प्रवचनसारः गाथा -30, 31 ज्ञेय पदार्थो मे ज्ञान प्रवर्तता
#1

श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः प्रवचनसारः
आचार्य कुन्दकुन्द विरचित
प्रवचनसार

गाथा -30 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -31 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )



रयणमिह इंदणीलं दुद्धज्झसियं जहा सभासाए /
अभिभूय तं पि दुद्धं वदि तह णाणमत्थेसु // 30 //

अन्वयार्थ- (जधा) जैसे (इह) इस जगत् में (दुद्धसुसिदं) दूध में पड़ा हुआ (इंदणीलं रयणमिह) इन्द्रनील रत्न सभासाए) अपनी प्रभा के द्वारा (तं पि दुद्धं) उस दूध में (अभिभूय) व्याप्त होकर (वट्टदि) वर्तता है, (तदा उसी प्रकार (णाणं) ज्ञान अड्डेसु) पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है।

आगे व्यवहारसे आत्मा ज्ञेयपदार्थों में प्रवेश करता है, यह बात दृष्टान्तसे फिर पुष्ट करते हैं -
[इह] इस लोकमें [यथा] जैसे [दुग्धाध्युषितं] दूधमें डुबाया हुआ [इंद्रनीलं रत्नं] प्रधान नीलमणि [स्वभासा] अपनी दीप्तिसे [तत् दुग्धं] उस दूधको [अपि] भी [अभिभूय] दूर करके अर्थात् अपनासा नीलवर्ण करके [वर्तते] वर्तता है। [तथा] उसी प्रकार [अर्थेषु] ज्ञेयपदार्थोमें [ज्ञानं] केवलज्ञान प्रवर्तता है / भावार्थ-यदि दूधसे भरे हुए किसी एक वर्तनमें प्रधान नीला रत्न डाल दें, तो उस वर्तनका सब दूध नीलवर्ण दिखलाई देगा। क्योंकि उस नीलमणिमें ऐसी एक शक्ति है, कि जिसकी प्रभासे वह सारे दूधको नीला कर देता है / इस क्रियामें यद्यपि निश्चयसे नीलमणि आपमें ही है, परन्तु प्रकाशकी विचित्रताके कारण व्यवहारनयसे उसको सब दूधमें व्याप्त कहते हैं / ठीक ऐसी ही ज्ञान और ज्ञेयों (पदार्थों) की दशा (हालत) है, अर्थात् निश्चयनयसे ज्ञान आत्मामें ही है, परन्तु व्यवहारनयसे ज्ञेयमें भी कहते हैं। जैसे दर्पणमें घटपटादि पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, और दर्पण अपनी स्वच्छतारूप शक्तिसे उन पदार्थोके आकार होजाता है, उसी प्रकार ज्ञानमें पदार्थ झलकते हैं, और अपनी स्वच्छतारूप ज्ञायकशक्तिसे वह ज्ञेयाकार होजाता है, अतएव व्यवहारसे ज्ञान पदार्थोंमें है, ऐसा कहते हैं |

गाथा -31 (आचार्य अमृतचंद की टीका अनुसार)
गाथा -32 (आचार्य जयसेन की टीका अनुसार )


जदि ते ण संति अट्ठा णाणे गाणं ण होदि सव्वगयं /
सव्वगयं वा णाणं कहं ण णाणट्ठिया अट्ठा // 31 //

अन्वयार्थ- (जदि) यदि ते अट्ठा वे पदार्थ (णाणे ण संति ज्ञान में न हों तो णाणं) ज्ञान (सव्वगयं) सर्वगत (ण होदि) नहीं हो सकता, (वा) और यदि (णाणं सव्वगदं) ज्ञान सर्वगत है तो अट्ठा) पदार्थ (णाणट्टिदा) ज्ञान स्थित कहं ण) कैसे नहीं है?

आगे जैसे ज्ञेयमें ज्ञान है, वैसे ही व्यवहारसे ज्ञानमें ज्ञेय (पदार्थ) है, ऐसा कहते हैं- [यदि] जो [ते अर्थाः] वे ज्ञेयपदार्थ [ज्ञाने] केवलज्ञानमें [न सन्ति ] नहीं होवें, [तदा] तो [सर्वगतं ज्ञानं] सब पदार्थोंमें प्राप्त होनेवाला ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान ही [न भवति ] नहीं होवे, और [वा] जो [सर्वगतं ज्ञानं] केवलज्ञान है, ऐसा मानो, तो [अर्थाः] पदार्थ [ज्ञानस्थिताः] ज्ञानमें स्थित हैं, (मौजूद हैं) ऐसा [कथं न] क्यों न होवे ? अवश्य ही होवे / भावार्थ-यदि ज्ञानमें सब ज्ञेयोंके आकार 'दर्पणमें प्रतिबिम्बकी तरह' नहीं प्रतिभासें, तो ज्ञान सर्वगत ही नहीं ठहरे, क्योंकि जब आरसीमें स्वच्छपना हैं, तब घटपटादि पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं, उसी समय आरसी भी सबके आकार होजाती है / इसी प्रकार ज्ञान ज्ञेयको तब जानता है, जब अपनी ज्ञायकशक्तिसे सब पदार्थोंके आकार होजाता है, ओर जब सब पदार्थोके आकार हुआ, तो सब पदार्थ इस ज्ञानमें स्थित क्यों न कहे जायेंगे ? व्यवहारसे अवश्य ही कहे जायेंगे / इससे यह सिद्ध हुआ, कि ज्ञान और पदार्थ दोनों ही एक दूसरेमें मौजूद हैं |

मुनि श्री प्रणम्य सागर जी
इस वीडियो में हम ज्ञेय पदार्थो के ज्ञान के बारे में समझेंगे

30 जैसे इंद्रनील रत्न जो कि दूध में डाला गया हैं,, वह अपनी प्रभा के भार से दुग्ध की प्रभा को दबाकर पूरे दूध को नीला कर देता हैं, ऐसा संसार मे देखा जाता हैं, वैसे ही ज्ञान भी पदार्थो में उनकी प्रकाशरूपता को दबा कर अपने ज्ञानप्रकाश के द्वारा उन पदार्थो को व्याप्त करके प्रकाशक भाव से उनमें रहता हैं।

31 यदि वे लोक आलोक के विभाग से विभाजित सभी पदार्थ ज्ञान में अपने आकार रूप से नहीं पहुंचते हैं तो फिर ज्ञान सर्वगत अर्थात सर्व पदार्थों को जानने वाला है ऐसा नहीं होगा। यदि आप ज्ञान को सर्वगत मानते हैं तो फिर ज्ञान में पदार्थ स्थित है ऐसा क्यों नहीं मानते? क्योंकि ज्ञेयों के आकार का पूर्ण रूप से अनुकरण किए बिना ज्ञान सर्व गत हो नहीं सकता। ज्ञान तदाकार हो परिणित होता है इससे सिद्ध होता है कि ज्ञान में पदार्थ स्थित है।अमूर्त, चैतन्य ज्ञान में मूर्तिक जड़ पदार्थों से रहित पदार्थों के आकार का प्रतिबिम्बन विरोध को प्राप्त होने से उनका प्रतिबिम्बन नहीं होता है किंतु आकार वाले पदार्थों का ही अनुकरण होता है।


Manish Jain Luhadia 
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#2

Gatha 30
As the sapphire immersed in milk imparts its blue luster to the whole of milk, in the same way, empirically, sense-independent knowledge – atīndriya jñāna – inheres in the objects-of knowledge (jñeya).

Explanatory Note:
The sapphire immersed in the milk, due to its special characteristic, imparts its blue lustre to the whole of milk, similarly, omniscience (kevalajñāna) – the sense-independent, infinite knowledge – due to its special potency, inheres in the objects-of-knowledge (jñeya). From the transcendental-point-of view (niscayanaya), knowledge inheres only in the soul, but empirically, it inheres in the objects-of-knowledge (jñeya). The mirror, due to its particular characteristic, reflects the objects; empirically, the objects have the power of relection. Similarly, the sense-independent, infinite knowledge has the power to know all objects-of-knowledge (jñeya); empirically, knowledge inheres in all objects-of-knowledge (jñeya).

Gatha-31
If not all objects-of-knowledge (jñeya) inhere in omniscience (kevalajñāna), then omniscience cannot be all-pervasive (sarvagata). If omniscience is all-pervasive why would all
objects-of-knowledge (jñeya) not inhere in it?

Explanatory Note: 
If omniscience (kevalajñāna) is not able to reflect all objects-of-knowledge (jñeya), like the mirror, it cannot be all-pervasive (sarvagata). The mirror, due to its inherent nature, becomes the object of reflection; similarly, knowledge, due to its nature of knowing, inheres in the object-of-knowledge (jñeya). Why would then the object-of-knowledge (jñeya) not called, empirically, as having knowledge? This establishes that the knowledge (jñāna) and the object-of-knowledge (jñeya) inhere in each other, empirically.
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#3

आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कृत हिन्दी पद्यानुवाद एवं सारांश

गाथा -29,30
ज्ञान काचको ज्यों निर्मलतासे सब जग को गहता है ।
ज्ञेयोंमें न समा करके भी तदाकार हो रहता है |
दुग्धभाण्डमें नीलमको यदि डाल दिया वह निज भा से ।
सभी दूधको नीला करदे त्यों जगको ज्ञान प्रकासे ॥ १५ ॥


गाथा -31,32
यदि कहो कि न तदाकारतया भी बोधमें वस्तु वसे ।
तो फिर कैसा उस पदार्थका ज्ञान हुआ यह तर्क लसे ॥
हाँ आदानोज्झन विहीन होकर निरीह जिन बोध रहे।
सहजभावसे मणिके प्रकाशकी ज्यों वस्तु विशोध लहे ॥ १६ ॥


गाथा -29,30,31,32
सारांश:–ज्ञान जब पदार्थोंको जानता है तब वह उन्हें उनके रूपमें ही जानता है, यहाँ ज्ञानका पदार्थाकार होना है। ऐसा नहीं है कि वह उन्हें ग्रहण करता हो और छोड़ता हो या उनरूप स्वयं भी बन जाता हो। जैसे दर्पण के सम्मुख जब पदार्थ आते हैं तब उनका प्रतिबिम्ब उस दर्पणमें पड़ता है फिर भी दर्पण उनरूप नहीं होता है। यदि ऐसा न माना जावे तो बर्फके प्रतिबिम्बसे काच ठंडा और अनिके प्रतिबिम्बसे गर्म हो जाना चाहिए परन्तु ऐसा कभी होता नहीं है किन्तु प्रतिविम्बके रूपमें वे सभी पदार्थ दर्पणके अन्दर आया जाता करते हैं, यही ज्ञानकी दशा है। 
दूसरा उदाहरण
नील मणिको यदि दूधके बरतन में डाल दिया जावे तो उस नीलमणिकी कान्तिसे सारा दूध नीला दीखने लगता है। नीलमणि अपने रूपमें अपने स्थान पर ही रहता है और दूध बरतनमें रहता है तो भी उस नीलमणिकी नीली कान्ति सारे दूधको नीला बना देती है। इसीप्रकार ज्ञान भी हर पदार्थको ज्ञेयके रूपमें आक्रान्त करके रहता है। जितना ज्ञान है वह सबका सब आत्मा ही है। सर्वज्ञ भगवान्‌को सम्पूर्ण पदार्थोंका साक्षात् परिपूर्ण ज्ञान होता है अतः उनकी आत्मा भी पूर्ण और उनके साक्षात् है इसीलिये वे केवली कहलाते हैं। उन्ही कि आदेश और उपदेशानुसार अपने विचारको जो स्थिर कर लेता है वह भी बहिरात्मपन ( मिथ्याज्ञान) को छोड़कर ज्ञानवान् अर्थात् अन्तरात्मा बन जाता है। एवं सब बाह्य बातोंका परित्याग करके जो केवल अपनी शुद्धात्मा के ही विचारमें निमग्न रहता है वह श्रुतकेवली कहलाता है।
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