जीव के धर्म तथा गुण - 4
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प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6- जीव के धर्म तथा गुण

जिनेन्द्र वर्णी

२३. आवरण तथा विकार

जीवके गुणो तथा भावोमे दो बातें प्रमुखत. देखी जाती है आवरण तथा विकार । 'आवरण' पर्देका नाम है और 'विकार' विगडनेका नाम है । सूर्यके आगे आनेवाले बादल सूर्यको ढक देते है, इसलिए उन्हें सूर्यका आवरण कहा जाता । बासी होनेपर जब भोजन सड़ जाता है, बिगड़ जाता है, तब वह लाभकी बजाय हानिकारक हो जाता है। इस प्रकार विपरीत हो जानेका नाम विकार है। आवरणसे केवल पदार्थ ढका जाता है पर बिगडता नही । आवरण से उस पदार्थका प्रकाश केवल घुँधला हो जाता है, परन्तु विकारसे वह पदार्थ विपरीत हो जाता है। विकारको विक्षेप भी कहते हैं ।

जोवमे बताये गये लौकिक ज्ञान, लौकिक दर्शन और लौकिक वीर्य ये तीनो आवरण सहित अर्थात् ढके हुए है. इसलिए ये धुँधले हो गये है अर्थात् इनकी शक्ति कम हो गयी है । परन्तु लौकिक सुख, दु.ख, अनुभव, श्रद्धा, रुचि तथा कषाय ये सब विकारी भाव हैं, क्योकि चेतनका जो वास्तविक ज्ञान-प्रकाशी आनन्दमय स्वभाव है, जिसके कारण कि उसकी सुन्दरता है, निर्मलता व स्वच्छता है, उस स्वभावको इन भावोने विपरीत कर दिया है। उसके स्वतन्त्र शान्त आनन्दको विषयोंके आधीन करके परतन्त्र, अशान्त तथा व्याकुल बना दिया है । ज्ञानादिके आवरणोने केवल उसकी ज्ञान शक्तिको कम कर दिया पर उसे विपरीत नही किया अर्थात् ज्ञानको अज्ञान नही बनाया । परन्तु कषायो आदिके रूपवाले विकारोंने उसके स्वभावको विपरीत कर दिया है । आवरण तथा विकार इन
दो शब्दोका अगले प्रकरणोमे काफी प्रयोग किया गया है, इसलिए उन शब्दोके भावार्थ को यहाँ स्पष्ट कर दिया है।

२४. सावरण तथा निरावरण ज्ञान

पाँचो ज्ञानोमे-से पहले चार सावरण हैं और अन्तिम ज्ञान निरावरण है। आवरण नाम पर्देका है । जो ज्ञान किसी आन्तरिक पर्देसे ढका रहता है उसे सावरण कहते हैं और जिस ज्ञानपर कोई पर्दा नहीं रहता अर्थात् जो पूरा खुला रहता है उसे निरावरण कहते हैं । बादलोसे ढका हुआ सूर्यका प्रकाश सावरण है और बादलो रहित सूर्यका प्रकाश निरावरण है । इसी प्रकार अन्त करण से आवृत या ढका हुआ ज्ञान सावरण है और अन्त करण-मुक्त ज्ञान निरावरण है ।

जिस प्रकार बादलोंसे ढके सूर्यका प्रकाश कम होता है और बादलोंसे मुत्त सूर्यका प्रकाश पूर्ण होता है, उसी प्रकार अन्तःकरणसे ढके सावरण ज्ञानका प्रकाश कम होता है ओर अन्त करण से मुक्त निरावरण ज्ञानका प्रकाश पूर्ण होता है । जिस प्रकार सफेद तथा काले बादलोकी गहनतामे तारतम्य या हीनाधिकता हनेके कारण उनसे ढका हुआ सूर्यका प्रकाश भी अधिक व हीन होता है, उसी प्रकार अन्तःकरणकी मलिनतामे तारतम्य होनेके कारण उससे ढका हुआ ज्ञान भी हीन व अधिक होता है । यदि अन्त करण कम मलिन है अर्थात् उज्ज्वल है तो ज्ञान अधिक प्रकट होता है, और यदि वह अधिक मलिन है अर्थात् कषायोसे दबा हुआ है तो ज्ञान भी होन प्रकट होता है।

जिस प्रकार बादलोसे ढके हुए भी सूर्यका अपना प्रकाश तो पूर्ण का पूर्ण ही रहता है, केवल बादलोमे-से छनकर जो प्रकाश पृथिवी पर पड़ता है वही कम या अधिक होता है, इसी प्रकार अन्तःकरणसे ढके हुए भी चेतनका अपना प्रकाश तो पूर्ण ही रहता है, केवल अन्त करणपर प्रतिविम्बित जो ज्ञान प्रकट होता है वही कम या अधिक होता है। जिस प्रकार सूर्यका प्रकाश तो एक रूप उज्ज्वल ही है, परन्तु उसके आगे लाल, नीले, पीले आदि पर्दे या शीशे आ जानेपर वह लाल, नीला, पीला आदि हो जाता है, उसी प्रकार चेतनका ज्ञान तो एकरूप उज्ज्वल ही है परन्तु उसके आगे भिन्न भिन्न प्रकारके अन्तःकरण आ जानेसे वह चित्र-विचित्र हो जाता है ।

इस प्रकार सावरण ज्ञानमे हीनाधिकता है, परन्तु निवारण ज्ञान पूर्ण होता है। सावरण ज्ञान चित्र विचित्र होता है, परन्तु निरावरण ज्ञान एकरूप होता है। इसी प्रकार दर्शनके सम्बन्धमे भी जानना । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्यय ज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये सब सावरण हैं और केवलज्ञान तथा केवलदर्शन ये दोनो निरावरण हैं। इसी प्रकार लोकिक वीर्य सावरण है और अलौकिक वीयं निरावरण है ।


Taken from  प्रदार्थ विज्ञान - अध्याय 6 - जीवके धर्म तथा गुण - जिनेन्द्र वर्णी

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२५. स्वभाव तथा विभाव

जबतक पदार्थ बिगडता नही तबतक वह स्वभावमे स्थित कहा जाता है, परन्तु बिगड़ जानेपर वह विकारी कहलाता है। स्वभाव-स्थित रहने के कारण ताजे भोजनका स्वाद तथा स्पर्श ठीक रहता है, गन्ध भी ठीक रहती है और रूप भी ठीक रहता है, परन्तु विकारी हो जानेपर सड़े हुए बासी भोजनका स्पर्श भी बिगड जाता है, स्वाद तथा गन्ध भी बिगड जाते हैं और रूप भी विगड़ जाता है । इसी प्रकार स्वभाव-स्थित रहनेके कारण अन्त. करणसे मुक्त जीवका स्पर्श अर्थात् आनन्द भी स्वतन्त्र, उज्ज्वल तथा निराकुल रहता है, स्वाद अर्थात् अनुभव भी उज्ज्वल, पवित्र व निराकुल होता है। उसकी गध अर्थात् श्रद्धा मी स्वतन्त्र, उज्ज्वल, निराकुल, तथा निस्वार्थ होती है ओर उसका रूप-रंग अर्थात् रुचि भी उज्ज्वल, पवित्र तथा नि स्वार्थ होती है। अन्त करण युक्त चेतनका सुख विकार सहित तथा शरीर इन्द्रिय व विपयोके आधीन हो जानेके कारण परतन्त्र है इच्छाओ तथा कपायोंसे मलिन हो जाने के कारण मलिन व अपवित्र है, तथा मनकी चचलता के कारण काकुल है। इस प्रकार विकारी होने के कारण जीवका स्पर्श अर्थात् सुख परतन्त्र, मलिन तथा व्याकुल होता है । इसी प्रकार उसका स्वाद अर्थात् अनुभव भी परतन्त्र, मलिन, अपवित्र तथा व्याकुल है, उसको गन्ध अर्थात् श्रद्धा भी परतन्त्र, मलिन, अपवित्र व स्वायंपूर्ण है और उसका रूप-रंग अर्थात् रुचि भी परतन्त्र, मलिन, अपवित्र तया स्वार्थपूर्ण है ।

इस प्रकार स्वभाव तथा विकारका अर्थ सर्वत्र समझना । ज्ञान, दर्शन व वीर्य ये गुण ढक तो जाते है पर विकारी नही होते । दूसरी ओर सुख, अनुभव, श्रद्धा व रुचि ये गुण ढकते नहीं पर विकारी हो जाते हैं। चेतनके जो अलौकिक केवलज्ञान, केवलदर्शन हैं वे निरावरण है और शेष जो मति आदि चार ज्ञान तथा चक्षु आदि दर्शन है वे सावरण है। चेतनके जो अलौकिक आनन्द, अनुभव, श्रद्धा व रुचि हैं वे स्वाभाविक हैं और अन्त करण युक्त जीवोके लौकिक सुख, दुख, अनुभव, श्रद्धा तथा रुचि हैं वे विकारी है । समस्त ही कषाय-भाव विकारी है। आवरण तथा विकारमे स्थिति हो अधर्म है और स्वभावमे स्थितिका नाम धर्म है ।

२६. चेतनके गुण

इस प्रकार स्वभाव व विकारको जान लेनेके पश्चात् अब जीवके पूर्वोक्त सर्व गुणोका विश्लेषण करके, यह भी जान लेना चाहिए कि उन गुणोमे से कितना भाग चेतनका है और कितना अन्त करणका, क्योकि चेतन व अन्त करण इन दोनोके संयोगका नाम ही जीव है ऐसा पहले बताया जाता रहा है। इस प्रयोजनकी सिद्धिके अर्थ पहले बताया हुआ चेतनका स्वरूप भान करना होगा । चेतनका स्वरूप है ज्ञान-प्रकाश मात्र । बस इस सामान्य ज्ञानके अतिरिक्त जो कुछ भी है वह सब अन्त करणका समझें। भले हो आप इन दोनोको साक्षात् रूपसे पृथक् पृथक् करके न देख सकें परन्तु बुद्धि द्वारा उनका विश्लेषण किया जाना सम्भव है ।

ज्ञान-प्रकाश मात्रका अर्थ है ज्ञान ही ज्ञान। अर्थात् जानना मो ज्ञानरूप, दर्शन भी ज्ञानरूप, सुख भी ज्ञानरूप, वोयं तथा अनुभव भी ज्ञानरूप, रुचि भी ज्ञान रूप और भी जो कुछ हो वह सब ज्ञानरूप । अत कहा जा सकता है कि ज्ञान द्वारा ज्ञानमे ज्ञानको जानना चेतनका ज्ञान है, ज्ञान द्वारा ज्ञानमे ही प्रकाशका साक्षात् करना चेतनका दर्शन है, ज्ञान द्वारा ज्ञानमे ही स्थित रहना चेतनका निराकुल आनन्द है, ज्ञानकी स्थिति निष्कम्प बने रहना उसमे चचलता न होना यही चेतनका वीर्य है, ज्ञानके उस आनन्दका अनुभव करते रहना चेतनका अनुभव है और यह 'ज्ञान ही में हूँ तथा यही मुझे इष्ट है इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नही' ऐसी श्रद्धा व रुचि हो चेतनकी श्रद्वान व रुचि है । यदि ऐसा है अर्थात् सब कुछ ज्ञान ही है तो कथन मात्रको हो उसे ज्ञान दर्शन सुख आदि नामोसे कहा गया प्रतीत होता है। उसे तो अखण्ड ज्ञानप्रकाश मात्र हो कहना चाहिए या उसे केवल ज्ञान कहना चाहिए ।

यन्त करणसे छूटकर जब जीव मुक्त हो जाता है तब उसमे यह ज्ञानप्रकाश उपर्युक्त प्रकार हो साक्षात् रूपसे खिल उठता है, अर्थात् उस समय पूर्वोक्त भेद प्रभेदोमें से उसमे केवलज्ञान रूप अनन्त अलोकिक ज्ञान, केवलदर्शनरूप अनन्त निविकल्प विषया तीत दर्शन, ज्ञानानन्द रूप अनन्त अलौकिक सुख जानानन्दमे स्थिरतारूप अनन्त अलौकिक वीर्य तथा उस सम्बन्धी अनन्त अलौकिक अनुभव, श्रद्धा व रुचि प्रकट हो जाते हैं । इन्हे ही भगवान् के अनन्तचतुष्टय कहते हैं । ये कहने मात्रको ही पृथक्-पृथक् हैं, वास्तवमे सव ज्ञान मात्र हैं। इसीलिए इनके साथ 'केवल' विशेषण दिया गया है। ऐसा केवलज्ञान हो चेतनका गुण है। इसी बातको यो कह लीजिए कि निरावरण तथा स्वाभाविक सर्व गुण चेतनके है और शेष सब अन्त करणके हैं।

उस ज्ञानका स्वरूप ही क्योकि विश्वरूप है, इसलिए भले ही उसको विश्वका ज्ञाता या सर्वज्ञ कह लिया जाये, परन्तु वास्तवमें तो वह ज्ञानका ही ज्ञायक है, क्योकि जिस प्रकार हम बाहरमे इस विश्वको देखते हैं उस प्रकार भगवान् बाहरमे नही देखते । वे सदा सर्वत्र जो कुछ भी जानते तथा देखते हैं भीतर ही जानते देखते हैं। जिस प्रकार दर्पणको देखनेवाला दर्पणको ही देखता है, उन पदार्थोंको नहीं जिनके प्रतिबिम्ब कि उसमे पड़ रहे हैं, उसी प्रकार ज्ञानको देखनेवाला ज्ञानको ही देखता है, उन पदार्थोंको नही जिनके प्रतिबिम्ब कि उसमे पड़ रहे है। इसलिए उसे ज्ञानमात्र या केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि कहा गया है । केवल विशेषण लगाकर ज्ञान, दर्शन आदि कहो या ज्ञानमात्र कहो एक ही अर्थ है । वह मात्र प्रकाशरूप है, जो सव्यापक है, नित्य उद्योतरूप है, जिस प्रकार कि सूर्यका प्रकाश । यही व्यापक नित्य ज्ञानप्रकाश चेतनका गुण है।


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#3

२७. अन्त करण के गुण

मिली हुई वस्तुमे से एक वस्तु तथा उसके गुण निकाल लेनेपर जो शेष रह जाये वह सब उस दूसरी वस्तुका जानना चाहिए। अतः पूर्वमे कहे गये जीवके गुण तथा उनके सर्व भेद-प्रभेदोमे-से उपर्युक्त अलोकिक गुण निकाल लेनेपर शेष बचे सर्व लौकिक गुण अन्तःकरण के रह जाते हैं, यह बात स्पष्ट है। अतः ज्ञानके भेदोमे-से अलौकिक ज्ञान अर्थात् केवलज्ञानको छोड़कर दोष जो मति, श्रुत, अवधि व मन पर्यय ज्ञान हैं वे अन्त-करण के धर्म है चेतन के नहीं। इसी प्रकार दर्शनमें से अलौकिक दर्शन अर्थात् केवलदर्शन को छोड़कर शेष जो चक्षु, अचक्षु ओर अवधिदर्शन हैं वे अन्तः करणके धर्म हैं । अलौकिक ज्ञानानन्द रूप सुखको छोड़कर लौकिक जो विषयजनित बाह्य तथा भीतरका अर्थात् शारीरिक व मानसिक जितना भी सुख-दु ख है वह अन्त करणका धर्म है चेतनका नही । इसी प्रकार अन्तरगमे निष्कम्प अलौकिक स्थिति रूप वीर्यको छोड कर बाहर के विषयोमे मनका दौडते रहना रूप तथा उसमे उलझ उलझकर उनका स्वाद लेने रूप जितनी भी लौकिक मानसिक चचल वीर्य वृत्ति है, वह अन्त. करणका धर्म है, चेतनका नही । अन्तरंग अलौकिक अनुभवको छोड़कर बाहरके विषयो या पदार्थों का ही स्वाद लेना अर्थात् उनसे उत्पन्न सुख-दुखका ही रस लेना लौकिक अनुभव, श्रद्धा व रुचि है जो अन्त. करणके धर्म हैं चेतनके नही । समस्त कषाय अन्तःकरण के धर्म हैं ।

इसी बात को यो कह लीजिए कि जितने भी निरावरण तथा स्वाभाविक गुण हैं, वे चेतनके हे ओर सावरण तथा विकारी जितने भी गुण है वे अन्त करणके हैं।

अन्त. करणका भी यदि विश्लेषण करके इसे बुद्धि, चित्, अहं कार व मन इस प्रकार चार भागोमे विभक्त कर दिया जाये तो उनके पृथक्-पृथक् धर्मोका भी निर्णय किया जा सकता है। मति, श्रुत, अवधि, मन. पर्यय ये चारो सावरण ज्ञान तथा चक्षु, अचक्षु, अवधि ये तीनो सावरण दर्शन बुद्धिके धर्म है। नयोकि पदार्थ सम्बन्धी निश्चय करना बुद्धिका लक्षण है, और सभी ज्ञान तथा दर्शन भी कम पूर्वक अपने-अपने योग्य एक-एक पदार्थका आगे-पीछे निश्चय करानेमे समर्थ है। तर्क उत्पन्न हो जानेके पश्चात् उसके सम्बन्धमे जो विचारणा चला करती है वह श्रुतज्ञान है और वह चित्तका धर्म है ।

शरीर तथा बाह्य पदार्थोंमे, धन-कुटुम्ब आदिमे 'ये मेरे हैं तथा मुझे इष्ट हैं, इन सम्बन्धी ही सुख-दुःख मेरा है,' ऐसी जो प्राणी मात्रकी सामान्य लौकिक श्रद्धा है, और यही सुख किसी प्रकार मुझे प्राप्त करना चाहिए तथा इस दु.खसे बचना चाहिए' ऐसी जो प्राणी मात्रकी सामान्य लौकिक रुचि है, वे अहकारके धर्म हैं, क्योकि चेतनसे पृथक् अन्य पदार्थों की श्रद्धा व रुचि अहंकारका लक्षण है। यहाँ इतना जानना कि चेतनको ही अपना जानना तथा मानना और उसे हित रूपसे अंगीकार करना अहंकारका नही बुद्धिका काम है, विवेकका काम है।

पदार्थके सम्बन्धमे निर्णय करनेके लिए जो विचारणा होती है। वह यद्यपि बुद्धिका धर्म है परन्तु इसके सम्बन्ध में उठनेवाले अनेको तर्क-वितर्क मनके धर्म है, क्योकि सकल्प-विकल्प मनका लक्षण है। इन तर्क-वितर्कोंके अतिरिक्त जितने कुछ भी सकल्प-विकल्प के तथा ग्रहण त्यागके राग-द्वेषात्मक द्वन्द्व और कषाय भाव है वे सब मनके धर्म हैं क्योकि यदि मन कही अन्यत्र लगा हो तो दु ख सुखका अनुभव नही होता। इस प्रकार जीवके सर्व लौकिक धर्मोमे-से अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सुख, बीयं, अनुभव, श्रद्धा, रुचि तथा कषायोमें-से ज्ञान-दर्शन बुद्धिके, चिन्तनात्मक श्रुतज्ञान चित्तका, मुख-वीर्य अनुभव तथा कपाय मनके और श्रद्धा व रुचि अहकारके धर्म हैं ।

२८. शरीर के धर्म

पहले वताया जा चुका है कि सर्व ही ससारी जीव शरीर, मन्त करण व चेतन इन तीन पदार्थोंके मिश्रण से बने हुए हैं। अतः इन तीनोके पृथक्-पृथक् धर्म या गुण जानने आवश्यक है । इनमे से तीनोके मिश्रणरूप जीव-सामान्यके धर्म बता दिये गये। फिर उनके पृथक्-पृथक् धर्मोमे भी चेतन तथा अन्त. करणके धर्म बता दिये गये । अब शरीरके धर्म भी जानने चाहिए ।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है शरीर वास्तवमे जीव नही हे बल्कि अजीव है, क्योकि मृत्यु हो जानेपर इसमे से चेतन तथा अन्त करण ये दो निकल जाते हैं, तब जो कुछ शेष रह जाता है वही तीसरा पदार्थ यह शरीर है। यह स्पष्ट है कि वह अजीव है, क्योकि उस समय वह जान देख नही सकता । अजीव भी कई प्रकारके होते हैं जैसा कि आगे अजीवका परिचय देते हुए बताया जायेगा। उनमे से भी वह मूर्तिक अजीव है अर्थात् इन्द्रियोसे दिखाई देनेवाला है। यह कोई अखण्ड पदार्थ नही है क्योकि काटा तथा जोडा जा सकता है, इसलिए अनेक अखण्डित सूक्ष्म अजीव पदार्थों या परमाणुओंसे मिलकर बना है । अत शरीरमे परमाणु ही मूल तत्त्व है, शरीर स्वय कोई मूलभूत पदार्थ नही है ।

मूर्तिक तथा जुडने तुडनेको शक्तिवाले अजीव पदार्थका नाम पुद्गल है । उसमे स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण ये चार मुख्य गुण हैं। छूकर जो जाना जाये वह चिकना रूखा आदि स्पर्श गुण है, चख कर जो जाना जाये वह खट्टा मीठा आदि रस गुण है, सूंघकर जो जाना जाये ऐसे सुगन्ध व दुर्गन्ध गन्ध गुण है, ओर देखकर जो जाना जाये ऐसा काला-पीला रंग वर्ण नामका गुण है। यही शरीरके धर्म है । इनके अतिरिक्त इसका ओर कुछ महत्त्व नही है ।


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२६ जीव-विज्ञान जाननेका प्रयोजन

चेतन, अन्तःकरण तथा शरीर इनके पृथक्-पृथक् धर्म जान लेनेपर हमे विवेक करना चाहिए कि इन तीनोमे-से हम या हमारे कामका कौन-सा पदार्थ है । उसीका हमारे लिए महत्त्व तथा मूल्य होना चाहिए, अन्यका नही । वह पदार्थ क्योकि चेतन है अतः वही हम हैं और उसीका हमारी दृष्टिमे मूल्य होना चाहिए। अन्त करण यद्यपि चेतन सरीखा दीखता है, परन्तु वास्तवमे वह चेतन नही है, इसलिए उसका तथा उसके धर्मोका भी हमारी दृष्टिमे कोई महत्त्व नही होना चाहिए। शरीर तो है ही जड अत इसका कोई मूल्य नही है।

अन्त. करण तथा शरीरके बन्धन चेतनके लिए क्लेशकारी हैं, अत जिस प्रकार भी चेतनकी प्राप्ति हो अर्थात् वह इन दोनों के बन्धन से छूटे, वही कुछ करना मेरा परम तथा सर्वप्रमुख कर्तव्य है, वही धर्म है । यही अध्यात्मका उपदेश है ।

फिर भी जबतक गृहस्थ जीवनमे रहता हूँ तबतक शरीर तथा शरोरके मोगोका मूल्य गिनकर धन आदिमे अत्यन्त गृद्ध तथा स्वार्थी बनना मेरे लिए योग्य नहीं है । अपनेको तथा अन्य सभी प्राणियोके चेतनको जिससे शान्ति मिले वही कार्य करना मानवीय तथा सामाजिक कर्तव्य है, वही धर्म है। यही अध्यात्मका उपदेश है।


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