प्रवचनसारः गाथा -16,17 सर्वज्ञता एवं षट्कार्य की व्यवस्था , शुद्धोपयोग का फल
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित 
प्रवचनसार

गाथा -16
तह सो लद्धसहावो सव्वण्हू सव्वलोगपदिमहिदो। 
भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु ति णिद्दिट्टो // 16
//


अन्वयार्थ- (तध) इस प्रकार (सो आदा) वह आत्मा (लद्धसहाओ) स्वभाव को प्राप्त । (सवण्ह) सर्वज्ञ (सव्वलोगपदिमहिदो) और सर्व लोक के अधिपतियों से पूजित (सयमेव भूदो)। स्वयमेव हुआ होने से (सयंभु हवदि) स्वयंभू है, (त्ति णित्रिदो) ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।

आगे शुद्धोपयोगका फल जो केवलज्ञानमय शुद्धात्मका लाभ वह जिस समय इस आत्माको होता है, तब कर्ता-कर्मादि छह कारकरूप आप ही होता हुआ स्वाधीन होता है, और किसी दूसरे कारकको नहीं चाहता है, यह कहते हैं- 
[स आत्मा स्वयंभूः भवति इति निर्दिष्टः ] जैसे शुद्धोपयोगके प्रभावसे केवलज्ञानादि गुणोंको प्राप्त हुआ था, उसी प्रकार वही आत्मा 'स्वयंभू' नामवाला भी होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा हैं / तात्पर्य यह है, कि जो आत्मा केवलज्ञानादि स्वाभाविक गुणोंको प्राप्त हुआ हो, उसीका नाम स्वयंभू है। क्योंकि व्याकरणकी व्युत्पत्तिसे भी जो ‘स्वयं' अर्थात् आप ही से अर्थात् दूसरे द्रव्यकी सहायता विना ही ‘भवति' अर्थात् अपने स्वरूप होवे, इस कारण इसका नाम स्वयंभू कहा गया है, यह आत्मा अपने स्वरूपकी प्राप्तिके समय दूसरे कारककी इच्छा नहीं करता है / आप ही छह कारकरूप होकर अपनी सिद्धि करता है, क्योंकि आत्मामें अनंत शक्ति है, कैसा है वह [लब्धस्वभावः] प्राप्त किया है, घातिया कर्मोंके नाशसे अनंतज्ञानादि शक्तिरूप अपना स्वभाव जिसने / फिर कैसा है ? [सर्वज्ञः] तीन कालमें रहनेवाले सब पदार्थोंको जाननेवाला है। फिर कैसा है ? स्वयंभू आत्मा / [ सर्वलोकपतिमहितः] तीनों भुवनोंके स्वामी इन्द्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती इनकर पूजित है / फिर कैसा है ? स्वयमेव भूतः] अपने आप ही परकी सहायताके विना अपने शुद्धोपयोगके बलसे अनादि अविद्यासे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके बन्धों को तोड़कर निश्चयसे इस पदवीको प्राप्त हुआ है, अर्थात् सकल सुर, असुर, मनुष्योंके स्वामियोंसे पूज्य सर्वज्ञ वीतराग तीन लोकका स्वामी शुद्ध अपने स्वयंभूपदको प्राप्त हुआ है। 
अब षट्कारक दिखाते हैं-
कर्ता 1 कर्म 2 करण 3 संप्रदान 4 अपादान 5 अधिकरण 6 ये छह कारकोंके नाम हैं, और ये सब दो दो तरहके हैं, एक व्यवहार दूसरा निश्चय / उनमें जिस जगह परके निमित्तसे कार्यकी सिद्धि कीजाय, वहाँ व्यवहार षट्कारक होना है, और जिस जगह अपनेमें ही अपनेको उपादान कारण कर अपने कार्यकी सिद्धि कीजावे, वहाँ निश्चय षट्कारक हैं / व्यवहार छह कारक उपचार असद्भूतनयकर सिद्धि किये जाते हैं, इस कारण असत्य हैं, निश्चय छह कारक, अपनेमें ही जोड़े जाते हैं, इसलिये सत्य हैं / क्योंकि वास्तवमें कोई द्रव्य किसी द्रव्यका कर्ता व हर्ता नहीं है, इसलिये व्यवहारकारक असत्य है, अपनेको आप ही करता है, इस कारण निश्चयकारक सत्य है। जो स्वाधीन होकर करे, वह कर्ता, जो कार्य किया जावे, वह कर्म, जिसकर किया जावे, वह करण, जो कर्मकर दिया जावे वह संप्रदान, जो एक अवस्थाको छोड़ दूसरी अवस्थारूप होवे, वह अपादान, जिसके आधार कर्म होवे, वह अधिकरण कहा जाता है। अब दोनों कारकोंका दृष्टांत दिखलाते हैं। उनमें प्रथम व्यवहारकर इस तरह है-जैसे कुंभकार (कुम्हार) कर्ता है, घड़ारूप कार्यको करता है, इससे घट कर्म है, दंड चक्र चीवर (छोरा) आदिकर यह घट कर्म सिद्ध होता है, इसलिये दंड आदिक करण कारक हैं, जल वगैरःके भरनेके लिये घट दिया जाता है, इसलिये संप्रदानकारक है, मिट्टीकी पिंडरूपादि अवस्थाको छोड़ घट अवस्थाको प्राप्त होना अपादानकारक है, भूमिके आधार से घटकर्म किया जाता है, बनाया जाता है, इसलिये भूमि अधिकरणकारक समझना, इस प्रकार ये व्यवहार कारक हैं। क्योंकि इनमें कर्ता दूसरा है, कर्म अन्य है, करण अन्य ही द्रव्य है, दूसरे ही को देना दूसरेसे करना / आधार जुदा ही है / निश्चय छह कारक अपने आप ही में होते हैं, जैसे-मृत्तिकाद्रव्य (मट्टी) करता है, अपने घट परिणाम कर्मको करता है, इसलिये आप ही कर्म है, आप ही अपने घट परिणामको सिद्ध करता है, इसलिये स्वयं ही करण है, अपने घट परिणामको करके अपनेको ही सौंप देता है, इस कारण आप ही संप्रदान है / अपनी मृत्पिड अवस्थाको छोड़ अपनी घट अवस्थाको करता है, इसलिये आप ही अपादान है / अपनेमें ही अपने घटपरिणामको करता है, इसलिये आप ही अधिकरण है / इस तरह ये निश्चय षट्कारक हैं, क्योंकि किसी भी दूसरे द्रव्यकी सहायता नहीं है, इस कारण अपने आपमें ही ये निश्चयकारक साधे जाते हैं। इसी प्रकार यह आत्मा संसार अवस्थामें जब शुद्धोपयोगभावरूप परिणमन करता है, उस समय किसी दूसरेकी सहायता (मदद) न लेकर अपनी ही अनंत शुद्धचैतन्यशक्तिकर आप ही छह कारकरूप होके केवलज्ञानको पाता है, इसी अवस्थामें 'स्वयंभू' कहा जाता है। शुद्ध अनंतशक्ति तथा ज्ञायकस्वभाव होनेसे अपने आधीन होता हुआ यह आत्मा अपने शुद्ध ज्ञायकस्वभावको करता है, इसलिये आप ही कर्ता है, और जिस शुद्धज्ञायकस्वभावको करता है, वह आत्माका कर्म है, सो वह कर्म आप ही है, क्योंकि शुद्ध-अनंतशक्ति, ज्ञायक स्वभावकर अपने आपको ही प्राप्त होती है, वहाँ यह आत्मा ही 'कर्म' है, यह आत्मा अपने शुद्ध आत्मीक परिणामकर  स्वरूपको साधन करता है, वहाँ पर अपने अनंतज्ञानकर 'करणकारक' होता है, यह आत्मा अपने शुद्ध परिणामोंको करता हुआ अपनेको ही देता है, उस अवस्थामें शुद्ध अनंतशक्ति ज्ञायकस्वभाव कर्मकर आपको ही स्वीकार करता हुआ 'संप्रदानकारक होता है, यह आत्मा जब शुद्ध स्वरूपको पाप्त होता है, उस समय इस आत्माके सांसारीक अशुद्ध-क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानका नाश होता है, उसी अवस्थामें अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वभावकर स्थिरपनेको धारण करता है, तब ‘अपादानकारक' होता है / यह आत्मा जब अपने शुद्धअनंतशक्ति ज्ञायकस्वभावका आधार है, उस दशामें 'अधिकरणकारक'को स्वीकार करता है / इस प्रकार यह आत्मा आप ही षट्कारकरूप होकर अपने शुद्धस्वरूपको उत्पन्न (प्रगट) करता है, तभी स्वयंभू पदवीको पाता है / अथवा अनादिकालसे बहुत मजबूत बँधे हुए धातियाकर्मीको (ज्ञानावरण 1 दर्शनावरण 2 मोहनीय 3 अन्तराय 4) नाश करके आप ही प्रगट हुआ है, दूसरेकी सहायता कुछ भी नहीं ली, इस कारण स्वयंभू कहा जाता है, यहाँ पर कोई प्रश्न करे, कि परकी सहायतासे स्वरूपकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ? उसका समाधान—कि जो यह आत्मा पराधीन होवे, तो आकुलता सहित होजाय, और जिस जगह आकुलता है, वहाँ स्वरूपकी प्राप्ति नहीं, इस कारण परकी सहायता विना ही आत्मा निराकुल होता है, इसी दशा में अपनी सहायतासे आपको पाता है। इसलिये निश्चय करके आप ही षट्कारक है / जो अपनी अनंतशक्तिरूप संपदासे परिपूर्ण है, तो वह दूसरेकी इच्छा क्यों रक्खे ? अर्थात् कभी नहीं // 16 //

गाथा -17

भंगविहीणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि।
विजदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवायो // 17 //


अन्वयार्थ-(भंगविहूणो य भवो) उस (शद्धात्म स्वभाव को प्राप्त आत्मा के) विनाश रहित उत्पाद है, और (संभवपरिवज्जिदो विणासो हि) उत्पाद रहित विनाश है, (तस्सेव पुणो) उसके ही फिर (ठिदि-संभवणाससमवाओ विज्जदि) ध्रौव्य, उत्पाद और विनाश का समभाव (एकत्रित समूह) विद्यमान है।
आगे इस स्वयंभू प्रभूके शुद्धस्वभावको नित्य दिखलाते हैं, और किसीप्रकारसे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य अवस्था भी दिखलाते हैं-[तस्य आत्मनः भंगविहीन: भवः विद्यते ] जो आत्मा शुद्धोपयोगके प्रसादसे स्वरूपको प्राप्त हुआ है, उस आत्माके नाशरहित उत्पाद है। अर्थात् जो इस आत्माके शुद्धस्वभावकी उत्पत्ति हुई, फिर उसका नाश कभी नहीं होता [च संभवपरिवजितः विनाशः] और विनाश है, वह उत्पत्तिकर रहित है, अर्थात् अनादिकालकी अविद्या (अज्ञान) से पैदा हुआ जो विभाव (अशुद्ध) परिणाम उसका एकबार नाश हुआ, फिर वह नहीं उत्पन्न होता है, इससे तात्पर्य यह निकला, कि जो इस भगवान् (ज्ञानवान् ) आत्माके उत्पाद है, वह विनाश रहित हैं, और विनाश उत्पत्ति रहित है, तथा अपने सिद्धिस्वरूपकर ध्रुव (नित्य) है, अर्थात् जो यह आत्मा पहले अशुद्ध हालतमें था, वही आत्मा अब शुद्धदशामें मौजूद है, इस कारण ध्रुव है। [तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः] फिर उसी आत्मा के ध्रौव्य उत्पत्ति नाश इन तीनोंका मिलाप एक ही समयमें मौजूद है, क्योंकि यह भगवान् एक ही वक्त तीनों स्वरूप परिणमता है, अर्थात् जिस समय शुद्ध पर्यायकी उत्पत्ति है, उसी वक्त अशुद्ध प्रर्यायका नाश है, और उसी कालमें द्रव्यपनेसे ध्रुव है, दूसरे समयकी जरूरत ही नहीं है, यह कहनेसे यह अभिप्राय हुआ, कि द्रव्यार्थिकनयसे आत्मा नित्य होनेपर भी पर्यायार्थिकनयसे उत्पत्ति, विनाश, ध्रौव्य, इन तीनों सहित ही है |

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
गाथा संख्या 16- सर्वज्ञता एवं षट्कार्य की व्यवस्था 
मुनि श्री इस गाथा संख्या 16 के माध्यम से समझा रहे हैं कि सर्वज्ञ वह होता है जिसने अपने स्वभाव को प्राप्त कर लिया है ।
वह सर्व लोक के अधिपति बन जाते हैं।
इस गाथा में भगवान की षट्कार्य की क्रिया मुनि श्री निश्चय नय और व्यवहार नय से समझा रहे हैं ।
पूज्य श्री कहते हैं कि मोक्षमार्ग के लिए जब तक निश्चय नहि प्राप्त होता तब तक व्यवहार ही उपादेय है-
१. व्यवहार मोक्षमार्ग                                           
२. निश्चय मोक्षमार्ग                                           
३. केवलज्ञान  लेकिन वास्तव में निश्चय ही मोक्षमार्ग है । 

गाथा संख्या 17- शुद्ध द्रव्य का स्वरूप  मुनि श्री इस गाथा के माध्यम से बताते हैं कि ऐसा आत्मा जो स्वयंभू बन गया है, वह विनाश से विहीन होता है। उनकी वह पर्याय, वह अनंत सुख और ज्ञान कभी नष्ट नहि होती। अब वे उस शुद्ध आत्मा में ही शुद्ध रूप से परिणमन कर रहे हैं।



Manish Jain Luhadia 
B.Arch (hons.), M.Plan
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#2

Pravacanasāra 
Gatha-16

Lord Jina has expounded that the soul that attains its pure own nature (svabhāva) knows all objects of the three worlds and the three times. It is all-knowing (sarvajña), worshipped by the lords of the three worlds, and self-dependent. Such soul is called ‘svayambhū’.

Explanatory Note: 
The soul established in its Pure Self (through śuddhopayoga) attains omniscience (kevalajñāna) without the help of, or reliance on, any outside agency. Such a soul is
appropriately termed the ‘self-dependent’ or svayambhū.

Factors-of-action (kāraka) are of six kinds: 1) the doer (kartā), 2) the activity (karma), 3) the instrument (karana), 4) the bestowal
(sampradāna), 5) the dislodgement (apādāna), and the
substratum (adhikarana). 
Each of these is of two kinds: empirical six fold factors-of-action (vyavahāra satkāraka) and transcendental six fold factors-of-action (niścaya satkāraka).  
When the accomplishment of work is through external instrumental causes (nimitta kārana) it is the empirical six fold factors-of-action (vyavahāra satkāraka) and when the accomplishment of work is for the self, in the self, through the self as the material cause (upādāna kārana), it is the transcendental six fold factors-of-action (niścaya satkāraka). The empirical sixfold factors-of-action (vyavahāra satkāraka) is based on what is called upacāra asadbhūta naya and, therefore, untrue; the transcendental six fold factors-of-action (niścaya satkāraka) is based on the self and, therefore, true. Since every substance (dravya) is independent and is not a cause of either the creation or the destruction of other substances, the empirical six fold factors-of-action (vyavahāra satkāraka) is untrue. And since the transcendental sixfold factorsof-
action (niścaya satkāraka) accomplishes the work of the self, in the self, through the self, it is true.
An illustration of the empirical six fold factors-of-action (vyavahāra satkāraka) is as under: 
  1. the independent performer of the activity, the potter, is the doer (kartā); 
  2. the work that is being performed, the making of the pot, is the activity (karma); 
  3. the tool used for the performance of the action – the wheel – is the instrument (karana);
  4. the end-use of the work performed – the storage vessel – is the bestowal (sampradāna); 
  5. the change of mode from one state to the other, from clay to pot, is the dislodgement (apādāna); 
  6. the bedrock of activity, the clay, is the substratum (adhikarana). 

In this case, the doer (kartā), the activity (karma), the instrument (karana), the bestowal (sampradāna), the dislodgement (apādāna), and the substratum (adhikarana) are different entities and, therefore, the empirical six fold factors-of action
(vyavahāra satkāraka) is established only from the empirical-point-of-view (vyavahāranaya) and not true. 

The transcendental six fold factors-of-action (niścaya satkāraka) takes place in the self and, therefore, true. The soul established in its Pure Self (through śuddhopayoga) attains
omniscience (kevalajñāna) without the help of or reliance on any outside agency (such a soul is appropriately termed self-dependent  or svayambhū). 
Intrinsically possessed of infinite knowledge and energy, the soul, depending on the self, performs the activity of attaining its infinite knowledge-character and, therefore, 
  1. The soul is the doer (kartā). 
  2. The soul’s concentration on its own knowledge character is the activity; the soul, therefore, is the activity (karma). 
  3. Through its own knowledge-character the soul attains omniscience and, therefore, the soul is the instrument (karana).
  4. The soul engrossed in pure consciousness imparts pure consciousness to self; the soul, therefore, is the bestowal (sampradāna). 
  5. As the soul gets established in its pure nature at the same time destruction of impure substantial knowledge etc. takes place and, therefore, the soul is the dislodgement (apādāna). 
  6. The attributes of infinite knowledge and energy are manifested in the soul itself; the soul, therefore, is the substratum (adhikarana).

This way, from the transcendental point of view, the soul itself, without the help of others, is the six fold factors-of-action (niścaya satkāraka) in the attainment of omniscience through pure cognition (śuddhopayoga). Here, one may question why the soul does not attain its own nature (svabhāva) with help from others. The soul that is dependent on others is subject to disturbance and disturbance is against the nature of the soul; only the self-dependent soul is
without disturbance and capable of achieving its own-nature (svabhāva). The soul itself, without the help of others, is the six fold factors-of-action (niścaya satkāraka); when the soul itself is equipped with the wealth of infinite strength, there is no reason why it should rely on others for help.

Gatha17

The soul that has attained its own-nature (svabhāva) through pure-cognition (śuddhopayoga) experiences origination (utpāda) of its own-nature (svabhāva) that is without destruction (vyaya or nāśa), and destruction (vyaya or nāśa) of the earlier impure state that is without origination (utpāda). In addition, there is inseparable amalgamation of permanence
(dhrauvya) of its own-nature (svabhāva), origination (utpāda) of
the state of pure-cognition (śuddhopayoga), and destruction
(vyaya) of the earlier impure state.

Explanatory Note: 
Once the impure state of the soul, its unnatural modification, gets to destruction (vyaya) through pure cognition (śuddhopayoga), it does not again get to origination
(utpāda). The state of pure own-nature (svabhāva) of the soul has permanence (dhrauvya). Like for any substance, origination (utpāda), destruction (vyaya), and permanence (dhrauvya) take place in the soul at the same time. Though the soul is permanent (dhruva) from the standpoint-of-substance (dravyārthikanaya), from the standpoint-of-mode (paryāyārthikanaya) it is characterized by origination (utpāda), destruction (vyaya), and permanence (dhrauvya).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -15,16
निज विशुद्ध उपयोगद्वारा घातिकर्म जो हनता है
ज्ञेयभूत सम्पूर्ण वस्तुके पारङ्गत वह बनता है
यो लब्धस्वभाव होनेसे स्वयम्भू च सर्वज्ञ भया
सर्वलोकपतियोंसे पूजित होता है परमात्मतया ॥ ८ ॥


गाथा -17,18
भङ्गहीन उत्पाद और उत्पादहीन हो नाश जहाँ
किन्तुत्पत्ति विनाश स्थिति समवाय सहित सद्भाव वहां
पहिली पर्यय विष्ट होकर उत्तर पर्यय होती है
सब चीजोंमें किन्तु चीज सद्भूतपने जोती है


गाथा -15,16
सारांश:-जब यह जीव अशुभसे शुभोपयोग पर आता है तब गुरुमुखसे तत्वोंका स्वरूप सुनकर ठीक ठीक श्रद्धान करता है। फिर शम और दम के  द्वारा विशुद्धसे विशुद्धतरके रूपमें परिणत होनेवाले अपने परिणामोंको प्राप्त करता है और अपने अन्तरङ्गको क्षुब्धताको भी जीतकर चित्तको स्थिरतासे पूर्ण वीतराग होता हुआ अपने ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायको भी दूर हटाकर साक्षात् सर्वज्ञ हो जाता है। एवं संसारी जीवोंके लिये परमाराध्य बन जाता है। जिसे परमात्मा, भगवान्, स्वयम्भू परमेष्ठी और अरहन्तादि नामोंसे पुकारते हुए स्मरण किया जाता है। इस प्रकार वह संसारमुक्त हो जानेके बादमें, फिर संसारी कभी भी नहीं होता है |

गाथा -17,18
सारांश:- जिस शुद्ध अवस्थाकी प्राप्ति हुई है उसका अब कभी भी अभाव नहीं होगा। और जिस अशुद्ध दशाका अभाव कर दिया गया है उसका फिर कभी सद्भाव नहीं होगा।
ऐसा होते हुये भी इस परम विशुद्ध आत्मामें - द्रव्यका असाधारण लक्षण जो उत्पाद, व्यय और धाव्ययुक्तता है उसका अभाव नहीं होता है। क्योंकि ऐसा होने पर तो आत्माका अस्तित्व ही नहीं रहता है अत: ऐसा कभी नहीं हो सकता है। प्रत्युत हरएक द्रव्य अपनी पूर्व पर्यायका उल्लंघन करके तदुत्तर पर्याय के रूपमें परिणत होता रहता है। यह परिणमन दो प्रकारका होता है। एक विलक्षणतासे और दूसरा स्वलक्षणतासे। जैसे आम हरे से पीला हो जाया करता हैं, यह विलक्षण परिणमन हुआ। एवं कोई भी चीज वैसीकी वैसी होकर भी हमें नईसे पुरानी प्रतीत होने लगती है यह स्वलक्षण परिणमन हुआ।

सूर्यका प्रतिविम्ब जिसे हम लोग नित्य देखा करते हैं बहुत पुराना है फिर भी हमको वैसा ही प्रतीत होता है। किन्तु उसमें अपने आपमें परिणमन अवश्य होता है। स्पष्ट रूपमें जाड़ेके दिनोंमें उसके घाममें मंदपना और गरमीके दिनोंमें उसमें तेजी दीख पड़ती है। निरन्तर उसमेंसे किरणें प्रगट होती रहती हैं। फिर भी सूर्यबिम्ब सदासे ऐसा ही है जैसा कि आज दीख रहा है और आगे भी ऐसा ही रहेगा। इसीप्रकार शुद्धात्मा भी अब शुद्ध हो रहेगा। उसमें उसके अगुरुलघु गुणको अपेक्षासे निरन्तर परिवर्तन होते हुए भी वह किसी दूसरे रूपमें कभी भी नहीं बदलता है। जैसे कि पहिले अशुद्ध दशामें नरसे नारकी और नारकीसे पशु तथा देव वगैरह होजाया करता था। ऐसे इस घातिकर्महर्त्ता भगवान्‌का जो लोग स्मरण करते हैं उनके भी दुख: दूर हो जाया करते हैं, यही बताते हैं
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