प्रवचनसारः गाथा -18 पदार्थ की पर्याय का उत्पाद और व्यय
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित 
प्रवचनसार

गाथा -16
उप्पादो य विणासो विजदि सव्वस्स अट्ठजादस्स / 
पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सब्भूदो // 18 //


अन्वयार्थ- (उप्पादो) किसी पर्याय से उत्पाद (विणासो य) और किसी पर्याय से विनाश (सव्वस्स) सर्व (अट्ठजादस्स) पदार्थ मात्र के (विज्जदि) होता है, (केणवि पज्जायेण दु) और किसी पर्याय से (अट्ठो) पदार्थ (खलु होदि सब्भूदो) वास्तव में ध्रुव है


आगे उत्पाद आदिक द्रव्यका स्वरूप है, इस कारण सब द्रव्योंमें है, तो फिर आत्मामें भी अवश्य हैं, यह कहते हैं। [केनापि] किसी एक [पर्यायेण] पर्यायसे [सर्वस्य अर्थजातस्य] सब पदार्थोकी [उत्पादः] उत्पत्ति [च विनाशः] तथा नाश [विद्यते ] मौजूद है, [तु] लेकिन [खल] निश्चयसे [अर्थः ] पदार्थ [सद्भुतः] सत्तास्वरूप [भवति ] है। भावार्थ-पदार्थका अस्तित्व (होना) सत्तागुणसे है, और सत्ता, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यस्वरूप है, सो किसी पर्यायसे उत्पाद तथा किसी पर्यायसे विनाश और किसी पर्यायसे ध्रुवपना सब पदार्थोंमें हैं / जब सब पदार्थोंमें तीनों अवस्था हैं, तब आत्मामें भी अवश्य होना सम्भव है। जैसे सोना कुंडल पर्यायसे उत्पन्न होता है, पहली कंकण (कड़ा) पर्यायसे विनाशको पाता है, और पीत, गुरु, तथा स्निग्ध (चिकने) आदिक गुणोंसे ध्रुव है, इसी प्रकार यह जीव भी संसारअस्वथामें देव आदि पर्यायकर उत्पन्न होता है, मनुष्य आदिक पर्यायसे विनाश पाता है, और जीवपनेसे स्थिर है / मोक्ष अवस्थामें भी शुद्धपनेसे उत्पन्न होता है, अशुद्ध पर्यायसे विनाशको प्राप्त होता है, और द्रव्यपनेसे ध्रुव है / अथवा आत्मा सब पदार्थोंको जानता है, ज्ञान है, वह ज्ञेय (पदार्थ) के आकार होता है, इसलिये सब पदार्थ जैसे जैसे उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप होते हैं, वैसे वैसे ज्ञान भी होता है, इस ज्ञानकी अपेक्षा भी आत्मा के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य जान लेना, तथा षटगुणी हानि वृद्धिकी अपेक्षा भी उत्पाद आदिक तीन आत्मामें हैं। इसी प्रकार और बाकी द्रव्योंमें उत्पाद आदि सिद्ध कर लेना / यहाँ पर किसीने प्रश्न किया, कि द्रव्यका अस्तित्व (मौजूद होना) उत्पाद वगैरः तीनसे क्यों कहा है ? एक ध्रुव ही से कहना चाहिये, क्योंकि जो ध्रुव (स्थिर) होगा, वह सदा मौजूद रह सकता है ? इसका समाधान इस तरह है—जो पदार्थ ध्रुव ही होता, तब मट्टी सोना दूध आदि सब पदार्थ अपने सादा आकारसे ही रहते, घड़ा, कुंडल, दही वगैरः भेद कभी नहीं होते, परंतु ऐसा देखनेमें नहीं आता / भेद तो अवश्य देखनेमें आता है, इस कारण पदार्थ अवस्थाकर उपजता भी है, और नाश भी पाता है, इसी लिये द्रव्यका स्वरूप उत्पाद, व्यय भी है / अगर ऐसा न माना जावे, तो संसारका ही लोप होजावे, इसलिये यह बात सिद्ध हुई, कि पर्याससे उत्पाद तथा व्यय सिद्ध होते हैं, और द्रव्यपनेसे ध्रुव सिद्ध होता है, इन तीनोंसे ही द्रव्यका अस्तित्व (मौजूदगी) है


मुनि श्री प्रणम्य सागर जी

पूज्य मुनि श्री इस गाथा संख्या 18 की वाचना से आप जानेंगे कि
* पदार्थ क्या होता है ?
* पदार्थ की पर्याय किसे कहते हैं ?
* क्या पदार्थ उत्पन्न और नष्ट होता है ?
* जीवत्व भाव से जीव द्रव्य का जब परिणमन चलता है तो उसे पारिणामिक भाव कहते हैं।
* संसार अवस्था के लिए 5 प्राण और शरीर की आवश्यकता होती है , पर सिद्ध भगवान बिना प्राण के केवल जीवत्व भाव के साथ रहते हैं ।
* क्या द्रव्य के बिना पर्याय हो सकती है ?
* क्या पर्याय अशुद्ध होने से द्रव्य अशुद्ध होता है ?

पूज्य श्री कहते हैं कि द्रव्य,गुण,पर्याय समझने का एक ही प्रयोजन है कि जब हम पर्याय से छूटें तो हमें दुःख नहि होना चाहिए। द्रव्य तो हमारा वैसा ही बना रहता है।


Manish Jain Luhadia 
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#2

All substances, from the standpoint-of-mode (paryāyārthikanaya), are characterized by origination (utpāda) and destruction (vyaya). Verily, all objects are characterized by existence (sat).

Explanatory Note:
 Existence (being or sat) is the differentia of the substance (dravya) and existence is characterized by origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhrauvya). While the substance (dravya) never leaves its essential character of existence (sat), it undergoes origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhrauvya). Origination (utpāda), destruction (vyaya) and permanence (dhrauvya) are simultaneous and interdependent and are not possible without the substance. Origination (utpāda) of the new mode (paryāya) cannot take place without destruction of the old mode, the old mode cannot get destroyed without origination of the new mode, origination and destruction cannot take place in the absence of permanence, and permanence is not possible without origination and destruction. On production of an earring out of a bracelet, there is destruction (vyaya) of the old mode (bracelet) of gold, origination (utpāda) of the new mode (earring) of gold, and permanence (dhrauvya) of gold (the substance – dravya), with its integral qualities, like yellowness and heavyness. 
In its worldly state, the soul witnesses origination (utpāda) of the new mode of a celestial being on destruction (vyaya) of the old mode of human being, and permanence (dhrauvya) of the soul-substance (jīvadravya), with its integral qualities, like consciousness (cetanā) and cognition (upayoga). When the soul attains liberation, it witnesses origination (utpāda) of the new mode of pure-cognition (śuddhopayoga), destruction (vyaya) of the old mode of impure-cognition (aśuddhopayoga), and permanence (dhrauvya) of the soul-substance (jīvadravya) with its integral qualities, like consciousness (cetanā) and cognition (upayoga).
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -17,18 हिन्दी पद्यानुवाद 
भङ्गहीन उत्पाद और उत्पादहीन हो नाश जहाँ
किन्तुत्पत्ति विनाश स्थिति समवाय सहित सद्भाव वहां
पहिली पर्यय विष्ट होकर उत्तर पर्यय होती है
सब चीजोंमें किन्तु चीज सद्भूतपने जोती है


गाथा -17,18
सारांश:- जिस शुद्ध अवस्थाकी प्राप्ति हुई है उसका अब कभी भी अभाव नहीं होगा। और जिस अशुद्ध दशाका अभाव कर दिया गया है उसका फिर कभी सद्भाव नहीं होगा।
ऐसा होते हुये भी इस परम विशुद्ध आत्मामें - द्रव्यका असाधारण लक्षण जो उत्पाद, व्यय और धाव्ययुक्तता है उसका अभाव नहीं होता है। क्योंकि ऐसा होने पर तो आत्माका अस्तित्व ही नहीं रहता है अत: ऐसा कभी नहीं हो सकता है। प्रत्युत हरएक द्रव्य अपनी पूर्व पर्यायका उल्लंघन करके तदुत्तर पर्याय के रूपमें परिणत होता रहता है। यह परिणमन दो प्रकारका होता है। एक विलक्षणतासे और दूसरा स्वलक्षणतासे। जैसे आम हरे से पीला हो जाया करता हैं, यह विलक्षण परिणमन हुआ। एवं कोई भी चीज वैसीकी वैसी होकर भी हमें नईसे पुरानी प्रतीत होने लगती है यह स्वलक्षण परिणमन हुआ।

सूर्यका प्रतिविम्ब जिसे हम लोग नित्य देखा करते हैं बहुत पुराना है फिर भी हमको वैसा ही प्रतीत होता है। किन्तु उसमें अपने आपमें परिणमन अवश्य होता है। स्पष्ट रूपमें जाड़ेके दिनोंमें उसके घाममें मंदपना और गरमीके दिनोंमें उसमें तेजी दीख पड़ती है। निरन्तर उसमेंसे किरणें प्रगट होती रहती हैं। फिर भी सूर्यबिम्ब सदासे ऐसा ही है जैसा कि आज दीख रहा है और आगे भी ऐसा ही रहेगा। इसीप्रकार शुद्धात्मा भी अब शुद्ध हो रहेगा। उसमें उसके अगुरुलघु गुणको अपेक्षासे निरन्तर परिवर्तन होते हुए भी वह किसी दूसरे रूपमें कभी भी नहीं बदलता है। जैसे कि पहिले अशुद्ध दशामें नरसे नारकी और नारकीसे पशु तथा देव वगैरह होजाया करता था। ऐसे इस घातिकर्महर्त्ता भगवान्‌का जो लोग स्मरण करते हैं उनके भी दुख: दूर हो जाया करते हैं, यही बताते हैं
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