जीवके धर्म तथा गुण - 3
#1

प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6- जीव के धर्म तथा गुण
जिनेन्द्र वर्णी


१४. अवधिज्ञान

अवधिज्ञान एक विशेष प्रकारका ज्ञान है, जिसके द्वारा निकटस्थ अथवा अत्यन्त दूरस्थ भी जड़ या चेतन पदार्थोंका भूत भविष्यत् सम्वन्धी सारा चित्र-विचित्र हाल, हाथपर रखे आंवलेवत् प्रत्यक्ष दिखाई देता है। इस ज्ञानके द्वारा योगीजन इतना तक बता देते हैं कि तू पहले कई भवोमे कहाँ-कहाँ तथा किस-किस व्यक्तिके यहाँ जन्मा था। मनुष्य योनिमे था या पशु आदि अन्य योनियोमे । वहां तूने किस-किस व्यक्ति के द्वारा किस-किस प्रकार क्या-क्या दु.ख-सुख सहा था, और आगेके कई भवोमे कहाँ कहाँ किस-किस व्यक्तिके यहाँ अथवा किस-किस योनिमे जन्म कर, किस-किस व्यक्तिके द्वारा किस-किस प्रकार क्या-क्या दु.ख सुख भोगेगा ।

यद्यपि किन्ही ज्ञानो गृहस्थोमे तथा पशु-पक्षियोंमें भी कदाचित् कुछ मात्रामे यह ज्ञान हो जाना सम्भव है, परन्तु मुख्यत तपस्वी
योगियोको ही उनके तपके प्रभावसे प्रकट होता है। यह ज्ञान भी किन्हीको हीन तथा किन्हीको अधिक होता है। इस ज्ञानके दो भेद हे – अवधिज्ञान तथा विभगज्ञान । अवधिज्ञान तो ऊपर बता ही दिया गया । विभंगज्ञान नारकियोको तथा नीच अज्ञानी देवोको - होता है। इस ज्ञानके द्वारा भूत-भविष्यत्की वात तो अवश्य जानों जाती है, परन्तु ऐसी बातें ही जानी जाती है, जिनको जानकर कि द्वेष, लड़ाई, मार-पीट होने लगे । कोई भी प्रेमवर्धक बात जानने मे नही आती। जैसे कि 'इस व्यक्तिने पूर्व भवमे मेरी स्त्रीका हरण किया था', यह बात तो जाननेमे आ जाती है, पर इस व्यक्ति ने मेरे साथ यह उपकार किया था, ऐसी वातकी तरफ ध्यान भी नही जाता । इसका कारण भी यही है कि अत्यन्त नोची प्रकृतिके मलिन अन्तः करणमे इसका उदय होता है। नरक तथा देवगति मे सभीको यह स्वाभाविक होता है ।

१५ मन पर्यय ज्ञान

मन पर्यय तो और भी विचित्र प्रकारका ज्ञान है। इसके द्वारा योगी अपने सामने आये हुए व्यक्ति के मनको अत्यन्त सूक्ष्म वातको भी प्रत्यक्ष जान लेते हैं। यहां तक भी जान लेते है कि कुछ दिन या घण्टो पहले इसने क्या सोचा था और कुछ दिन या घण्टो पश्चात् यह क्या सोचेगा ? यह ज्ञान गृहस्थको कदापि नही हो सकता, केवल बडे-बडे विशेष ज्ञानी-तपस्वियोको ही होता है। यह भी सबको बरावर नही होता बल्कि होन अधिक होता है।


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१६. केवलज्ञान

केवलज्ञान अत्यन्त व्यापक होता है। इसे पूर्णज्ञान कहना साहिए। यह होन अधिक नहीं होता। यह एक अद्वितीय निरावरण ( दिना कहा- पूरा हुआ ) अनन्तप्रकाशरूप होता है,

जिसमे समस्त विश्व एक साथ प्रतिभासित हो उठता है । यह मात्र उन महान् योगीश्वरोको ही होता है जो कि सावना-विशेष द्वारा अन्त करण तथा शरीरके बन्धनों से मुक्त होकर केवल चेतनमात्र रह जाते है। पहले चार ज्ञान लौकिक हैं और यह ज्ञान अली किक है |

१७ क्रम तथा अक्रम ज्ञान

इन पांचो ज्ञानोमे पहले चार क्रमवर्ती ज्ञान है और अन्तिम जो केवलज्ञान है वह अक्रमवर्ती है। पहले एक पदार्थको जाना, फिर उसे छोड़कर दूसरेको जाना, उसे छोडकर तीसरेको जाना यह क्रमवर्ती ज्ञान कहलाता है। हमारा सबका ज्ञान क्रमवर्ती है। अवधि तथा मन पर्यय ज्ञान भी क्रमवर्ती है। परन्तु केवलज्ञान मन्त प्रकाशपुज है, इसलिए उसमे इस प्रकार अटक अटककर आगे-पीछे थोडा-थोडा जाननेकी आवश्यकता नही है । वह समस्त विश्वको एक साथ पी जाता है । अत केवलज्ञान अक्रमवर्ती है ।


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१८ दर्शन के भेद

ज्ञानकी ही भाँति दर्शन भी दो प्रकारका है-लौकिक तथा अलौकिक । लौकिक ज्ञानो से सम्बन्ध रखनेवाला लौकिक और अलोकिक से सम्बन्ध रखने वाला अलौकिक है। पहले लक्षण करते हुए यह बताया गया है कि ज्ञान से पूर्व दर्शन हुआ करता है, क्योकि जबतक आपका उपयोग या प्रकाश पहली इन्द्रिय से हटकर दूसरी इन्द्रियपर नही जायेगा तबतक वह दूसरी इन्द्रिय निस्तेज रहेगी और खुली हुई होते हुए भी जाननेका काम न कर सकेगी। इसलिए जितने प्रकारके ज्ञान है उतने प्रकारके ही उनसे पूर्व होनेवाले दर्शन होते चाहिए । परन्तु वास्तवमे ऐसा नही हैं ।

श्रुतज्ञानसे पूर्व दर्शन नही होता, क्योकि 'वह मति ज्ञानपूर्वक होता है, ऐसा बताया जा चुका है, और इसी प्रकार मन पर्यय ज्ञानके पूर्व भी कोई पृथक् दर्शन नही हुआ करता । वह भी मनो मतिज्ञान पूर्वक ही हुआ करता है । शेष रहे तीन ज्ञान -मति, अवधि तथा केवल । बस इनके साथ सम्बन्धित होनेसे दर्शनके भी तीन भेद किये जा सकते है- मतिदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन ।

'भतिदर्शन' ऐसा नाम आगममे नही आता, क्योकि इसके भेद प्रभेदोकी अपेक्षा इसका दर्शन भी अनेक भेदरूप समझा जा सकता है । मतिज्ञान क्योकि पाँच इन्द्रियो और छठे मनसे होता है इसलिए उस उस इन्द्रियके ज्ञानसे पूर्व होनेवाले दर्शन भी छह प्रकारके होते चाहिए, स्पर्शज्ञानसे पूर्ववाला स्पर्शन दर्शन और रसना से पूर्ववाला रसना दर्शन इत्यादि । परन्तु श्रोता व पाठक के सुभीते के लिए मति दर्शनके इतने भेद न करके केवल दो ही भेद कर दिये गये है— चक्षु दर्शन तथा अचक्षु दर्शन । चक्षु इन्द्रिय अर्थात् आँख से देखनेके पूर्व जो अन्तरग दर्शन होता है वह चक्षुदर्शन है, और शेष चार इन्द्रियों तथा मन द्वारा जानने से पूर्व जो दर्शन होता है वह अचक्षुदर्शन कहलाता है। यहाँ छहो भेदोको मिलाकर एक मतिदर्शन कहा जा सकता था, परन्तु चक्षु इन्द्रियसे देखना और दर्शनसे देखना इन दोनो प्रकारके देखने मे जो अतरह उसे दर्शा निके लिए चक्षुदर्शनको पृथक् कर दिया गया । चक्षु इन्द्रिय से देखना चक्षु इन्द्रिय सम्बन्धी मतिज्ञान है, परन्तु इससे पहले अन्तरग प्रकाशका जो दौड़कर चक्षु इन्द्रियके प्रति आना है वह चक्षुदर्शन है। शेष इन्द्रियाँ अचक्षु है अर्थात् चक्षु नही हैं, इसलिए उन सबसे पूर्व होनेवाले दर्शनको अचक्षुदर्शन कहना युक्त ही है ।

इसी प्रकार अवधिज्ञानसे पूर्व होनेवाला दर्शन अवधिदर्शन कहलाता है। श्रुत तथा मन पर्ययसे पूर्व दर्शनकी आवश्यकता नही, क्योकि वे मनोमतिपूर्वक होते है । केवलज्ञानके साथ रहने चाला दर्शन केवलदर्शन है।

यहाँ इतना ध्यामे रखना चाहिए कि पहलेवाले ज्ञान क्योकि क्रमवर्ती है, आगे-पीछे अटक अटककर अपने-अपने विषयोको जानते है, इसलिए वहां दर्शन तथा ज्ञान भी आगे पीछे होते हैं। पहले दर्शन होता है और पीछे तत्सम्बन्धी ज्ञान । यह ठीक है कि आगे पीछे होनेका यह अन्तराल एक क्षणका भी सहस्रांश है, परन्तु फिर भी होते जागे-पीछे हो हैं। परन्तु केवलज्ञान तथा केवलदर्शनमे आगे-पीछे होनेका यह कम नही है । इसका कारण यह है कि केवलज्ञान चेतनका पूर्ण प्रकाश है, जिसमे सारा बाह्य जगत् तथा अन्तरंग जगत् एक साथ प्रतिभासित हो जाता है । वास्तवमे केवलज्ञान और केवलदर्शन दो पृथक् वस्तुएँ नही है, बल्कि चेतनका वह अखण्ड प्रकाश ही है, जिसका कि परिचय चेतनका स्वरूप दर्शाते हुए पहले दिया जा चुका है। परन्तु फिर भी उस प्रकाशको बतानेमे कुछ वचन-भेद आता है । जब हमे यह कहना इष्ट होता है कि वह तो अन्तरगका प्रकाश मात्र है तब उसीका नाम केवलदर्शन कहा जाता है, और जब हमे यह कहना इष्ट होता है कि उस प्रकाशमे समस्त विश्व प्रतिभासित हो रहा है, तब वही प्रकाश केवलज्ञान कहा जाता है । क्योकि पहले ही दर्शनकी व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि बाह्य पदार्थोंका जानना ज्ञान है और अन्तरगमे प्रकाश देखना दर्शन है । इस प्रकार चक्षु, मचक्षु तथा अवधिदर्शन तो लौकिक है और केवलदर्शन अलौकिक है।

१९ सुखके भेद

सुख गुणके अन्तर्गत सुख तथा दु ख दोनो आ जाते हैं। सुखके भी दो भेद हैं— लौकिक तथा अलौकिक । लौकिक सुख दो प्रकारका है— एक बाह्य दूसरा अन्तरंग । इन्द्रिय तथा शरीर सम्बन्धी भोगसे जो सुख होता है वह बाह्य लौकिक सुख हे और इच्छाकी पूर्ति हो जानेपर या इष्ट पदार्थकी प्राप्ति हो जानेपर मनमे जो हर्ष होता है वह अन्तरग लौकिक सुख है । यह सर्व ही ससारी जीवोको होता है। अलौकिक सुख एक ही प्रकारका है और वह शरीर तथा अन्तःकरणसे मुक्त अलोकिक जनोको अर्थात् मुक्त जीवोको होता है । 'ज्ञान-प्रकाशका पूर्ण रूपेण खिल जाना तथा समस्त विश्वका एक साथ प्रत्यक्ष हो जाना रूप जो शान है वही ज्ञान उनका सुख है। इसे सुख नही बल्कि आनन्द कहते हैं । समस्त चिन्ताओका, चिन्ताओंके कारणोका तथा समस्त इच्छाओ का नाश हो गया है और शान्त व शीतल प्रकाशमान स्वभावमे स्थिति हो गयी है । पहले चारो ओर इच्छाओका अन्धकार था, जीवनपर भार प्रतीत होता था, अब सर्वत्र प्रकाश है, जीवन अत्यन्त हलका प्रतीत होता है । यही वह आनन्द है ।

लौकिक दु.ख भी दो प्रकारका है-बाह्य तथा अन्तरग | बाह्य दुख तो शरीरकी पीड़ाओ तथा रागादिके रूपमे प्रकट होता है, और अन्दरका दुख चिन्ता, व्याकुलता, इच्छा, तृष्णा आदिके रूपमे होता है । अलौकिक दुख होता ही नही, क्योकि स्वयं प्रकाशित तथा अन्त करणसे मुक्त जीवोंको इच्छा तथा चिन्ता आदि करनेका कोई कारण नही रहता ।


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२० वीर्य

वीर्य भी दो प्रकारका है- एक बाह्य और दूसरा अन्तरंग | बाह्य वीर्य शरीरकी शक्तिका नाम है जिसे दुनिया जानती है। अन्तरग वीर्य ज्ञानकी होन अधिक शक्ति रूप, तथा उसकी स्थिरता रूप होता है। वह दो प्रकारका है- एक लौकिक और दूसरा अलौकिक । बाह्य वीर्य अलोकिक नही होता क्योकि अलौकिक अर्थात् मुक्त जनोंके शरीर नही होता । मतिज्ञान तथा दर्शन आदिके द्वारा जानने-देखने की जीवकी हीन या अधिक शक्तिका नाम लौकिक अन्तरग वीर्य है, क्योकि ये मति आदि ज्ञान लौकिक या ससारी जीवोको ही होते हैं । केवलज्ञान तथा केवलदर्शनको अतुल शक्तिका नाम अलौकिक वीर्य है, जो अनन्त है, क्योकि इससे अनन्तका युगपत् ज्ञान होता है ।

ज्ञानमे होनता या अधिकता के साथ साथ स्थिरता तथा अस्थिरता भी होती है। ज्ञान किसी भी विषयको अधिक देर तक नही जान पाता। एक विषयको छोड़कर दूसरे विषयकी तरफ दौडता है, और फिर उसको भी छोड़कर तीसरे विषयकी तरफ दोडता है। ज्ञानकी यह चचलता मनकी चचलता के कारण है । मनकी चचलतासे सब परिचित है। जिस व्यक्तिका मन अधिक चचल है उसके मनकी शक्ति तो अधिक है पर उस जीवका वीर्य कम है । जीवका स्वभाव जानने-देखने का है अर्थात् जाननेमे टिके रहना या ज्ञानमे स्थिरता धारना है, परन्तु मन उसे वहाँ टिकने नही देता । अतः जिस जीवके ज्ञानमे अधिक स्थिरता है उसका अन्तरंग वीर्य अधिक है, अपेक्षा उस व्यक्ति के जिसके ज्ञानमे कि स्थिरता अल्प है। ज्ञानमे स्थिरता न होना ही मनकी चचलता है। इसीलिए जीवके वीर्यकी कमी और मनकी शक्तिकी प्रवलताका एक ही अर्थ है । इस प्रकार सभी लौकिक संसारी जीव हीन वीर्य वाले परन्तु वलवान् मनवाले हैं ।

अलौकिक वीर्यं अलौकिक अर्थात् मुक्त जीवोके ही होता है । उनको शक्ति अनन्त है, क्योकि उन्हें ज्ञानकी पूर्ण स्थिरता प्राप्त हो गयी है । उनका ज्ञान न हमारी भाँति आगे-पीछे होता है और न कविता है । ज्ञानको कँपानेका कारण मन था, उससे वे मुक्त हो चुके हैं। अतः अनन्त काल पर्यन्त वे अनन्त प्रकाश द्वारा अन्त विनिष्कम्प रूपसे बराबर जानते तथा देखते रहते है. और उस प्रकाश द्वारा प्राप्तकम्प रीतिले उपभोग करते रहते हैं। चन्य है उसका सर बोर्ड । यही सच्चा वीर्यं है ।

२१. अनुभव श्रद्धा तथा रुचि

अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि भी दो प्रकारको होती है-लौकिक तथा अलौकिक । लोकिक अनुभवादि दो-दो प्रकारके हैं बाह्य तथा अन्तरग। यह शरीर हो मैं हूँ, इसका सुखदुख ही मेरा सुख दुख है, धन-कुटुम्बादि बाह्य पदार्थ हो मेरे लिए है इत्यादि प्रकारके अनुभवादि तो बाह्य है, और विषयभोग सम्बन्धी यह ज सुख तथा हर्ष अन्दरसे हो रहा है यह मेरा सुख है तथा अतरप में यह जो शोक हो रहा है 'यही मेरा दुख है, ये अन्तर अतु भवादि है। ये दोनो ही अनुभवादि लौकिक है।

अलौकिक अनुभवादि एक ही प्रकार है। ज्ञाता द्रष्टा बनकर स्थित रहना, मनको को रोककर ज्ञानका विष्कम्प रहना, ज्ञानका ज्ञान प्रकाशमे ही मग्न रहता रूप जो आनन्द है वही मेरा है. इसके अतिरिक्त मुझे कुछ नही चाहिए। इस प्रकारका अनुभव ढ़ा तथा रुचि अलोकिक है। ये उन ज्ञानी-जोको हो होते है जो कि संसारको पोलको पहचानकर आत्म-कल्याणके प्रति अर हुए हैं। इनके अतिरिक अलौकिक जो मुरु जो है उन्हें तो होते ही हैं।

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२२. कषाय

ज्ञान आदि पूर्वोक गुणोके अतिरिक्त जोजोमे कोषादि वि भाव भी सर्वेक्ष हैं। ऐसे मवि भावोको कषाय कहते है। कषाय अनेक प्रकारको हैं । परन्तु मुख्यतः चार मानी गयी है- क्रोध, मान, माया, लोभ ।

इष्ट पदार्थ की प्राप्तिमे किसीके द्वारा कोई बाधा उपस्थित हो जानेपर क्रोध भाता है। इष्ट पदार्थको प्राप्ति हो जानेपर अभिमान होता है। इष्ट पदार्थको प्राप्तिके लिए छल होता है, वही माया है। इष्ट पदार्थकी प्राप्ति हो जानेपर उसे टिकाये रखनेका भाव लोभ है ।

इन चारोमे-से क्रोध, माया व लोभके तो कोई भेद नही हैं, पर मानके अनेको भेद हैं, जिनमे आठ मद प्रसिद्ध हैं - कुलमद, जाति मद, रूपमद, वलमद, धनमद, ऐश्वर्यमद, ज्ञानमद तथा तपमद । मेरा पिता बहुत वडा आदमी है ऐसा भाव रखना कुलमद है । इसी प्रकार मेरी माता बडे घरकी है ऐसा जातिमद है । इसी प्रकार 'मै बहुत सुन्दर हूँ, मै बहुत बलवान् हूँ, में बहुत धनवान् हूँ, मेरी आज्ञा सव मानते हैं इसलिए में बहुत ऐश्वर्यवान् हूँ, मै बहुत ज्ञानवान् हूँ तथा मैं बहुत तपस्वी हूँ कोन है जो मेरी वरावरी कर सकता है', ये सब भाव मद या अभिमान कहलाते हैं ।

चारो कषाय उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। क्रोध सबसे स्थूल है क्योकि वह बाहर मे शरीरकी भृकुटी आदिपर-से देखा जा सकता है । मन उसकी अपेक्षा सूक्ष्म है क्योकि यह शरीरकी आकृतिपर से नही देखा जा सकता, परन्तु उसकी बातोपर से अवश्य जाना जा सकता है । मानी व्यक्ति सदा बहुत बढ-चढकर बातें किया करता है, सदा अपनी प्रशसा तथा दूसरेकी निन्दा किया करता है, अपनी महत्ता तथा दूसरेकी तुच्छता दर्शाया करता है। माया उसकी अपेक्षा भी सूक्ष्म है क्योकि यह बातोपर-से भी जानी नही जा सकती। परन्तु उसके द्वारा कुछ काम किये जानेके पश्चात्, जब उसकी पोल खुलती है तब जान ली जाती है। लोभ सबसे सूक्ष्म है, क्योकि यह तो किसी भी प्रकार जाना नही जा सकता । इसका निवास अत्यन्त गुप्त है। यह अन्दर ही अन्दर बैठा व्यक्तिको स्वार्थकी ओर अग्रसर करता रहता है, और अन्याय व अनीति का उपदेश देता रहता है, परन्तु स्वयं प्रकट नही होता।

लोभकी माता एषणा या इच्छा है। यह भी कई प्रकारकी है। जैसे- पुत्रेषणा, वित्तेषणा, ज्ञानेषणा, लोकेषणा, इत्यादि । पुत्रको इच्छा पुत्रेषणा है। धनकी इच्छा वित्तेषणा है। ज्ञान प्राप्तिको इच्छा ज्ञानेषणा है। ख्याति लाभ पूजाकी इच्छा लोकेषणा है। सब कषायोकी जननी यह इच्छा है। इसीसे लोभ उत्पन्न होता है, लोभसे स्वार्थ होता है, स्वार्थकी पूर्तिके अर्थ अन्याय-अन्य किये जाते हैं। अन्याय करनेके लिए माया व छल-कपटका आश्रय लेना पडता है। एषणाओं को किंचित् पूर्ति हो जानेपर 'मैने यह काम कर लिया, देखो कितना चतुर हूँ' ऐसा अहंकार होता है। महं कारसे अभिमान जन्म पाता है । यदि कदाचित् इच्छाको पूर्तिमे बाधा पड़ती है या अभिमानपर किसीके द्वारा आघात होता है, तो बस क्रोध आ धमकता है। इसलिए सर्व कषायोकी मूल इच्छा है। यह अत्यन्त सूक्ष्म होती है और किसी प्रकार भी जानी नही जा सकती। दूसरा व्यक्ति तो क्या स्वय वह व्यक्ति सो नहीं जान सकता, जिसमे कि वह वास करतो है। इच्छाकी सूक्ष्म व गुप्त अवस्थाका नाम वासना है, और इसको तीव्रताका नाम तृष्णा या अभिलाषा है ।

इन सब कषायोके अतिरिक्त कुछ और भी हैं - जिनमे से नौ प्रधान हैं- रति, अरति, हास्य, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद नपुंसकवेद । भोगोमे आसक्ति का होना रति है । अनिष्टताओसे दूर हटने का भाव मरति है। हँसी-ठट्टे का भाव हास्य है । इष्ट पदार्थ के नष्ट हो जानेपर सोचना-विचारना शोक है। अनितायोसे डरनेका नाम भय है। ग्लानि व घृणाका भाव जुगुप्सा है। पुरुषके साथ रमण करनेका जो भाव होता है वह स्त्रीवेद है। स्त्रीके साथ रमण करनेका जो भाव होता है वह पुरुषवेद है । और स्त्री तथा पुरुष दोनोंके साथ रमण करनेका जो भाव होता है वह नपुंसकवेद है जो नपुसकोने ही पाया जाता है ।

इस प्रकार कषायका कुटुम्ब बहुत बडा है। इच्छा, वासना, तृष्णा, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्वार्थ, अहकार, हास्य, रति, लरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद आदि सब कषाय हैं। सबका नाम गिनाना असम्भव है। इसलिए सब कृषायोके प्रतिनिधिके रूपमे राग तथा द्वेष ये दो ही यत्र-तत्र प्रयोग करनेमे आते हैं । इन दोनोका पेट बहुत बड़ा है । इन दोनोमे जगत्की सर्व कषायें समावेश पा जाती है। इष्ट अर्थात् अच्छे लगनेवाले विषयके प्रति प्राप्तिका भाव राग कहलाता है और अनिष्ट पदार्थसे बचकर रहना या उसे दूर हटानेका भाव द्वेष कहलाता है। इष्टकी प्राप्तिका तथा अनिष्टसे बचनेका, इन दोनो भावो के अतिरिक्त तीसरा भाव जीवमे पाया नहीं जाता। सभी चाहते हैं कि जो हमे अच्छा लगे वह तो हमे मिले और जो बुरा लगे वह न मिले। बस यही राग-द्वेष है।

सभी कषाय राग और द्वेषमे गभित की जा सकती हैं। जैसे इच्छा, वासना, तृष्णा, काम, मान, लोभ, स्वार्थ, लहकार, रति, हास्य और तीनो वेद राग है क्योकि इन सभीमे इष्ट पदार्थको प्राप्तिका भाव बना रहता है। इसी प्रकार क्रोध, मामा, करति, शोक, भय, जुगुप्सा आदि द्वेष है, क्योकि इनमें अनिष्ट पदायके प्रति हटावका भाव बना रहता है। अतः राग व द्वेष ये दोनो शब्द व्यापक अर्थमे प्रयोग किये जाते हैं। क्योकि ये सब भाव जीवको मलिन कर देते है, उसे अन्धकार पूर्ण कर देते हैं, उसके मधुर जीवनको कहुआ या कमायला कर देते हैं इसलिए कषाय कहलाते हैं ।
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