Bhaktambar stotra 1-6 with meaning and riddhi mantra
#1

भक्तामर प्रणत मौलि-मणि-प्रभाणा मुद्योतकं दलित-पाप-तमो वितानम् । 
सम्यक् प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् ॥

भक्त अमर तत्वज्ञ नम्र हो, प्रभु पद नमन करें। 
समकित आदि गुणमणि की द्युति तेज महंत धरे । 
गहन पाप तमपुंज विनाशक जिनके चरण महान् । 
युगादि में अवतरित तीर्थंकर आदि जिनेश प्रणाम ।। 
भवसागर में पतित जनों को प्रभु पद ही आधार । 
हृदय वेदी पर सदा बसे प्रभु चरण-कमल सुखकार ।। 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है ।। (1)

ॐ ह्रीं अर्हम् अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धये अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि ।1।

यः संस्तुत: सकल-वाङ् मय तत्त्व बोधा दुभूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथैः । 
स्तोत्रेर्जगत्- त्रितय - चित्त- हरैरुदारैः, स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥

द्वादशांग मर्मज्ञ बुद्धि से चतुर इन्द्र द्वारा। 
संस्तुत थे उत्कृष्ट स्तोत्र से जो जग मन हारा ।। 
उन प्रथमेश तीर्थंकर की मैं भक्ति स्तुति करूँ। 
अपने सर्व कर्म बंधन और भव का आर्त हरूँ।। 
स्तुति करने की करें प्रतिज्ञा रत्नत्रय धारी। 
स्वानुभूति के रस में डूबे मुनिवर अविकारी ।। 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है। (2)

ॐ ह्रीं अर्हम् मनःपर्यय ज्ञान बुद्धि ऋद्धये मनःपर्यय ज्ञान बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (2)

बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ ! स्तोतुं समुद्यत- मतिर्विगत लपोऽहम् । 
बाल विहाय जल-संस्थित मिन्दु-बिम्ब मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥

जिनका चरणासन भी पूजित देवों के द्वारा। 
उनकी स्तुति करूँ मैं कैसे शब्दों के द्वारा।। 
बिन बुद्धि के नाथ स्तवन को मैं तैयार हुआ। 
लाज रहित समझो प्रभु मुझको मैं लाचार रहा। 
ज्यों जल में शशि बिम्ब पकड़ना चाहे बाल अधीर। 
नहीं चाहता उसे पकड़ना धीर वीर गम्भीर ।। 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (3)

ॐ हीं अर्हम् केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धये केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि।

वक्तुं गुणान्गुण समुद्र ! शशाङ्क कान्तान्,  कस्ते क्षमः सुर गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या । 
कल्पान्त -काल-पवनोद्धत नक्र- चक्रं को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥

शशि समान उज्जवल गुण वाले गुणसागर भगवान। 
बृहस्पति सम बुद्धिमान भी कर न सके गुणगान ।। 
प्रलयकाल से क्षुब्ध समन्दर भरे मच्छ जिसमें। 
तेज वायु से लहराते हैं हिंस्त्र जन्तु उसमें ।। 
गहरे सागर में भुजबल से तिर सकता है कौन ? 
वैसे ही गुण वर्णन में असमर्थ प्रभु मैं मौन।। 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है।। (4)

ॐ ह्रीं अर्हम् बीज बुद्धि ऋद्धये बीज बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (4)

सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश ! कत्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृत्तः । 
प्रीत्यात्म वीर्य मविचार्य मृगी मृगेन्द्रम्  नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम् ॥

पहले ही कह चुका प्रभु मैं, शक्ति बिन लाचार 
फिर भी भक्ति भरे मन से गुण गाने को तैयार ।। 
हिरणी जाने सिंह के आगे मैं हूँ अति बलहीन 
करे सामाना फिर भी उससे शिशु से मोहाधीन।। 
नाथ! आपका गुणानुरागी मैं गुणगान करूँ। 
कर्म सिंह का करूँ सामना मोह विभाव हरूँ। 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है। (5)

ॐ ह्रीं अर्हम् कोष्ठज्ञान बुद्धि ऋद्धये कोष्ठज्ञान बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम् करोमि। (5)

अल्प- श्रुतं श्रुतवतां परिहास- धाम, त्वद्-भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् । 
यत्कोकिलः किल मधी मधुरं विरौति, तच्चाम्र चारु कलिका निकरैक हेतुः ॥

प्रसन्नता का पात्र बना हूँ, यद्यपि अल्प शास्त्रज्ञ 
हूँ आनन्दपात्र उनका क्यों हास्य करें आत्मज्ञ ? 
तव अनन्त गुण गण की भक्ति मुझको बुलवाती । 
आम्र मंजरी के कारण ही कोयल ज्यों गाती ।। 
जिन भक्ति से निज भक्ति की बसन्त ऋतु आई । 
आत्म कोकिला कुहुक रही दर्शन दो जिनराई ।। 
मानतुंग मुनिवर में प्रभु की भक्ति समाई है। 
भक्तामर में ऋषभदेव की महिमा गाई है। (6)

ॐ ह्रीं अर्हम् पादानुसारि बुद्धि ऋद्धये पादानुसारि बुद्धि ऋद्धि प्राप्तेभ्यो नमो दीप प्रज्वलनम करोमि। (6)

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भक्तामर स्त्रोत 48 दीपकों के साथ रिद्धि-सिद्धि मंत्रों से
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