उत्तम आर्जव धर्म
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उत्तम आर्जव धर्म:
*कपट न कीजे कोय, चोरन के पुर ना बसें।
*सरल-सुभावी होय, ताके घर बहु-संपदा।।
*उत्तम आर्जव-रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दु:खदानी।
*मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सों करिये।।
*करिये सरल तिहुँ जोग अपने, देख निरमल आरसी।
*मुख करे जैसा लखे तैसा, कपट-प्रीति अंगार-सी।।
*नहिं लहे लछमी अधिक छल करि, कर्म-बंध-विशेषता।
*भय-त्यागि दूध बिलाव पीवे, आपदा नहिं देखता।।
अर्थात:
*पंडित जी फरमाते हैं, “किसी को भी छल-कपट कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि चोरों के गांव कभी नहीं बसते” (ऐसा दुनिया में कोई भी गांव/शहर नहीं जहाँ मात्र चोर ही रहते हों, क्योंकि चोरी के कार्य में भी विश्वास का होना ज़रूरी है)।
*“जो जीव सरल स्वभावी होते हैं, उनके घर में संपदा की अपने आप वृद्धि होती है।”
*आगे पंडित जी लिखते हैं, “इस जगत में भी उत्तम आर्जव की ही रीति (प्रथा) अच्छी मानी है तथा रंच (थोड़ी-सी) भी दगा (बेईमानी) बहुत दुख को देने वाली होती है।”
*इससे बचने के लिए, “जो मन में हो, उसे ही वचनों से कहना चाहिए तथा जो वचनों से कहें, वह क्रिया अर्थात आचरण में भी होना चाहिए।”
?[यहां यह बात विशेष समझना कि अच्छी बातों को ही मन में सोचना चाहिए, वचनों से बोलना चाहिए तथा आचरण में लाना चाहिए। बुरे; असभ्य; दूसरों को हानि, दुख पहुंचाने वाले न तो विचार करना चाहिए, यदि विचार आ जाएं तो वचन में नहीं कहना चाहिए तथा वचनों में कदाचित आ भी जाए, तो आचरण में तो बिल्कुल भी नहीं लाना चाहिए।]
*आगे पंडित जी कहते हैं, “जीवों को अपने तीनों योग (मन-वचन-काय) में एकता, समानता लाना योग्य है।”
*“जिस प्रकार दर्पण सरल व स्वच्छ होता है, जैसा उसके सामने मुख (चेहरा) होता है, वैसा ही दिखाता है; वैसे ही हमें भी अपने मन-वचन-काय में समानता रखनी चाहिए।”
*“तथा कपट से प्रीति (लगाव) अंगारे के समान है। जिसप्रकार अंगारे, ऊपर राख होने से ठंडे दिखते हैं, परंतु अंदर अग्नि होने के कारण छूने पर जला देते हैं; वैसे ही, कपट का भाव ऊपर से तो बहुत अच्छा दिखता है (ऐसा लगता है जैसे मैंने दूसरे को ठग लिया, बहुत अच्छा किया) परंतु वास्तविकता में ठग/कपटी स्वयं को ही ठग रहा है।” क्योंकि, कोई और ठगाया जाए अथवा नहीं, पाप कर्म का बंध होने से वह स्वयं ही ठगाया जा रहा है।
*आगे लिखते हैं, “अधिक छल करने से अधिक लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, ऐसा नहीं है क्योंकि लक्ष्मी का मिलना अथवा नहीं मिलना तो पुण्य-पाप के उदय से होता है।”
*“छल करने वाला कर्म को न देखते हुए वैसे ही पाप का बन्ध करता रहता है, जैसे बिल्ली पीछे से पड़ने वाली मार की तरफ ध्यान न देते हुए दूध पीती रहती है।”
[यहाँ विशेष यह समझना कि सामने वाले का ठगाया जाना अथवा नहीं ठगाया जाना, उसके कर्मोदय अनुसार होता है। तथा ठगी करने वाले को अपने परिणामों के अनुसार पाप-बंध होता है]
*इस प्रकार, माया/छल-कपट/ठगी का भाव छोड़कर उत्तम आर्जव धर्म को धारण करना योग्य है।

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