जीवके धर्म तथा गुण - 2
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प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6- जीवके धर्म तथा गुण
जिनेन्द्र वर्णी

७. अनुभव
अनुभव दुःख-सुख, चिन्ता अथवा शान्तिको अन्दरमे महसूस करनेका नाम है। किसी पदार्थका जानना और बात है और उसका अनुभव करना और बात है । जाना तो दूरवती तथा निकटवर्ती दोनो पदार्थोंको जा सकता है, परन्तु अनुभव तो उस समय तक नही हो सकता है जब तक कि जीव उस पदार्थके साथ तन्मय न हो जाये ।
साधारणतः पांचो इन्द्रियोमे आँख तथा कान ये दो इन्द्रियाँ रूप व शब्दको जान सकती हैं पर अनुभव नही कर सकती, क्योकि ये दोनो विषय सदा दूर ही रहते हैं, कभी भी इन्द्रियोको स्पर्श नही करते। परन्तु स्पर्शन, जिह्वा तथा नाक ये तीन इन्द्रियाँ जाननेके साथ-साथ अनुभव भी करती है, क्योकि इनके विषयोका ज्ञान उस समय तक नही होता जब तक कि वे इन इन्द्रियोको स्पर्श न कर जायें। जैसे कि भोजन दूर रहकर आंखसे देखा जा सकता है, परन्तु चखा नही जा सकता जब तक कि जिह्वापर रख न लिया जाये। देखनेसे स्वाद या आनन्द नही आता, पर खाने या चखनेसे यदि मीठा हो तो आनन्द आता है और यदि कडवा हो तो कष्ट होता है। इसी प्रकार सुगन्धिके नाकमे आनेपर उसको जाननेके साथ-साथ कुछ मजा भी आता है । इसी प्रकार सदियोमे गर्म स्पर्श और गर्मियोमे शीत स्पर्शको जाननेके साथ-साथ आनन्द आता है तथा इससे उलटा होनेपर ठण्डा-गर्म जाननेके साथ-साथ कष्ट होता है।

जानना जबतक केवल जानना हो तब तक वह ज्ञान कहलाता है जैसे कि पदार्थको दूरसे देखकर जानना, परन्तु जब जाननेके साथ साथ दु.ख-सुखका वेदन भी हो तो उसे अनुभव कहते हैं. जैसे गर्म च ठण्डे स्पर्शको जानना । यद्यपि दोनो ही ज्ञान हैं, परन्तु दोनोमे कुछ अन्तर है । ऊपर जो तीन इन्द्रियो द्वारा अनुभव करना दर्शाया गया है सो बहुत स्थूल वात है। वास्तवमे अनुभव करना इन्द्रियोका नहीं वल्कि मनका काम है, इसलिए वह शरीरका नही जीवका गुण है। सो कैसे वही बताता हूँ ।

जबतक मन इन्द्रियके साथ नही होता तबतक आपको सुख या दुख नही हो सकता। क्योकि मन जब अपने विषयके साथ तन्मय हो जाता है, उसीमे तल्लीन हो जाता है, तब दु.ख-सुख, हर्ष
विषाद हुआ करता है। फिर भले ही वह विषय नेत्र इन्द्रियसे देखनेका हो या जिह्वासे चखनेका । जैसे कि बनको शोमा देखनेपर यदि मन सब तरफसे हटकर केवल उसे ही देखनेमे लीन हो जाये तो आनन्द आता है, परन्तु यदि किसी कार्य-विशेषवश किसी गाँव जाते हुए उसी वनमेसे आपको गुजरना पडे तब वह वन देखकर जाना तो जाता है परन्तु मन उसमे रूप न होनेके कारण आनन्द नही आता । इसी प्रकार भोजन करते हुए यदि मन उसमे हो लय हो जाये तो जानन्द जाता है, परन्तु यदि अन्य जिन्ताओं व सकल्प-विकल्पोमे उलझा रहे तो आनन्द नही बाता, साधारण-सा खट्टा-मीठा स्वाद ही जाननेसे आता है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना। जाननेके अति रिक्त जीवमे यह अनुभव करनेका एक पृथक् गुण है जिसका सम्बन्ध विषयके साथ तन्मय होकर दुखी या सुखी होनेसे है।

८. श्रद्धा और रुचि

"यह बात जैसो जानी वैसे ही है, अन्य प्रकार नहीं" ऐसी आन्तरिक दृढताको श्रद्धा या विश्वास कहते हैं। जानने व श्रद्धा करने मे अन्तर है। श्रद्धाका सम्बन्ध हित अहितसे होता है। इन्द्रियसे केवल इतना जाना जा सकता है कि यह पदार्थ रूप-रंग आदि वाला है, परन्तु 'यह मेरे लिए इट है' यह बात कौन बताता है ? सर्प काला तथा लम्बा है यह तो बोखने बता दिया, परन्तु 'यह अनिष्ट है, यहांने दूर हट जाओ यह प्रेरणा किसने को ? बस उसीका नाम श्रद्धा है। श्रद्धा उस आन्तरिक प्रेरणाका नाम है जो कि व्यक्तिको किसी विषयको तरफ तत्परता से उन्मुख होनेके लिए या वहसि हटने के लिए अन्दर बैठी हुई कहती रहती है।

श्रद्धाका यह अर्थ नहीं कि वह विषय आपके सामने हो तभी वह कुछ कहे। नही, विषय हो अथवा न हो यदि एक बार वह जान लिया गया है तो उसके सम्बन्धमे इष्ट-अनिष्टकी बुद्धि अन्दरमे बैठी
ही रहती है। कोई कितना भी समझाये कि सर्प तो बहुत अच्छा तथा सुन्दर होता है परन्तु आप उसकी बात माननेको तेयार नही । इसी आन्तरिक दृढताका नाम श्रद्धा है।

श्रद्धासे ही रुचि या अरुचि प्रकट होती है । जो वस्तु इष्ट मान ली गयी है वह सदा ही प्राप्त करनेकी इच्छा वनी रहती है जैसे कि धन कमानेकी इच्छा। इसे रुचि कहते हैं । यदि धनकी इष्टता सम्बन्धी श्रद्धा न हो तो यह रुचि नही हो सकती। रुचिका भी यह अर्थ नही कि आप वह काम हर समय करते रहे। परन्तु यह तो केवल एक भाव विशेष है जो अन्दरमे वेठा रहता है और अन्दर ही अन्दर चुटकियाँ भरा करता है, जैसे कि यहां पुस्तक पढते या उपदेश सुनते हुए यद्यपि आप धन कमानेका कोई काम नही कर रहे है, परन्तु उसकी रुचि तो आपको है ही ।

इस प्रकार श्रद्धा व रुचि एक दूसरेके पूरक है। श्रद्धा मान्त रिक दृढताको कहते हैं और रुचि उस आन्तरिक प्रेरणाको कहते है जिसके कारण कि व्यक्ति वस्तु विशेषको प्राप्त करनेके प्रति उद्यम शील बना रहता है। अनुभव और श्रद्धाका भी परस्पर सम्बन्ध है — जिस पदार्थका अनुभव सुखरूप हुआ है उसके सम्बन्ध इष्टपनेकी श्रद्धा होती है और उसीको प्राप्त करनेकी रुचि होती है । जिस पदार्थका अनुभव दु खरूप हुआ है उसके सन्बन्धमे अनिष्टपनेकी श्रद्धा होती है, और उससे किसी प्रकार भी बचे रहने की रुचि या प्रेरणा होती है। इस प्रकार अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि ये कुछ मान्त रिल सूक्ष्म भाव है जो प्रत्येक जीवमे पाये जाते हैं।

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६ संकोच विस्तार

जीव- सामान्यका परिचय देते हुए यह वात अच्छी तरह बतायी। जा चुकी है कि जीव छोटा बड़ा जो भी शरीर धारण करता है, वह
स्वय उसी आकारका हो जाता है। यह बात तभी सम्भव है जबकि वह सिकुड़ व फैल सकता हो । अतः उसमे सकोच-विस्तारका कोई गुण मानना युक्ति-सिद्ध है। शरीरधारी ससारी जीवोमे ही इस गुणका प्रत्यक्ष किया जा सकता है, क्योकि उन्हे ही छोटे या बड़े शरीर धारण करने पडते हैं । शरीर-रहित मुक्त जीवोमे इसका कार्यं दृष्टिगत नही हो सकता, क्योकि उन्हें शरीर धारण करनेसे कोई प्रयोजन नही है ।

१०. गुणोके भेद प्रमेद

जीवके सामान्य गुणोका कथन कर देनेके पश्चात् अब उनका कुछ विशेष ज्ञान करानेके लिए उनके कुछ भेद-प्रभेदोका भी परिचय पाना आवश्यक है अत अब उन गुणोके कुछ विशेष विशेष भेद बताता हूँ ।

११. ज्ञानके मेद

ज्ञानके दो भेद हैं – लौकिक तथा अलौकिक । लौकिक ज्ञान चार प्रकारका है –मति, श्रुत, अवधि व मन पर्यय । अलौकिक ज्ञान एक ही प्रकार है। उसका नाम है केवलज्ञान । इन पाँचोमे भी प्रत्येकके अनेक अनेक भेद हो जाते है, जिन सबका कथन यहाँ किया जाना असम्भव है । हाँ, इन पांचका सक्षिप्त-सा परिचय दे देता हूँ ताकि शास्त्रमे कही इन ज्ञानोका नाम आये तो आप उनका अर्थ समझ लें । इन पाँचोमे से मति तथा श्रुत ये पहले दो ज्ञान तो हीन या अधिक रूपमे छोटे या बड़े सभी जीवोमे पाये जाते है, परन्तु आगेवाले तीन किन्ही विशेष योगियोमे ही कदाचित उनके तपके प्रभावसे उत्पन्न होते हैं।



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१२ मतिज्ञान

पांचो इन्द्रियों से तथा मनसे जो कुछ भी प्रत्यक्ष या परोक्ष ज्ञान होता है वह सब मतिज्ञान कहलाता है । अत. जितनी इन्द्रियाँ हैं उतने ही प्रकारका यह ज्ञान होता है । जिस जीवके पास होन या अधिक जितनी इन्द्रियाँ होती है उसको उस-उस इन्द्रिय सम्बन्धी हो मतिज्ञान होता है, शेष इन्द्रियो सम्बन्धी नही होता, ऐसा समझना ।
पाँचो इन्द्रियाँ अपने-अपने निश्चित विषयको ही जानती है, जैसे कि आँख रूपको ही जान सकती है और जिह्वा स्वादको हो । एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रियके विषयको नही जान सकती । परन्तु मनका कोई निश्चित विषय नहीं है। वह प्रत्येक इन्द्रियके विषय सम्बन्धी विचारणा, तर्क तथा सकल्प विकल्प कर सकता है । अत मन सम्बन्धी मतिज्ञान अत्यन्त विस्तृत है, और वही प्रमुख है।
पहले किसी पदार्थको इन्द्रिय द्वारा जान लिया गया हो अथवा मन द्वारा विचारकर निर्णय कर लिया गया हो, तब वह स्मृतिका विषय बन जाया करता है। अर्थात् तत्पश्चात् पदार्थ न होने पर भी मन जब मी चाहे उस विषयका स्मरण कर सकता है। इसे स्मृतिज्ञान कहते हैं। यह भी मन सम्बन्धी मतिज्ञानका एक भेद है। किसी पदार्थको देखकर 'यह तो वही है जो पहले देखा था, या ‘यह तो वैसा ही है जैसा कि पहले देखा था' इस प्रकारका जो ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञान कहलाता है। यह भी मनो-मतिज्ञान का ही एक भेद है। इस प्रकार मतिज्ञानके बनेको भेद हैं, जो सर्व परिचित है। यह ज्ञान एकेन्द्रियसे सज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त सर्व हो छोटे-बड़े ससारी जीवोको अपनी-अपनी प्राप्त इन्द्रियोंके अनुसार होनाविक रूपमे यथायोग्य होता है। पशु-पक्षियो तथा मनुष्योको हो नही देव तथा नारकियोको भी होता है।

१३. श्रुतज्ञान
मतिज्ञानपूर्वक होनेवाला तत्पश्चादुवर्ती ज्ञान 'श्रुतज्ञान' कहलाता है। अर्थात् इन्द्रियो द्वारा किसी पदार्थ विषयको देखकर, सुनकर, या चखकर, या सूँघकर, छूकर, या विचार कर तत्सम्बन्धी किसी बातको जान श्रुतज्ञान प्रकारका होता है ज्ञान, अनुमान ज्ञान, श्रावण ज्ञान, कल्पना निमित्त इत्यादि। इनमे से हिताहित नामवाला प्रथम ज्ञान बडे-छोटे सभी प्राणियोको समान रूपसे है, शेष ज्ञान केवल समनस्क सज्ञी जीवोमे ही पाए जाते हैं।
किसी भी पदार्थको जान लेनेके पश्चात् यह भी साथ-साथ जाया करता भोजन को देखकर तो मेरा भदय होनेके कारण मेरे कामका है' अथवा घासको देखकर 'यह मेरे कामका है', ऐसा ज्ञान मनुष्यको होता है। गन्ध द्वारा अन्नको जानकर 'यह कामका और स्पां घनको जानकर 'यह कामका नही अथवा स्पर्श द्वारा अग्निको जानकर है, इससे बचना चाहिए' ऐसा चीटीको होता है। यही हिताहित सम्बन्धी श्रुतज्ञान ज्ञानके लिए मनकी कता बिना किसी शिक्षाके स्वय जाया करता है। मतिज्ञान द्वारा लेनेके पश्चात् ही यह होता है। द्वारा पदार्थको जानना मतिज्ञान है और पीछे उसमे हिताहितका भाव श्रुतज्ञान
किसी पदार्थको इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष करके अर्थात् देखकर, सुनकर, चखकर, सूंघकर या छूकर तत्सवन्धी किसी अप्रत्यक्ष पदार्थको जान लेना 'अनुमान' कहलाता है। जैसे कि दूरसे पर्वतमें किसी व्यक्तिका शब्द सुनकर यह पहचान  जाना की देवदत्त है, अथवा किसी कुटे या पिसे हुए चूर्णको चखकर यह जान जाना कि इसमे अमुक-अमुक मसाले पडे हैं । इन्द्रियज मतिज्ञान हो जानेके पश्चात् उत्पन्न होनेके कारण यह भी श्रुतज्ञानमे गर्मित है।

श्रावण श्रुतज्ञान शब्द सुनकर या पढकर होता है। किसी भी शब्दको पढकर या सुनकर उसके वाच्यार्थका ज्ञान हो जाता है, जैसे कि 'पुस्तक' ऐसा शब्द सुनकर या पढकर आप स्वय समझ जाते है कि बोलने या लिखनेवाला इस 'पुस्तक' पदार्थकी ओर संकेत कर रहा है। पुस्तक तो दूसरे कमरेमे रखी थी जिसे उस समय न आँाँखने देखा था और न कानने सुना था, फिर भी 'पुस्तक' शब्द द्वारा उसी पुस्तक पदार्थका ज्ञान हुआ । बस, यही धावण श्रुतज्ञान अर्थात् शब्दके द्वारा होनेवाला श्रुतज्ञान है। यह केवल मनवालोको ही होता है। यह भी मति-ज्ञानपूर्वक हो होता है, क्योकि शब्दको कान द्वारा सुनना मतिज्ञान है और तत्पश्चात् उस पदार्थको जान लेना श्रुतज्ञान है।

"तुम्हारी बात ठीक है, अथवा ठीक नही है, क्योकि यदि ऐसा मान लें तो यह बाधा लाती है, यह दोष आता है" इस प्रकारके युक्ति पूर्ण ज्ञानको तर्कज्ञान कहते हैं, जो केवल मन द्वारा ही होना सम्भव है। यह भी मति-ज्ञानपूर्वक हो होता है, क्योंकि कान द्वारा किसीका पक्ष सुनकर तत्पश्चात् उसपर युक्तियाँ लगाना श्रुतज्ञान है ।

किसी भी पदार्थको देख या सुनकर अथवा जानकर या स्वत स्मरण हो जानेपर तुरत ही प्रायः विकल्पकी धारा चल निकलती है जैसे– 'चीन' ऐसा शब्द सुनते ही, "अरे । बड़ा दुष्ट है तथा धोखेबाज है, चीनदेश । अब क्या होगा। युद्धमे यदि भारत हार गया तो गजब हो जायेगा । अरे । चीनी आकर हमारे घरोको लूटेंगे, स्त्रियोका शोल भग करेंगे। मे कैसे देखूगा, प्रभु मुझको उससे पहले ही संसारसे उठा ले" इत्यादि अनेक प्रकारकी कल्पनाओके जलमे उलझकर आप चिन्तित हो उठते है। इस प्रकारका कल्पना-ज्ञान भी श्रुतज्ञानका ही एक मेद है जो मन द्वारा होता है। यह भी मति-ज्ञानपूर्वक होता है, क्योंकि कल्पना प्रारम्भ होनेसे पहले किसी न किसी इन्द्रियसे पदार्थका ज्ञान अवश्य होता है, तब पीछेसे उस विषय सम्बन्धी कल्पना चला करती है।

सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदिकोपर-से हिसाब लगाकर भूत व भविष्यत्की कुछ बातोको जान लेना ज्योतिष ज्ञान कहलाता है। हस्त पादादिकी रेखाएँ देखकर भूत-भविष्यत् सम्बन्धी कुछ बातें जान लेना हस्तरेखा विज्ञान है। स्वप्नमे जो कुछ देखा उस परमे भूत-भविष्यत् की कुछ बातें जान लेना स्वप्न विज्ञान है। शरीरके अंगोपागोकी बनावट देखकर तथा उसके किन्ही प्रदेशोमे चक्रादिके चिह्न-विशेष देखकर उस व्यक्तिके भूत-भविष्यत् सम्बन्धी कुछ बातें जान लेना चिह्नज्ञान कहलाता है। श्वासके आने-जाने के क्रमको देखकर कुछ भूत-भविष्यत्की बातोको जान लेना स्वरज्ञान कन् लाता है। पशु-पक्षियोकी बोली सुनकर कुछ भूत-भविष्यत् सम्बन्धी बातें जान लेना भाषा-विज्ञान है । पृथिवीकी कठोरता या मृदुता आदि देखकर भूत-भविष्यत् सम्बन्धी बातें जान लेना भौम-ज्ञान कहलाता है। बाहरमे शुभ व अशुभ शकुन देखकर कुछ भूत-भविष्यत् सम्बन्धी बातें जान लेना शकुन-ज्ञान कहलाता है । इत्यादि प्रकार के सब ज्ञान निमित्त ज्ञान कहलाते है। यह भी श्रुतज्ञानका ही एक भेद है जो केवल मन द्वारा होता है तथा मतिपूर्वक होता है, क्योकि पहले इन्द्रियो द्वारा कुछ देख व सुनकर तत्सम्बन्धी विचारणा द्वारा पीछेसे भूत-भविष्यत्का पता चलता है ।

ये सव तथा अन्य भी मेद-प्रभेदोको धारण करनेवाला यह श्रुत ज्ञान अत्यन्त व्यापक है । वर्तमानका सर्व भौतिक विज्ञान यह श्रुत ज्ञान ही हैं। प्रत्यक्ष-परोक्ष, दृष्ट-अदृष्ट, सम्भव-असम्भव सभी बातो सम्बन्धी तर्कणाएँ तथा कल्पनाएँ करते रहना और उनमे से अनेको सारभूत बातें निकाल लेना, बड़े-बड़े सिद्धान्त वना देना यह सव श्रुतज्ञान है।

श्रुतज्ञानके ये सर्वं भेद यद्यपि मनुष्यमे ही सम्भव है परन्तु सर्व ही व्यक्तियोमे पाये जायें यह कोई आवश्यक नही, क्योकि प्रत्येक व्यक्तिका ज्ञान समान नही होता । सर्वत्र होनाधिकता देखी जाती है। संज्ञी अर्थात् मनवाले पशु-पक्षियोमे भी इनमेसे कुछ भेद पाये जाते हैं। स्थावर तथा विकलेन्द्रियोंमें उनकी इन्द्रियोंके योग्य मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानका केवल पहला भेद ही पाया जाता है। देव तथा नारकियोमे दोनो ज्ञानोके यथायोग्य सर्वं भेद मनुष्योवत् होनाधिक रूपसे पाये जाते हैं।


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