बारह भावनाएं (बारह अनुप्रेक्षा) BARAH BHAVNA
#1

बारह भावनाएं (बारह अनुप्रेक्षा)
अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्मस्वाख्यातत्व का बार-बार चिंतन करना अनुप्रेक्षाएँ हैं।

अनित्यानुप्रेक्षा
जब क्षीरनीरक्त जीव के साथ निबद्ध यह शरीर ही शीघ्र नष्ट हो जाता है, तो भोगपभोग के कारण यह दूसरे पदार्थ किस तरह नित्य हो सकते हैं।  (बारसाणुवेक्खा गाथा 6) 

अशरणानुप्रेक्षा
मरते समय प्राणियों को तीनों लोकों में मणि, मंत्र, औषध, रक्षक, घोड़ा, हाथी, रथ और जितनी विद्याएँ, वे कोई भी शरण नहीं है अर्थात् ये सब उन्हें मरने से नहीं बचा सकते।
जैसे हिरण के बच्चे को अकेले में भूखे मांस के अभिलाषी व बलवान् व्याघ्र-द्वारा पकड़े हुए का कुछ भी शरण नहीं है, तैसे जन्म, बुढ़ापा, मरण, पीड़ा इत्यादि विपत्ति के बीचमें भ्रमते हुए जीव का कोई रक्षक नहीं है। बराबर पोषा हुआ शरीर भी भोजन करते तांई सहाय करनेवाला होता है न कि कष्ट आनेपर। जतन करि इकट्ठा किया हुआ धन भी परलोक को नहीं जाता है। सुख-दुःखमें भागी मित्र भी मरण समय में रक्षा नहीं करते हैं। इकट्ठे हुए कुटुंबी रोगग्रसित का प्रतिपालन नहीं कर सकते हैं। यदि भले प्रकार आचरण किया हुआ धर्म है तो विपत्तिरूपी बड़े समुद्रमें तरणे का उपाय होता है। कालकरि ग्रहण किये हुए का इंद्रादिक भी शरण नहीं होते हैं। इसलिए भवरूपी विपत्तिमें वा कष्टमें धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी भी है। अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिंतवन करना सो अशरण अनुप्रेक्षा है।

संसारानुप्रेक्षा
यह जीव जिनमार्ग की ओर ध्यान नहीं देता है, इसलिए जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग और भयसे भरे हुए पाँच प्रकार के संसारमें अनादि कालसे भटक रहा है।
कर्म विपाक के वशसे आत्मा को भवांतर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकार के परिवर्तन रूपसे व्याख्यान कर आये हैं। अनेक योनि और कुल कोटिलाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयंत्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या, और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार रंगस्थलमें नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है। अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है। इत्यादि रूपसे संसार के स्वभाव का चिंतन करना संसारानुप्रेक्षा है।

एकत्वानुप्रेक्षा
यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बांधता है, अकेला ही अनादि संसारमें भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने कर्मों का फल भोगता है, अर्थात् इसका कोई साथी नहीं है।
जन्म, जरा, मरण की आवृत्ति रूप महादुःख का अनुभव करने के लिए अकेला ही मैं हूँ, न कोई मेरा स्व है और न कोई पर है, अकेला ही मैं जन्मता हूँ, अकेला ही मरता हूँ। मेरा कोई स्वजन या परजन, व्याधि जरा और मरण आदि के दुःखों को दूर नहीं करता। बंधु और मित्र श्मशानसे आगे नहीं जाते। धर्म ही मेरा कभी साथ न छोड़नेवाला सदाकाल सहायक है। इस प्रकार चिंतवन करना एकत्वानुप्रेक्षा है।

अन्यत्वानुप्रेक्षा 
माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि बंधुजनों का समूह अपने कार्यके वश संबंध रखता है, परंतु यथार्थ में जीवका इनसे कोई संबंध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं। (बारसाणुवेक्खा गाथा 21) 

अशुचित्वानुप्रेक्षा
यह देह दुर्गंधमय है, डरावनी है, मलमूत्र से भरी हुई है, जड़ है, मूर्तीक है और क्षीण होनेवाली है तथा विनाशीक स्वभाववाली है। इस तरह निरंतर इसका विचार करते रहना चाहिए।
यह शरीर अत्यंत अशुचि पदार्थों की योनि है। शुक्र और शोणित रूप अशुचि पदार्थों से वृद्धि के प्राप्त हुआ है, शौचगृह के समान अशुचि पदार्थों का भाजन है। त्वचा मात्रसे आच्छादित है। अति दुर्गंधित रसको बहानेवाला झरना है। अंगार के समान अपने आश्रय में आये हुए पदार्थों को भी शीघ्र ही नष्ट कर देता है। स्नान, अनुलेपन, धूप का मालिश और सुगंधित माला आदि के द्वारा भी इसकी अशुचिता को दूर कर सकना शक्य नहीं है, किंतु अच्छी तरह भावना किये गये सम्यग्दर्शन आदि के जीव की आत्यंतिक शुद्धि को प्रगट करते हैं। इस प्रकार वास्तविक रूपसे चिंतन करना अशुचि अनुप्रेक्षा है।


आस्रवानुप्रेक्षा

कर्मों का आस्रव करनेवाली क्रियासे परंपरासे भी निर्माण नहीं हो सकता है। इसलिए संसारमें भटकनेवाले आस्रव को बुरा समझना चाहिए।
आस्रव इस लोक ओर परलोक में दुःखदायी हैं। महानदी के प्रवाह के वेग के समान तीक्ष्ण हैं तथा इंद्रिय, कषाय और अव्रत रूप हैं। उनमें से स्पर्शादिक इंद्रियाँ वनगज, कौआ, सर्प, पतंग और हरिण आदि को दुःखरूप समुद्र में अवगाहन कराती हैं। कषाय आदि भी इस लोकमें, वध, बंध, अपयश और क्लेशादिक दुःखों को उत्पन्न करते हैं। तथा परलोक में नाना प्रकार के दुःखों से प्रज्वलित नाना गतियों में परिभ्रमण कराते हैं। इस प्रकार आस्रव के दोषों को चिंतवन करना आस्रवानुप्रेक्षा है।

संवरानुप्रेक्षा
मन, वचन, काय को शुभ प्रवृत्तियों से अशुभोपयोग का संवर होता है और केवल आत्मा के ध्यान रूप शुद्धोपयोग से शुभयोग का संवर होता है ॥63॥ इसके पश्चात् शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए संवर का कारण ध्यान है, ऐसा निरंतर विचारते रहना चाहिए (बारसाणुवेक्खा गाथा 63,64) 

जिस प्रकार महार्णव में नाव के छिद्र के नहीं रुके रहनेपर क्रमसे झिरे हुए जलसे उसके व्याप्त होनेपर उसके आश्रयपर बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यंभावी है और छिद्र के रुके रहनेपर निरुपद्रव रूपसे अभिलषित देशांतर का प्राप्त होना अवश्यंभावी है। उसी प्रकार कर्मागमद्वार के रुके होनेपर कल्याण का प्रतिबंध नहीं होता। इस प्रकार संवर के गुणों का चिंतवन करना संवरानुप्रेक्षा है। (सर्वार्थसिद्धि अध्याय /9/7/417) 


निर्जरानुप्रेक्षा

उपरोक्त निर्जरा दो प्रकार की है - स्वकाल पक्व और तप द्वारा की गयी। इनमें से पहली तो चारों गतिवाले जीवों के होती है और दूसरी केवल व्रतधारी श्रावक वा मुनियों के होती है।
वेदनाविपाक का नाम निर्जरा है, यह पहले कह आये हैं। वह दो प्रकार की है - अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है, वह अकुशलानुबंधा है। तथा परिषह के जीतनेपर जो निर्जरा होती है, वह कुशलमूला निर्जरा है। वह शुभानुबंधा और निरनुबंधा होती है। इस प्रकार निर्जरा के गुणदोषों का चिंतवन करना निर्जरानुप्रेक्षा है।


लोकानुप्रेक्षा

इस लोकमें ये जीव अपने कर्मों से उपार्जन किये सुख-दुःख को भोगते हैं और भयंकर इस भवसागरमें जन्म-मरण को बारंबार अनुभव करते हैं ॥715॥ इस संसारमें माता है, वह पुत्री हो जाती है, पुत्री माता हो जाती है। पुरुष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरुष और नपुंसक हो जाती है ॥716॥ प्रताप सुंदरता से अधिक बल वीर्ययुक्त इनसे परिपूर्ण राजा भी कर्मवश अशुचि (मैले) स्थान में लट होता है। इसलिए ऐसे संसारमें रहने को धिक्कार हो ॥717॥ इस प्रकार लोक के स्वभाव को धिक्कार हो जिससे कि देव और महान् ऋद्धिवाले इंद्र अनुपम सुख को भोग कर पश्चात् दुख भोगनेवाले होते हैं ॥718॥ इस प्रकार लोक को निस्सार (तुच्छ) जानकर तथा उस संसार को अनंत जानकर अनंत सुख का स्थान ऐसे मोक्ष का यत्न से ध्यान कर ॥719॥ (मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 715-719) 
लोक का आकार व प्रकृति आदि की विधि वर्णन कर दी गयी है। अर्थात् चारों ओर से अनंत अलोकाकाश के बहुमध्य देशमें स्थित लोक के आकारादिक्की विधि कह दी गयी। इसके स्वभाव का अनुचिंतन करना लोकानुप्रेक्षा है। 


बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा

एक निगोद शरीरमें सिद्धों से अनंत गुणे जीव हैं। इस प्रकार के स्थावर जीवों से सर्वलोक निरंतर भरा हुआ है। अतः इस लोकमें त्रस पर्याय का प्राप्त होना इतना दुर्लभ है, जितना कि बालुका के समुद्रमें पड़ी हुई वज्रसिकता की कणिका का प्राप्त होना दुर्लभ होता है। इसमें भी विकलेंद्रिय जीवों की बहुलता होनेके कारण गुणों में जिस प्रकार कृतज्ञता गुण का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पंचेंद्रिय पर्याय का प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यंचों की बहुलता होती है। इसीलिए जिस प्रकार चौराहे पर रत्नराशि का प्राप्त होना अति कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है। और मनुष्य पर्याय के मिलने के बाद उसके च्युत हो जानेपर पुनः उसकी प्राप्ति होना इतना कठिन है जितनी कि जले हुए पुद्गलों का पुनः उस वृक्ष पर्याय रूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचित् पुनः इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इंद्रिय, संपत् और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जानेपर भी यदि समीचीन धर्म की प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनता से प्राप्त होने योग्य उस धर्मको प्राप्त कर विषय सुखमें रममाण होना भस्म के लिए चंदन को जलाने के समान निष्फल है। कदाचित् विषय सुखसे विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तपकी भावना, धर्मकी प्रभावना और सुखपूर्वक मरण रूप समाधि का प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होनेपर ही बोधिलाभ सफल है, ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। (सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/7/418) 

धर्मानुप्रेक्षा

उत्तम सुखमें लीन जिनदेवने कहा है कि श्रावकों और मुनियों का धर्म जो कि सम्यक्त्व सहित होता है, क्रमसे ग्यारह प्रकार का और दस प्रकार का है ॥68॥ जो जीव श्रावक धर्मको छोड़कर मुनियों के धर्म का आचरण करता है, वह मोक्ष को नहीं छोड़ता है, इस प्रकार धर्म भावना का नित्य ही चिंतन करते रहना चाहिए।
जिनेंद्रदेवने जो अहिंसालक्षण धर्म कहा है, सत्य उसका आधार है। विनय उसकी जड़ है, क्षमा उसका बल है, ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपशम की उसमें प्रधानता है, नियति उसका लक्षण है, परिग्रह रहितपना उसका आलंबन है। इसकी प्राप्ति नहीं होनेसे दुष्कर्म विपाक से जायमान दुःख को अनुभव करते हुए ये जीव अनादि संसारमें परिभ्रमण करते हैं। परंतु इसका लाभ होनेपर नाना प्रकार के अभ्युदयों की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति होना निश्चित है, ऐसा चिंतन करना धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है।



taken from jain kosh
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