत्सव देवों के द्वारा भव्य रुप से मनाये जाते हैं।
तीर्थंकर के मोक्ष जाने के बाद उनके शिष्य प्रतिशिष्यों द्वारा धर्म की परम्परा आगे चलती रहती है।
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